कवि-कथाकार और
आलोचकीय प्रतिभा को अपने व्यक्तित्व में समोये दूधनाथ सिंह एक संवेदनशील,
बौद्धिक, सजगता सम्पन्न दृष्टि रखने वाले
शीर्षस्थ समकालीन आलोचक हैं। आपके अध्ययन-विश्लेषण का दायरा व्यापक और विस्तीर्ण
है। निराला साहित्य के व्यक्तित्व के विविध पक्षों और उनकी रचनात्मकता के सघन
अनुभव क्षणों का गहरा समीक्षात्मक
विश्लेषण आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘निराला: आत्महन्ता आस्था’’
(1972) में किया है।
दूधनाथ सिंह जी सर्वप्रथम पुस्तक के शीर्षक
की सार्थकता को विवेचित करते हुए लिखते हैं कि कला और रचना के प्रति एकान्त समर्पण
और गहरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर ‘‘घनी-सुनहली
अयालों वाला एक सिंह होता है, जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के
भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंहवृत्ति के कारण वह कभी भी इस
खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है- चारों ओर से
अपनी नजरें समेटे, एकाग्रचित्त, आत्ममुख,
एकाकी और कोलाहलपूर्ण शान्ति में जूझने और झपटने को तैयार।...... इस
तरह यह एकान्त-समर्पण एक प्रकार का आत्मभोज होता है: कला-रचना के प्रति यह अनन्त
आस्था एक प्रकार के आत्म-हनन का पर्याय होती है, जिससे किसी
मौलिक रचनाकार की मुक्ति नहीं है। जो जितना ही अपने को खाता जाता है- बाहर उतना ही
रचता जाता है। लेकिन दुनियावी तौर पर वह धीरे-धीरे विनष्ट समाप्त, तिरोहित तो होता ही चलता चलता है। महान और मौलिक सर्जना के लिए यह आत्मबलि
शायद अनिवार्य है।’’
अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के संदर्भ में यह
सिंहवृत्ति (अथवा सिंह बिम्ब) सभी कवियों के लिए जरूरी है, सभी
इस प्रक्रिया से गुजरे हों ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन निराला के संदर्भ में,
उनकी रचनात्मकता में यह (सिंहवृत्ति) सदैव सक्रिय रही है स्वयं उनकी
पंक्तियों में- ‘जनता के हृदय जिया / जीवन-विष विषम पिया’,
धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध / धिक् साधन जिसके लिए सदा ही
किया शोध।’ और यही कारण है कि उनके जीवन में व्याप्त
विषमताएँ, दुख-दर्द, अन्तस्ताप उनकी
काव्य की रचनात्मकता की शक्ति बनता गया।
दूधनाथ सिंह जी की स्पष्ट मान्यता है कि
छायावादी कवियों में निराला ही एक मात्र ऐसे कवि हैं जिनका जीवन, कृतित्व तत्कालीन भारतीय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थितियों से एकदम साम्य स्थापित करता चलता है। और यही कारण है कि
उनके काव्य और व्यक्तित्व का अध्ययन अनुशीलन तत्कालीन भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की
गाथा का अनुशीलन प्रतीत होता है। दूधनाथ सिंह के शब्दों में- “अपने युग के प्रमुख कवियों में निराला ही ऐसे कवि हैं जिनके निजी जीवन और
तत्कालीन भारतीय स्थितियों के बीच घहराता हुआ संघात कभी भी बन्द नहीं हुआ है।“[1]
निराला की रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण के
उपक्रम में दूधनाथ सिंह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विशेषता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उनकी रचना प्रक्रिया
या रचनाओं को कालक्रम के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता क्योंकि एक ही काल में वे परस्पर भिन्न-भिन्न भावबोध
एवं विचारबोध से परिचालित रचनाएँ रचते चलते हैं। इसलिए उनकी रचनाओं का कालक्रम
आधारित विश्लेषण सर्वथा गलत निष्कर्षों की ओर ले जायेगा। उनके शब्दों में- “निराला का काव्य व्यक्तित्व इतना विराट, गहन,
गंभीर और कुछ ऐसा सीमाहीन लगता है, जिसके
अन्दर बाहरी विचार और सिद्धान्त और अध्ययन रेखाएँ तिरोहित हो जाती हैं और फिर
