सिनेमा, साहित्य कला के वह माध्यम हैं जिसके ज़रिये समाज के यथार्थ को सामने लाया जाता है। हालांकि सिनेमा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मनोरंजन भी होता है लेकिन उसके साथ देखने वाले दर्शकों को अगर मानव जीवन के विभिन्न रूपों का साक्षात्कार कराया जाए और समाज से परिचित कराया जाता है तो यह सिनेमा की अप्रतिम सफलता भी होगी। साथ ही सिनेमा में हम कई बार देखते हैं कि उसके गीत के बोल समय के दायरे को लांघ कर युग सत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। साहिर लुधियानवी हिन्दी या ये कहें कि भारतीय सिनेमा के उन चंद गीतकारों में से हैं जिन्होंने अपने गीतों के बोल के माध्यम से समाज, मानव जीवन-चेतना के कई रूपों को अभिव्यक्त किया है, स्वर दिया है। इश्क, इंक़लाब और इंसानियत के शब्दशिल्पी के रूप में शैलेन्द्र को याद किया जाए तो कोई गुरेज नहीं हैं. शैलेन्द्र जिसकी गीत-धारा ने हिंदी सिनेमा को मानवीय संवेदना, सामाजिक न्यायबोध और दार्शनिक गहराई से जोड़ने में एक सफल भूमिका निभाई है। वे अपने गीतों में केवल गीतकार के रूप में नहीं, बल्कि आम आदमी की तरफ़ से बोलने वाले ‘लोक–दर्शनिक’ के रूप में उभरकर सामने आते हैं, जिनके शब्द आज के विभाजित, हिंसक और बाज़ार-संचालित समय में एक तरह की नैतिक और भावनात्मक शरणस्थली के रूप में प्रतीत होते हैं। हिंदी सिनेमा और गीतों के बारे में लिखने पढने वाले विद्वानों ने शैलेन्द्र को ऐसे रचनाकार के रूप में देखा है जिसने भक्ति, सूफ़ी, लोक और प्रगतिशील परंपराओं की मानवीय धारा को फ़िल्मी गीतों में पिरोकर एक लोकप्रिय, पर गंभीर काव्य-संसार रचा, जो पीढ़ियों के बीच पुल की तरह काम करता है।
आज के समय में शैलेन्द्र वस्तुतः उस सांस्कृतिक और नैतिक संसार के प्रतिनिधि रचनाकार है जहाँ कविता, संगीत और जन–जीवन एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। वे ऐसे दौर के गीतकार हैं, जब स्वतंत्रता के बाद का भारत अपने सपनों, टूटनों और पुनर्निर्माण के बीच झूल रहा था, इसीलिए उनके गीतों में प्रेम के साथ-साथ भूख, बेरोज़गारी, विस्थापन और अन्याय के स्वर बराबर मौजूद रहते हैं। आज के आर्थिक असमानता, सांप्रदायिक तनाव और मीडिया–केंद्रित जनमत के समय में उनके स्वर और ज़्यादा अर्थपूर्ण हो उठते हैं। शैलेन्द्र की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वे सिस्टम के बाहर खड़े आम आदमी की तरफ़ से बोलते हैं, पर उनकी भाषा किसी ‘एंग्री यंग मैन’ की हिंसक हुंकार नहीं, बल्कि करुणा, व्यंग्य और आत्मालोचना से भरी हुई मानवीय आवाज़ है। हिन्दी फिल्मों के गीतकारों में शैलेन्द्रय एक ऐसा नाम है, जिन्होंने कई ऐसे गीत लिखे, जो लोगों के दिल को आज भी छू जाते हैं। भाषा पर उनका अधिकार तो था ही, लेकिन उसके साथ सादगी और गहराई भी थी। भारत के विभाजन पर लिखी उनकी कविता 'जलता है पंजाब' सुनकर राजकपूर प्रभावित हुए थे और उन्होंहने फिल्मोंो के लिये गीत लिखने का निवेदन किया, लेकिन शैलेन्द्र् ने मना कर दिया था। बाद में उन्होंने उनकी फिल्म बरसात के लिये दो गीत 'बरसात में' और 'पतली कमर' लिखा। दोनों ही गीत सुपर हिट हुए। आवारा हूं, रमैया वस्ताववैया, दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, मेरा जूता है जापानी, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज भी लोग गुनगुनाते हैं। हिन्दी फिल्म गीत लेखन में शैलेन्द्र विद्रोह और यथार्थ को अभिव्योक्तह करने वाले गीतकार के रूप में पहचाने जाते हैं।