जो कुछ भी रचकर बाहर आता है, वह सिर्फ निराला होते हैं। सामयिकता उनके व्यक्तित्व में घुलकर एक निजी और
मौलिक रूप धारण करती है। रचना प्रक्रिया के ये कई-कई आवर्त लगातार हर समय उनके
काव्य-व्यक्तित्व को अन्दोलित करते रहते हैं और अनेक रंगों, ध्वनियों
और अर्थों से भरी अनेक छवियों वाली कविताएँ लगातार वे रचते चलते हैं। कालक्रम के
आधार पर एक ही समय के आस-पास रची गयी भिन्न-भिन्न ढंग की इन कविताओं में कोई तारतम्य और संगति बिठाना विचित्र लगता
है।“[2]
अर्थों, रंगों और
ध्वनियों के अनेक आवर्तों को अपने में संजोने वाली निराला की कविताएँ हिन्दी
साहित्य की अपनी विशेष उपलब्धि रही हैं। एक ही प्रवृत्ति की श्रेष्ठतम
निष्पत्तियाँ प्रायः किसी कवि की एक ऐसी विशेषता होती है जो उसे अन्य कवियों से
पृथक् करती है लेकिन निराला की मौलिकता और प्रसिद्धि का एक प्रमुख कारण यह भी रहा
है कि वे एक साथ कई प्रवृत्तियों , कई वैशिष्ठियों से समन्वित विविध भावों वाली श्रेष्ठ और लोकप्रिय
कविताओं के प्रणेता रहे हैं। उनकी इसी प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए दूधनाथ सिंह
जी लिखते हैं- “संसार की किसी भी भाषा में ऐसे कवि बहुत कम होंगे, जो रचना के अनेक रूपों को साथ-साथ वहन कर सकें और लगातार अनेक मुखी अर्थों
वाली कविताएँ रचने में समर्थ हैं। इसका प्रमुख कारण यही था कि निराला ने जीवन को
एक ही साथ अनेक स्तरों पर जिया। शायद जीवन और काव्य-रचना में एक ही साथ संघर्ष और
संघात के इतने सारे फ्रण्ट खोलने, लगातार लड़ते रहने और रचते
रहने की मानसिक और शारीरिक थकान को समझने के बाद ही उनके मानसिक असन्तुलन को समझा
जा सकता है और तब यह कोई ऐसी अजूबा स्थिति नहीं लगती क्योंकि शरीर और मस्तिष्क की
एक सीमा तो होती ही है और निराला ने असीम शारीरिक और मानसिक क्षमता के साथ इस सीमा
का, चाहे जाने या अनजाने, लगातार
उल्लंघन किया। ऐसा न करना एक तरह की मानसिक समझौता परस्ती को प्रश्रय देना था जो
निराला जैसे गहन संवेदनशील, अहंकारी, उदात्त,
अव्यावहारिक, भावुक और निपट मानवीय व्यक्ति के
लिए असम्भव था।“[3]
निराला साहित्य में एक साथ गतिमान नाना रूपात्मक अभिव्यक्तियों वाली कविताओं के
साक्षात्कारकर्ता आलोचक दूधनाथ सिंह जी निराला की कविताओं को उनके निजत्व की,
उनके व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति मानते हैं। रचित साहित्य और
रचनाकार के व्यक्तित्व दोनों को आपस में सम्पृक्त कर उनका विश्लेषण किया है।
विश्लेषण तब और भी अधिक दिलचस्प हैं जाता है जब वे ‘निजत्व
की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति’ को निराला की काव्य-रचना का
केन्द्रीय भाव घोषित करते हैं। वे लिखते हैं- “निराला की रचनात्मकता का श्रेष्ठ
प्रतिफलन (गद्य और कविता- दोनों ही क्षेत्रों में) अपने निजत्व की समीपतम पहचान की
अभिव्यक्ति में हुआ है। यह एक प्रकार का सघनतम आत्म-साक्षात्कार है- कविता या रचना
को अपने निजी जीवन-बिम्ब में घुला देने का सफल प्रयास। उनकी काव्य-रचना का अधिकांश
भाग इसी आत्म-साक्षात्कार अथवा निजत्व की समीपतम पहचान का परिणाम है। अपने
जीवन-बिम्ब और काव्य-बिम्ब को एकमेक कर देने के कारण ही उनके काव्य में वह गहराई आ
सकी है, जो धीरे-धीरे पर्त-दर-पर्त खुलती है और अपनी गरिमा,
पवित्रता और भावोच्छलता से पाठक को आह्लादित करती हुई, उसके मन पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाती है। उच्छल पावनता, आत्मसमर्पण, सुख, आत्मसंतोष,
गरिमामयता, अवसाद खिन्नता और जर्जरपन से होकर
तिरोहित होते हुए, शरणागति की पावनतम इच्छा-यह सब कुछ निजत्व
की इसी समीपतम पहचान का प्रतिफल है।“[4]
यह
सच है कि निराला की कविताओं में उनके
आत्मसाक्षात्कार की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है,
‘काव्य-बिम्ब’ में ‘जीवन-बिम्ब’
का एक क्षीण आभास भी झलकता रहता है लेकिन उनके काव्य को सिर्फ उनके
जीवन-बिम्ब की प्रतिच्छाया मान लेने से गलत निष्कर्ष निकलने की पूरी संभावना भी
आकार ग्रहण करने लगती है। जैसा कि दूधनाथ सिंह द्वारा निराला की रचनाओं के
विश्लेषण में दृष्टिगोचर है। निराला के ‘काव्य-बिम्ब’
और ‘जीवन-बिम्ब’ को
परस्पर एकमेक कर विश्लेषित करने से उनकी कविताओं के राष्ट्रीय महत्त्व का तिरोहित
होना स्वाभाविक है। किसी कविता की रचनात्मकता के परीक्षण का एक मानदण्ड यह भी हुआ
करता है कि वह कितना व्यक्तिगत जीवन का निषेध कर सामूहिक या सामाजिक जीवन की
अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देती है, राष्ट्रीय समस्याओं का
दिग्दर्शन और उनका समाधान किन-किन रूपों में प्रस्तुत करती है। रचनाकार के
व्यक्तिगत जीवनानुभवों में जितना अधिक सामाजिक जीवनानुभवों का प्रामाणिक चित्रण
होगा उतना ही वह रचना दीर्घजीवी एवं सम्प्रेषणीय होगी। कोई भी श्रेष्ठ रचना अपने
युगजीवन के अनुभवों से विहीन होकर श्रेष्ठ या महान हो ही नहीं सकती। निराला का
काव्य-बिम्ब वस्तुतः सामाजिक जीवन-बिम्ब या राष्ट्रीय जीवन-बिम्ब की चेतना से
परस्पर अनुस्यूत है। निराला की कविताओं में आत्मसाक्षात्कार का दिग्दर्शन गलत नहीं,
बल्कि उन्हें आत्मसाक्षात्कार का प्रतिफलन मान लेना गलत है। दूधनाथ सिंह जी उनकी कविताओं में निहित
राष्ट्रीय स्वरों की अनुगूँज को न सुन सकें हैं
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन वे इसकी काफी क्षीण या दूरवर्ती झंकार ही
सुन सके। ‘राम की शक्तिपूजा’ के
विश्लेषण क्रम में वे लिखते हैं- “कहीं कहीं इस कविता में राम के माध्यम से निराला
की राष्ट्रीय गुलामी से मुक्ति की चिन्ता झलक मारती है। इस नये अर्थ की प्रतिष्ठा
की ओर कुछ लोगों ने संकेत भी किया है। इसकी कुछ क्षीण और दूरवर्ती झंकार कविता में
विद्यमान है। यद्यपि इस अर्थ को पूरी कविता में बहुत सावधानी से पिरोया नहीं गया
है।“[5] यहाँ
इस उदाहरण को प्रस्तुत करने का महज यह उद्देश्य है कि वे निराला की कविताओं में राष्ट्रीय स्वर की अनुगूँज क्षीण स्तर पर सुनते हैं और
आत्मसाक्षात्कार के अंश को ज्यादा वृहत्तर स्तर पर। यह अलग बात है कि यह दूधनाथ
सिंह जी ने पूरे क्रम को ठीक उलट दिया है क्योंकि
निराला के काव्य में आत्मसाक्षात्कार के स्वरों की अनुगूँज क्षीण है जबकि
उसके राष्ट्रीय संदर्भों के स्वर की अनुगूँज काफी प्रशस्त है। स्वयं दूधनाथ सिंह
जी भी इस बात से भली भाँति वाकिफ हैं। उनके शब्दों में- ‘अपने
युग के प्रमुख कवियों में निराला ही ऐसे
कवि हैं, जिनके निजी जीवन और तत्कालीन भारतीय स्थितियों के
बीच घहराता हुआ संघात कभी भी बन्द नहीं हुआ है।”[6]
दूधनाथ सिंह जी निराला के अध्ययन-विश्लेषण को कुछ मुख्य अध्यायों में विभाजित करते
हैं वे निम्न हैं- ‘सही अध्ययन दृष्टिः स्थापना’, ‘अन्तःसंगीत’, ‘लम्बी कथात्मक कविताएँ’, ‘राष्ट्रीय उद्वोधन’, ‘काव्य-आभिजात्य से मुक्ति का
प्रयास’, ‘ऋतुप्रार्थनाएँ’, ‘प्रपत्तिभाव’। अध्ययन के शीर्षक चाहे जो कुछ हैं लेकिन उनके विश्लेषण में, बल्कि समग्र विश्लेषण में प्रायः एक ही प्रधान स्वर की अनुगूँज सुनाई देती
है। वह है- ‘‘उनका काव्य ही उनका जीवन-बिम्ब है और उनका
जीवन-बिम्ब ही उनका काव्य बिम्ब।’’ यही उनके समस्त विश्लेषण
का आधारवाक्य है। अपनी इसी मान्यता के चलते ही वे निराला की कविताओं में
आत्मसाक्षात्कार को इतनी अधिक प्रधानता देते हैं। उनकी सामान्य कविताओं से लेकर लम्बी कथात्मक कविताओं तक में वे