आज का युवा वैश्वीकरण और नगरीकरण के बीच असुरक्षित, अस्थायी कामगारों के अनुभव को जी रहा है। बेघर, अस्थाई नौकरी करने वाले युवक की पहचान संकट, समाज से अस्वीकार और अपने भीतर मनुष्यता बचाए रखने की प्रयास, ये सब मिलकर आज के प्रवासी मजदूरों, गिग इकोनॉमी के डिलीवरी बॉय और महानगरों के सिंगल रूम में रहने वाले छात्रों युवा मन तक फैली हुई है और उसकी बेचैनी को छूते हैं। यह पंक्ति आज युवा पीढ़ी के उस द्वंद्व का संकेत बनती है जहाँ वे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार और डिजिटल संस्कृति का हिस्सा हैं, पर अपनी सांस्कृतिक जड़ों, भाषा और मोहल्ले की स्मृतियों से पूरी तरह कटना नहीं चाहते। आज की राजनीति, मीडिया और डिजिटल संस्कृति में जब भाषा तेज़, आक्रामक और ध्रुवीकृत होती जा रही है, तब शैलेन्द्र की सरल, बोलचाल वाली, पर गहन भाषा एक वैकल्पिक नैतिक सौंदर्य-बोध का संकेत देती है। उनकी पंक्तियाँ गाँव–कस्बों से लेकर शहरों की बस्तियों, फ़ैक्टरी-मज़दूरों, किसान आंदोलनों और छात्र–युवा हलकों तक आज भी गूँजती हैं; हाल के अध्ययनों में युवाओं द्वारा “मेरा जूता है जापानी” जैसे गीत के माध्यम से राष्ट्र, वर्ग और धर्म की समकालीन समझ को परखा गया है, जो उनकी प्रासंगिकता को नए अर्थों में सामने लाता है। इस तरह शैलेन्द्र की स्मृति केवल नॉस्टैल्जिया नहीं, बल्कि वर्तमान भारत की जटिलताओं पर विचार करने का एक जीवित उपकरण बन जाती है, जहाँ उनके गीत विकास, शांति, प्रेम और बहुलता जैसे आदर्शों को सुलभ भाषा में दुबारा प्रस्तावित करते हैं।
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| चित्र : गूगल से साभार |
शैलेन्द्र के मानवतावाद की सबसे तीखी और साफ़ अभिव्यक्ति “सजन रे झूठ मत बोलो” जैसे गीतों में दिखाई देती है। यहाँ वे किसी धार्मिक उपदेशक की तरह नहीं, बल्कि जीवन से तपे हुए साधारण आदमी की तरह कहते हैं कि अंतिम विश्राम में न धन काम आएगा, न झूठी प्रतिष्ठा; काम आएगा केवल ईमानदार कर्म। आज के दौर में जब भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़ा, ट्रोल–संस्कृति और दोगलेपन पर आधारित “इमेज” बनाना आम है, यह गीत अपने भीतर एक नैतिक प्रतिरोध की तरह खड़ा होता है। कॉर्पोरेट–जॉब, राजनीति या डिजिटल इन्फ्लुएंसर कल्चर में “प्रोजेक्टेड इमेज” और “वास्तविक चरित्र” के बीच का फासला जितना बढ़ता है, उतना ही यह गीत एक चेतावनी और आत्म–समीक्षा की आवाज़ के रूप में प्रासंगिक होता जाता है। “किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार” और “तू प्यार का सागर है” जैसे गीत आज की मानसिक स्वास्थ्य–बहस में खास महत्व रखते हैं। लगातार प्रतिस्पर्धा, अकेलापन और अवसाद से जूझती पीढ़ी के लिए ये गीत बताते हैं कि मनुष्य का असली अर्थ उसके रिश्तों, करुणा और साझा दुख–सुख में है। “किसी की मुस्कुराहटों…” में किसी अनाम ‘अच्छे इंसान’ की कल्पना है जो अपने लाभ–हानि से ऊपर उठकर दूसरों की खुशी में खुशी ढूँढता है; यह विचार आज की ‘माई–ब्रांड, माई–फॉलोअर्स’ वाली सेल्फ–सेंटरिक संस्कृति के बिल्कुल उलट खड़ा होता है। “तू प्यार का सागर है” में भक्ति रूपक के माध्यम से पाप, अपराध-बोध और मुक्ति की चर्चा है, इसे आज एक ऐसे व्यक्ति की आंतरिक टूटन के रूप में देखा जा सकता है जो समाज के दबाव, अपने अपराध–बोध और अकेलेपन के बीच किसी नैतिक–आत्मिक सहारे की तलाश में है। यहाँ शैलेन्द्र धर्म को संकीर्ण अनुष्ठान नहीं, बल्कि करुणा और क्षमा का व्यापक मानवीय भाव मानते हैं।