प्रधानतया इसी आत्मसाक्षात्कार का साक्षात्कार करते हैं। वे लिखते हैं- “निराला की
रचनात्मकता का श्रेष्ठ प्रतिफलन अपने निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति के रूप
में हुआ है। यह एक प्रकार का सघनतम आत्मसाक्षात्कार है- कविता या रचना को अपने
निजी जीवन-बिम्ब में घुला देने का सफल प्रयास। इस रूप में निराला हमारे निजी
क्षणों के निजी (प्राइवेट) कवि बन जाते हैं, जिनकी
अभिव्यक्तियों पर हम सुख-दुख के घने क्षणों में भरोसा कर सकते हैं। किसी भी कवि की
यह श्रेष्ठतम उपलब्धि और अन्तिम सफलता कही जा सकती है। निजत्व की यह समीपतम पहचान
अपने श्रेष्ठतम रूप में उनके गीतों में अभिव्यक्त हुई है......आत्मसाक्षात्कार का
तिरोहित उनकी कविताओं में कहीं नहीं हुआ।........उनकी लम्बी कथात्मक कविताओं में
भी उनका आत्मसाक्षात्कार या निजत्व की समीपतम पहचान ही अभिव्यक्त हुई है।
राष्ट्रीय उद्वोधन की कविताओं में भी उनकी उच्छल राष्ट्रभक्ति ही व्यक्त हुई है और
काव्य आभिजात्य से मुक्ति के प्रयास में लिखी गयी कविताएँ भी इस विशेषता से रहित
नहीं हैं। इस तरह निजत्व की समीपतम पहचान की अभिव्यक्ति ही निराला की काव्य-रचना
का वह केन्द्रीय भाव है, जिसके इर्द-गिर्द वे जीवन-भर चक्कर
काटते हुए दिखाई देते हैं।“[7]
वस्तुतः निराला का व्यक्तित्व और उनकी रचनात्मकता में इतना गहरा साम्य है कि पाठक
या आलोचक चलता है तो निराला की कृति का आस्वादन करने लेकिन न जाने कब वह निराला के
व्यक्तित्व का ही अध्ययन करने लगता है उसे इसका आभास भी नहीं होता। बड़े-बड़े
आलोचक भी उनके व्यक्तित्व और रचनाशीलता के अलग-अलग विश्लेषण में सफल नहीं हो पाते
और तब ऐसा ही निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक है कि उनका काव्य-बिम्ब ही उनका
जीवन-बिम्ब है और उनका जीवन-बिम्ब ही काव्य-बिम्ब।’ आवश्यकता
तो होती है उनके जीवन बिम्ब और काव्य-बिम्ब के अलग-अलग विश्लेषण की लेकिन यह उतना
आसान नहीं है।
अब हम दूधनाथ सिंह द्वारा विश्लेषित लम्बी
कविताओं (जिनमें ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सरोज-स्मृति’,
‘तुलसीदास’ इत्यादि कविताएँ प्रमुख हैं) के उन
अंशों का साक्षात्कार करते हैं जिनमें दूधनाथ सिंह की उपर्युक्त मान्यता आकार
ग्रहण करती हैं और वे बड़ी ही मजबूती के साथ निराला की कविताओं को आत्मसाक्षात्कार की कविता घोषित करते हैं।
राम की शक्तिपूजा के विश्लेषण क्रम में दूधनाथ सिंह जी लिखते हैं- “......निराला की इन लम्बी कविताओं में भी आत्मसाक्षात्कार ही प्रमुख है। ये
कविताएँ भी मुख्यतः आत्मचरितात्मक ही हैं। ‘राम की शक्तिपूजा’
के साथ भी यही बात है। राष्ट्रीय मुक्ति के ऐतिहासिक समसामयिक अर्थ
की प्रतिष्ठा से भी अधिक सघन और महत्त्वपूर्ण अर्थ राम के चरित्र के माध्यम से कवि
की अपनी ही अखण्ड रचनात्मक विजय की पहचान है। यही आत्मसाक्षात्कार का संघटित अर्थ
इस कविता को सर्वथा एक नये और अनछुए धरातल पर ला खड़ा करता है। ......इस अर्थ का
संगुम्फन इतना सूक्ष्म है कि उसे आसानी से पकड़ना मुश्किल है। लेकिन एक बार इस
प्रतीकार्थ को क्रमवार ध्यान में रखकर इस कविता को पढ़ें तो धीरे-धीरे यह अर्थ-रस टपकने लगता है।“[8]
आश्चर्य की बात तो यह है कि दूधनाथ सिंह स्वयं ‘राम की
शक्तिपूजा’ को उसकी व्याख्याओं के पारम्परिक और
भावोच्छ्नपूर्ण व्याख्याओं, प्रशस्तियों से बचाने को
कृतसंकल्प हैं, वे ‘राम की शक्तिपूजा’
के यथार्थ और वास्तविक मूल्यांकन के पक्षधर हैं, वे उस कविता के अक्षत सौन्दर्य के पक्षपाती हैं तो फिर क्यों वे ‘राम की शक्तिपूजा’ को सिर्फ आत्मसाक्षात्कार तक
सीमित कर उसे उसके राष्ट्रीय सन्दर्भों के मूल्यवान पक्ष से जुदा कर देते हैं?
निराला वैसे भी अपनी अनुभूतियों के, अपने
रचनात्मक संघर्ष को सीधे-सीधे अपनी कविताओं में बड़ी प्रामाणिकता से अंकित करते ही
रहे हैं तो फिर उन्हें ‘रामकथा’ का
आश्रय लेने की जरूरत ही क्यों होगी? निस्संदेह इस कविता का
महत्त्व, उसके अर्थ का संगुम्फन आत्मसाक्षात्कार तक ही सीमित
नहीं किया जा सकता। इसका अपना एक राष्ट्रीय महत्त्व भी है। यह कविता परम्परा का
पुनराख्यान भी नहीं है बल्कि पारम्परिक प्रतीकों में रचित युगीन संघर्ष की
प्रेरणाप्रद और शक्तिमयी गाथा है, महज आत्मसाक्षात्कार की
कविता नहीं। बहरहाल अभी तो दूधनाथ सिंह जी द्वारा विश्लेषित इन लम्बी कविताओं के
आत्मसाक्षात्कारात्मक अंश का अवलोकन जरूरी है क्योंकि बिना उनके मूल्यांकन के
सर्वांगीण पक्षों का उद्घाटन किये उनकी आलोचना-दृष्टि का सम्यक् परीक्षण नहीं किया
जा सकता। वे लिखते हैं- ‘‘मुझे बराबर लगता है कि निराला ने
राम के संशय, उनकी खिन्नता, उनके
संघर्ष और अन्ततः उनके द्वारा शक्ति की मौलिक कल्पना और साधना तथा अन्तिम विजय में
अपने ही रचनात्मक जीवन और व्यक्तिगतता के संशय, अपनी रचनाओं
के निरन्तर विरोध से उत्पन्न आन्तरिक खिन्नता, फिर अपने
संघर्ष, अपनी प्रतिभा के अभ्यास, अध्ययन
और कल्पना ऊर्जा द्वारा एक नयी शक्ति के रूप में उपलब्ध और प्रदर्शित करके अन्ततः
रचनात्मकता की विजय का घोष ही इस कविता में व्यक्त किया है। वही स्वयं ‘पुरुष¨त्तम नवीन हैं। नये काव्य, नयी रचनात्मकता के सर्वप्रथम और श्रेष्ठतम उद्भावक वही हैं..... अपनी इसी
खिन्न मनःस्थिति का सघन बिम्ब-चित्र निराला राम के रूप वर्णन में करते हैं :
‘अनिमेष राम-विश्वजिद्दिव्य शर-भंग-भाव
विद्धांग-बद्ध-कोदण्ड-मुष्टि
खर रुधिर स्राव।’
यह
छवि सिर्फ राम की ही नहीं है- कवि की भी है.....उसका सारा मन क्षत-विक्षत है।
मुट्ठियाँ गुस्से में कसी हुई हैं। मन का घाव रिस रहा है। अन्दर लगातार खून बह रहा
है...... शुद्ध, लाल-लाल, पवित्र,
मौलिक रचनात्मक ऊर्जा का
खून......जिस पर लगातार वर्षों से प्रहार होता रहा है। कवि के मन-मस्तिष्क पर ही
नहीं, उसके सिंहवत शरीर पर भी प्रहार की छाप विद्यमान
है......लेकिन यह अवसादग्रस्त उदास, मानसिक-शारीरिक सौन्दर्य
का धुँधलापन, उसकी आच्छन्नता क्षणिक है। अभी भी कवि की
तेजस्वी रचनात्मक क्षमता के नेत्र टिमक रहे हैं- उसकी दूरदर्शिता बरकरार है,
जैसे अंधरे पर्वत-प्रदेश से दूर कहीं सितारे चमक रहे हैं ।“[9] ध्यान
देने की आवश्यकता है कि निराला की प्रस्तुत कविता में चित्रित संघर्ष तत्कालीन
राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष का है न कि यह महज निराला की उदासी, खिन्नता और संशय के भवावेग का चित्रण । आलोचक दूधनाथ सिंह ने ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी श्रेष्ठ कविता, जिसमें स्वाधीनता-संघर्ष की चेतना सीधे-सीधे झलक मारती है, उसका ही सशक्त और ओजस्वी शब्दों में आख्यान प्रस्तुत करती है- इसका
विश्लेषण निराला की खिन्न मानसिकता, उदासी और नैराश्य से
करके क्या इस कविता के साथ अन्याय नहीं किया है? उसके
राष्ट्रीय पक्ष, सजग युगबोध, संघर्ष-गाथा
को सीमित कर उसे मात्र निराला के दुख-दैन्य और रचनात्मकता से जोड़कर उसके विस्तृत
अर्थसंधान को क्षत-विक्षत नहीं किया है? उनका यह विश्लेषण
विद्वतापूर्ण होते हुए भी कविता के बहु विस्तीर्ण अर्थसंधान को सीमितता प्रदान कर
रहा है जो इस महत्त्वपूर्ण कविता के साथ प्रत्यक्षतः किया गया अन्याय है। प्रायः
दूधनाथ सिंह जी ने अपने सम्पूर्ण विस्तृत विश्लेषण को एक ही दिशा में व्याख्यायित
किया है। जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती जाती है उन्हें आत्मसाक्षात्कार की अनुगूँज भी
उतरोत्तर गहरी होती सुनाई देती है। कविता के सारे प्रतीकार्थ को वे बड़ी कुशलता से
निराला के व्यक्तित्व में पिरोते चलते हैं। उसमें चित्रित राम की चिन्ता को सिर्फ