शैलेन्द्र की प्रासंगिकता का एक बड़ा आयाम वर्ग–चेतना और श्रम–सम्मान है। “अजब तेरी दुनिया, ऐ मेरे मालिक” या किसान–मजदूर की त्रासदी पर लिखे उनके गीत आज के किसान आंदोलनों, कॉरपोरेट–कृषि, ठेका–मजदूरी और असंगठित क्षेत्र की शोषणकारी स्थितियों के संदर्भ में नए अर्थ लेते हैं। जब भूमिहीन मजदूर या छोटे किसान आत्महत्या के कगार पर पहुँचते हैं, तो शैलेन्द्र के गीतों की पंक्तियाँ उनके मौन प्रतिरोध की आवाज़ बनती महसूस होती हैं। इसी तरह “सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी” जैसे गीतों में व्यवस्था द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले भोले इंसान की करुण–विडंबना है, वह ईमानदार है, पर “चालाक” नहीं, इसलिए बार-बार हार जाता है। यह चरित्र आज भी हर उस ईमानदार कर्मचारी, शिक्षक, पत्रकार या एक्टिविस्ट में दिखता है जो सिस्टम की चालबाज़ियों से हारते हुए भी अपनी नैतिकता नहीं छोड़ पाता। “वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ” जैसे गीत आज की ‘एग्ज़िस्टेंशियल क्राइसिस’ के सन्दर्भ में पढ़े जा सकते हैं। अकेली भीड़, सोशल मीडिया की भीड़ में घिरे हुए लोग, लेकिन भीतर से खाली और असंबद्ध इस मनःस्थिति के बीच शैलेन्द्र का यह गीत जीवन की नश्वरता, रिश्तों की अस्थायीता और अन्ततः स्वयं से सामना करने की अनिवार्यता की बात करता है। यह गीत किसी धार्मिक मोक्षवाद की ओर नहीं, बल्कि एक तरह के आत्म–साक्षात्कार की ओर इशारा करता है कि अंत में मनुष्य को अपने निर्णयों, पाप–पुण्य और कर्मों का भार स्वयं ही उठाना है। इस तरह शैलेन्द्र का दार्शनिक पक्ष आज के युवाओं की ‘आइडेंटिटी–क्राइसिस’ और ‘पर्पज़–सर्च’ में आश्चर्यजनक रूप से संवाद करता है।
फिल्म-संगीत के इतिहास में भी शैलेन्द्र की पहचान ‘पीपुल्स पोएट’ के रूप में दर्ज हो चुकी है, जिसे राजकपूर का पुश्किन कहा जाना और गुलज़ार जैसे समकालीन गीतकारों द्वारा उन्हें सर्वोत्तम गीतकार मानना और पुष्ट करता है। आलोचकों के अनुसार शैलेन्द्र की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने प्रेम-गीतों की सीमाओं को तोड़ कर ग़रीबी, विस्थापन, श्रम, हाशियाकृत समुदायों और अस्तित्वगत प्रश्नों को मुख्यधारा के सिनेमा के भीतर जगह दिलाई और इस तरह गीत को मनोरंजन से आगे बढ़ाकर सामाजिक, नैतिक हस्तक्षेप का माध्यम बनाया। आज के दौर में, जब सिनेमा और संगीत बड़े कॉरपोरेट ढाँचे के भीतर पैकेज्ड प्रोडक्ट में बदलते दिखाई देते हैं, शैलेन्द्र को याद करना मानो उस समय को याद करना है जब गीत मनुष्य की तकलीफ़, उम्मीद और संघर्ष की असल आवाज़ हुआ करता था। शैलेन्द्र केवल अतीत के किसी “क्लासिक गीतकार” की तरह नहीं, बल्कि मानवतावादी विवेक के स्थायी स्रोत के रूप में पढ़े, सुने और जिए जाने वाले गीतकार के रूप में आज भी अपने शब्दों के माध्यम से हम सबके बीच हैं।
संपर्क : डॉ विजय कुमार
हिंदी विभाग
शास. तिलक महाविद्यालय
9968981725


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