निराला की चिन्ता, आशावादिता को निराला की ही आशावादिता,
खिन्नता को उनकी ही खिन्नता से जोड़ते चलते हैं। वे लिखते हैं- “अपने निजत्व की
समीपतम पहचान का यह प्रतीकार्थ, धीरे-धीरे इसी तरह पूरी
कविता में संगुम्फित होता हुआ आगे बढ़ता है। इस खिन्नता, उदासी
और क्षणिक नैराश्य के बाद फिर उसे अपनी रचनात्मक कोमल ऊर्जा का प्रथम साक्षात्कार
याद आता है। कला साधना के वे शुरू के दिन। जानकी का सारा प्रसंग इसी कलात्मक
संरचना के प्रारम्भिक दिनों का प्रतीकार्थ देता है। इसमें कविता कवि से गोपन
संभाषण करती है, प्राकृतिक वैभव विलास और सौन्दर्य से भरपूर।
उसके प्रथम अनुभव की अभिव्यक्ति के लिए कवि ने एक सम्पूर्ण वाक्य-बिम्ब की रचना की
है- ज्योति: प्रपात स्वर्गीय ज्ञात छवि प्रथम स्वीय’। जैसे
प्रकाश स्वर्गीय झरना हो ..... कुछ इस तरह के आन्तरिक सौन्दर्य का अनुभव। कवि अपनी
उस प्रथम रचना-ऊर्जा के ऊर्जस्वित सौन्दर्य की स्मृति से जैसे फिर जागता है।“[10] यहाँ
स्पष्ट है कि दूधनाथ सिंह जी ने जानकी मिलन के सारे प्रसंग को निराला की रचनात्मक
कोमल ऊर्जा के प्रथम साक्षात्कार से जोड़कर विश्लेषित किया है। वस्तुतः इस कविता
में चित्रित जानकी प्रसंग प्रेम की कोमल भावाभिव्यंजना तथा नारी की प्रेरणामयी
शक्ति तथा उसकी रचनात्मिका शक्ति का आख्यान प्रस्तुत करता है। अगर प्रतीकार्थ में
हम प्रस्तुत प्रसंग को निराला के ‘निजत्व की समीपतम’ पहचान के अर्थ में लें तो यह प्रसंग निराला के जीवन में प्रेमोदय, प्रेम, मिलन तथा उनकी प्रेयसी और पत्नी मनोहरा देवी
के प्रथम मिलन या साक्षात्कार के अर्थ की प्रतीति कराता है न कि उनकी रचनात्मकता
की। वैसे भी सन 30-35 के पूर्व ऐसी बहुत कम रचनाएँ हैं होंगी
जो निराला की रचनात्मकता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सके, यद्यपि निराला की काव्य रचना में रचनात्मक उपलब्धियों की निरन्तरता सदैव
विद्यमान रही। दूधनाथ सिंह जी ने प्रस्तुत कविता को प्रबन्धात्मकता के पारम्परिक
ढाँचे तथा राम कथा से हटाकर विश्लेषित करने का प्रयास किया है तो भी इससे कविता के
अर्थ संधान में कोई बाधा नहीं उपस्थित हुई। प्रस्तुत कविता की रचनात्मकता की
अर्थवत्ता की क्षति तो तब हुई जब उसे उसके युग-जीवन के सापेक्ष विश्लेषित न कर
निराला के व्यक्तिगत जीवन-संदर्भों से ही जोड़कर विश्लेषित किया। कविता को एक
प्रकार की निरर्थक व्याख्या से मुक्त कराकर दूसरे प्रकार की निरर्थक व कम
महत्त्वपूर्ण व्याख्या से संबद्ध कर दिया। सच है कि निराला के निजत्व की समीपतम
पहचान के अंश भी कविता में दृष्टिगोचर होते हैं लेकिन प्रधानता राष्ट्रीय संदर्भों
की, सजग चेतना की है। यह तो स्वाधीनता प्राप्ति हेतु
संघर्षरत क्रान्तिकारियों के लिए सृजित आशाप्रद आख्यान की कविता है जैसा कि डॉ.
राजेन्द्र कुमार जी ने कहा है कि यह कविता ‘निराशा से आशा की
ओर किया गया प्रमाण है।’
‘राम की शक्तिपूजा’ की
तरह दूधनाथ सिंह जी ‘तुलसीदास’ को भी
आत्मसाक्षात्कार की ही कविता मानते हैं। उनके अनुसार ‘तुलसीदास’
लम्बी कविता में तुलसी के व्यक्तित्व के माध्यम से निराला ने अपने
ही रचनात्मक आयामों की चिन्ता का उद्घाटन किया है। यद्यपि दूधनाथ जी मानते हैं कि
इस कविता में निराला की मुख्य चिन्ता भारत के सांस्कृतिक अन्धकार को लेकर व्यक्त
की गई है लेकिन इसका अर्थ महज इतने तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इसका अर्थ निराला
के निजी जीवन में व्याप्त संघर्ष और उनके आत्मसाक्षात्कार के अंशों के साथ जुड़ता
है। वे लिखते हैं- “तुलसीदास कविता में निराला द्वारा प्रतिष्ठित ऐतिहासिक,
सामाजिक और राजनीतिक अर्थ अधिक स्पष्ट है। उसके संकेत साफ हैं और
उनकी दुहरी अर्थव्यंजना पकड़ने में कठिनाई नहीं होती। भारत के सांस्कृतिक अंधकार
की चिन्ता से कविता प्रारम्भ होती है। लेकिन इस अर्थ के साथ ही निजी
आत्मसाक्षात्कार का अर्थ और अधिक स्पष्टता और गहराई से निराला ने इस कविता में
पिरोया है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में कवि
के निजी अर्थ-सम्भार- उसकी रचनात्मकता के संघर्ष को ढूँढ़ना और मिलाना पड़ता
है......‘राम की शक्तिपूजा’ में मुक्ति
के प्रतीक राम, राम ही हैं निराला नहीं। निराला वे तब हैं,
जब वे कवि के निजी रचनात्मक संघर्ष के आत्मसाक्षात्कार वाले
प्रतीकार्थ में नियोजित होते हैं।“[11] जहाँ
तक ‘तुलसीदास’ और निराला के व्यक्तित्व
का तुलनात्मक आभास वाली पंक्तियों की अर्थसंघटना से है, आत्मसाक्षात्कारात्मक
अंश से है वहाँ तक ठीक है, क्योंकि राष्ट्रीय पराभव और
सांस्कृतिक पराभव से तुलसीदास भी चिन्तित होते हैं, उनसे
मुक्ति की राह खोजते हैं और स्वयं कवि निराला भी। वस्तुतः वह कवि है ही नहीं जो
राष्ट्रीय पराभव और दुर्दशा से चिन्तित न हो, जो राष्ट्र को
मुक्ति का मार्ग न दिखलाए। यहाँ समस्या तब आती है जब दूधनाथ जी ‘तुलसीदास’ कविता में निराला, राम
और तुलसीदास इन तीनो के व्यक्तित्व को एकमेक करके मूल्यांकित करते हैं। ‘तुलसीदास’ कविता में राम प्रत्यक्षतः नहीं हैं,
हाँ राम के उपासक तुलसी हैं जिनका अर्थसंधान निराला के व्यक्तित्व
में किया जा सकता है लेकिन निराला के व्यक्तित्व को राम में नियोजित नहीं किया जा
सकता। खासतौर पर ‘तुलसीदास’ कविता में।
राम की शक्तिपूजा में तो संभव है कि राम के संघर्ष को निराला के संघर्ष पर आरोपित
किया जा सके लेकिन ‘तुलसीदास’ कविता
में राम और निराला में कोई एकतानता नहीं, कोई साम्यता नहीं। लेकिन दूधनाथ सिंह जी ने इस
कविता में तुलसीदास और राम को निराला में ही रूपान्तरित कर दिया है। उनके शब्दों
में- “‘तुलसीदास’ में तुलसीदास राम भी
हैं और यह तुलसी और उनमें प्रतिरोपित राम-निराला ही हैं। यानी कि राम कथा के
रचयिता तुलसीदास और राम और निराला यहाँ एक हैं जाते हैं।“[12] अपने
विवेचन के इसी क्रम में दूधनाथ जी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थापना भी कर जाते हैं जब
वे लिखते हैं- “तुलसीदास के माध्यम से यह जनसाधारण की दुर्दशा और सांस्कृतिक
अंधकार की चिन्ता निराला के कवि की आधुनिक चिन्ता है।“[13]
वस्तुतः यह है कविता के सही संदर्भ को समझने
वाली सजग आलोचकीय दृष्टि। दूधनाथ सिंह जी की यह स्थापना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है
क्योंकि कृति के वास्तविक कथ्य का उद्घाटन इन पंक्तियों में हुआ है। यह कविता सांस्कृतिक पराभव से
उत्पन्न निराशा को आशा में परिणत करने के प्रयास स्वरूप लिखी गयी है। समूचे
राष्ट्र में खोये हुए गौरव की पुनः स्थापना तथा राष्ट्रीय जागरण ही इस कविता का
मूल कथ्य है। इस सारी पृष्ठभूमि को जानने-समझने के बावजूद दूधनाथ सिंह जी पुनः इस कविता
को निराला के व्यक्तिगत जीवन संदर्भों से जोड़कर व्याख्यायित करने लगते हैं। और तभी
स्पष्ट प्रतीत होता है कि दूधनाथ सिंह जी कविता के सारे अर्थ-तन्तुओं की स्पष्ट
समझ होने पर भी अपने पूर्वाग्रह को ही आरोपित करते चलते हैं। और जब हमारे
पूर्वाग्रह और हमारी पूर्वधारणा ही गलत होगी तो स्वाभाविक है कि निष्कर्ष भी गलत
दिशा में अग्रसर होने लगेंगे। यही हुआ भी।
आइए अब हम देखते हैं कि कैसे विद्वान आलोचक
दूधनाथ सिंह जी अपनी समूची आलोचकीय सूझ-बूझ को दरकिनार कर अपने पूर्वाग्रह के चलते
‘तुलसीदास’ कविता के अर्थविस्तार को अर्थसंकोच
में परिणत कर देते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘इसीलिए मैंने कहा कि
यहाँ कवि की रचनात्मक सिद्धि और उपलब्धि के अर्थ के भीतर से ही उसके सांस्कृतिक
निर्माण का अर्थ भी उगता है, क्योंकि निराला जानते हैं कि
उन्हीं मन्त्रपूत ओजस्वी वाणी, मौलिक वाग्मिता और गहरे अध्ययन
तथा जीवन और संस्कृति की विराट समझ के भीतर से पुनः भारतीय जनता के लिए
आशा-विश्वास और आस्था का नया सूर्य उगेगा-
“देश
काल के शर से बिंध कर
जागा
यह कवि अशेष छवि धर
इसका
स्वर भर भारती मुखर होयेंगी
निश्चेतन,
निज तन मिला विकल
छलका
शत-शत कल्मष के छल
बहतीं
जो,
वे रागिनी सकल सोंयेंगी।“
यह सच है कि
निराला राष्ट्र की शिराओं में आशा, उत्साह,
विश्वास और आस्था का संचार करना चाहते हैं लेकिन इसका प्रतीक पुरुष
तुलसीदास या लोगों के मन में गहरी निष्ठा के रूप में विराजित कवि तुलसी के महान
व्यक्तित्व को मानते हैं न कि स्वयं को। अगर कवि स्वयं की ही साधना की प्रशस्ति
करने लगेगा तो यह कविता ‘अहम्मन्यता’ और
‘कवि की गवरोक्ति’ के सिवा कुछ नहीं
होगी लेकिन यहाँ ऐसा है नहीं। यहाँ निराला ‘तुलसीदास’
के माध्यम से भारतीय जनता के खोये हुए गौरवबोध को जागृत कर राष्ट्र
की शिराओं में ऊर्जा की अनन्त राशि को प्रवाहित करना चाहते हैं ये अलग बात है कि
कवि निराला स्वयं तुलसीदास से प्रेरणा प्राप्त करते रहे हैं, तुलसीदास के विराट व्यक्तित्व से हमेशा कुछ सीखने, रचने
का संकल्प ग्रहण करते रहे हैं। यह कविता तुलसीदास के माध्यम से जागृति का संदेश
देने वाली कविता है। निराला कहना चाहते हैं जब एक मध्यकालीन व्यक्ति जबकि
स्थितियाँ विषम थीं, देश मुगलों द्वारा पराभूत था तब उसने
प्रेम, भक्ति और ऊर्जा के अजस्र स्रोत को प्रवाहित कर दिया
तो हम सब भारतीय मिलकर क्या राष्ट्र को गुलामी से मुक्ति नहीं दिला सकते? इसीलिए वे लिखते हैं-
“जाग¨
जाग¨ आया प्रभात
बीती
वह बीती अंध रात।“
यहाँ दूधनाथ सिंह
द्वारा निराला के निजत्व की पहचान को प्रस्तुत कविता में रेखांकित करना गलत नहीं
है,
गलत है उसे ही प्रमुखता प्रदान करना। कविता की विराटता, व्यापकता को सीमित करना आलोचना नहीं, आलोचना तो उसकी
मूल्यवत्ता की प्रतिष्ठा, उसके अर्थसंधान को व्यापकता प्रदान
करना है। आज निराला होते तो शायद गालिब की इन पंक्तियों को गुनगुना रहे होते, दूधनाथ
सिंह जी स्थापना देखकर-
‘खुलेगा किस तरह मजमूँ मेरे मकतूब का या रब,
कसम
खायी है उस काफिर ने कागज को जलाने की।’
कविता के
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक संदर्भों को भली भाँति समझने के बावजूद दूधनाथ सिंह जी
इसे निजत्व की समीपतम पहचान की कविता घोषित कर देते हैं-
“निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अपनी इन
लम्बी कथात्मक कविताओं का भी विषय निराला स्वयं हैं। इस तरह की कविताएँ उनके गीतों
या ऋतु-कविताओं की तरह ही गहरे आत्मसाक्षात्कार की कविताएँ हैं। इन कविताओं में
निराला ने दुहरे स्तर पर अपने को छुआ है उनकी पहली चिन्ता ऐतिहासिक और राष्ट्रीय
उन्नयन की है, और दूसरी चिन्ता अपनी रचनात्मकता और
प्रतिभा-तेजस्विता की छानबीन, पुनर्पहचान तथा प्रतिष्ठा।
इन्हीं दोनों अर्थों का साक्षात्कार इन कविताओं के माध्यम से अत्यन्त सफलतापूर्वक
निराला ने किया है।“[14]
यहाँ विद्वान आलोचक दूधनाथ सिंह से पूछा जा
सकता है कि जब निराला ने अपनी इन लम्बी कविताओं
में ‘‘दुहरे स्तर पर अपने को छुआ है’’ तो क्या कारण है कि आप उसे अपनी विद्वतापूर्ण व्याख्या से इकहरे ही
संदर्भों में विश्लेषित करते हैं। यहाँ सिर्फ इतना निवेदन है कि अगर कविता से
दुहरे अर्थों की प्रतीति हैं रही हैं तो आलोचक का दायित्व है कि उसे दोनों ही
संदर्भों में विश्लेषित करे। वस्तुतः रचना के वृहत्तर संदर्भों का व्याख्यान, उसके
बहुविध विस्तीर्ण अर्थ-तंतुओं का उद्घाटन ही सच्ची आलोचना है।
संदर्भ सूची :
संपर्क
: शोध छात्र राम चन्द्र पाण्डेय हिन्दी विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 08853466968
[1] दूधनाथ
सिंह-निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ.14
[2] वही
पृष्ठ -16
[3] वही,
पृष्ठ-16
[4] वही पृ- 2
[5] वही पृ-109
[6] वही पृ. 14
[7] वही पृ. 26
[8] वही पृ. 116
[9] वही पृ. 116-117
[10] वही पृ. 117
[11] वही पृ. 124
[12] वही पृ. 124
[13] वही पृ. 124
[14] वही पृ. 124
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