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एक आदिवासी भील सम्राट ने प्रारंभ किया था ‘विक्रम संवत’


-जितेन्द्र विसारिया

जैन साहित्य के अनुसार मौर्य व शुंग के बाद ईसा पूर्व की प्रथम सदी में उज्जैन पर गर्दभिल्ल (भील वंश) वंश ने मालवा पर राज किया। राजा गर्दभिल्ल अथवा गंधर्वसेन भील जनजाति से संबंधित थे,  आज भी ओडिशा के पूर्वी भाग के क्षेत्र को गर्दभिल्ल और भील प्रदेश कहा जाता है। मत्स्य पुराण के श्लोक के अनुसार :

        सन्तैवाध्रा  भविष्यति दशाभीरास्तथा नृपा:।
        सप्तव  गर्दभिल्लाश्च  शकाश्चाष्टादशैवतु।।

7 आंध्र, 10 आभीर, 7 गर्दभिल्ल और 18 शक राजा होने का उल्लेख है।1 पुराणों में आन्ध्रों के पतन के पश्चात् उदित अनेक वंश, यथा (सात श्री पर्वतीय आन्ध्र (52 वर्ष), दस आभीर (67 वर्ष) सप्त गर्दभिल्ल (72 वर्ष) अठारह शक (183 वर्ष) आठ यवन (87 वर्ष) इत्यादि सभी आन्ध्रों के सेवक कहे गये हैं। इन राजवंशों में सप्त गर्दभिल्लों का उल्लेख है। जैनाचार्य मेरुतुंग रचित थेरावलि में उल्लेख मिलता है कि गर्दभिल्ल वंश का राज्य उज्जयिनी में 153 वर्ष तक रहा।2


'कलकाचार्य कथा' नामक पाण्डुलिपि में वर्णित जैन भिक्षु कलकाचार्य और राजा शक (छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय, मुम्बई) (फोटो : विकिपीडिया से साभार )

गर्दभिल्ल ने 13 वर्ष तक शासन किया बाद में इसी गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को परास्त कर उज्जयिनी का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया एवं सुदर्श पुरुष की सिद्धि प्राप्त करके समस्त विश्व को ऋणमुक्त किया एवं विक्रम संवत् प्रचलित किया। विक्रमादित्य ने 60 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद विक्रमचरित्र उपनाम धर्मादित्य ने 40 वर्ष तक, भाइल्ल ने 11 वर्ष तक, नाइल्ल ने 14 वर्ष तक तथा नाहद्र ने 10 वर्ष तक शासन किया। इस प्रकार कुल मिला कर उसके चार वंशजों ने 75 वर्षों तक शासन किया अर्थात् गर्दभिल्ल वंश का उज्जयिनी पर 153 वर्ष तक शासन रहा। इसके बाद शकों ने पुनः उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया और शक संवत् प्रारम्भ किया।  जैन ग्रंथ 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' में शुंगों के पश्चात् लगभग सौ वर्ष तक 'गंधव्वाणं' को राज्य करते हुए बताया गया है।3


इसके बाद शकों ने पुनः उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया और शक संवत् प्रारम्भ किया। जैन ग्रंथ 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' में शुंगों के पश्चात् लगभग सौ वर्ष तक 'गंधव्वाणं' को राज्य करते हुए बताया गया है। जैन हरिवंशपुराण में सम्भवतः इसी गंधव्वाणं के स्थान पर 'गर्दभानां' पाठ है। इस ग्रंथ में 'रासभ शासकों' (रासभानां) के द्वारा अवन्ति पर सौ वर्ष तक शासन किये जाने का उल्लेख मिलता है। संभवतः ये सभी उल्लेख गर्दभिल्ल वंश को ही इंगित करते हैं।4

प्राचीन जैन ग्रंथों और पुराणों, अभिज्ञान शाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय आदि में भी विक्रमादित्य को गर्दभिल्लराज का ही पुत्र बताया गया है। अंग्रेज इतिहासकारों ने भी वीर विक्रमादित्य के भील होने की पूरी-पूरी संभावना जताई है-Even the famous King Vikramaditya, after whom the Malava era is named, may have been related to Bhil groups. He belonged to the Gardabhilla tribe. The 'bhilla' ending suggests some relationship with the Bhils. This indicates that some Bhil groups might have shifted from the hunting-gathering way of life to agriculture in the Early historical period5
 
कालिदास कृत अभिज्ञान शाकुन्तलम और जैन साहित्य के अनुसार राजा गर्दभिल्ल को जैन मुनि कलकाचर्या (वीर-निर्वाण-संवत् 453 के आसपास) की बहन सरस्वती से प्रेम था, जैन मुनि के खिलाफ जाकर उन्होंने सरस्वती का अपहरण कर लिया, इस अपमान से आहत उस साधु ने स्किथी/स्किथियन राजा से सहयोग माँगा, लेकिन राजा गर्दभिल्ल से युद्ध करने की हिम्मत उस राजा में नहीं थी, तब साधु ने देशप्रेम की सीमा उलाँघते हुए कालक, पश्चिम में सिंध पार कर शकों के पास 'सगकुल' पहुँच गया।6

जहाँ शक 'साहानुसाहि' के 96 सामंत (साहि) निवास करते थे। कालक ने वहाँ एक साहि से मैत्री कर ली। किसी कारणवश 'साहानुसाहि' साहियों से अप्रसन्न हो गया था। 96 शक राजाओं का अधिपति सात लाख घुड़सवार सैनिकों वाला शक राजा, उन सामंतों में से एक सामंत से संत्रस्त होकर उसके सिर को लाने का आदेश दे चुका था, सिर न लाने की स्थिति में उसके कुटुम्बियों को जागीर के उपभोग से वंचित रखने का निर्देश भी दे चुका था।7
 
कालक ने उन्हीं असंतुष्टों को एकत्रित कर मालवा में गर्धभिल्ल पर आक्रमण किया था। सौराष्ट्र से आकर वे 96 भागों में बँट गए थे। वहाँ बसकर पांचाल और लाट को जीतने के उपरांत उन्होंने, उज्जैन में गर्धभिल्ल की घेराबंदी की थी और उसे निष्कासित कर दिया था।8
 
इतिहासविद और साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने उपन्यास चारुचंद्र में, इस घटना का ज़िक्र कुछ इस प्रकार किया है-“मालवा के इर्द-गिर्द प्रबल पराक्रमी 'भील' जातियों का निवास है। शक को देश से निकाल बाहर करने में भीलों ने विक्रमादित्य की बड़ी सहायता की थी। सत्य तो यह है कि यदि भीलों ने सहायता न दी होती तो यह कठिन कार्य सम्पन्न ही नहीं हो पाता। संस्कृत में 'भील' शब्द ‘भिल्ल' के रुप में लिखा जाता है। 'गर्दभिल्ल' एक ओर गर्दभ से सम्बद्ध है, तो दूसरी ओर 'भिल्ल' से भी सम्बद्ध है। ‘गर्दभिल्ल' भी तो एक 'भिल्ल' ही है। कमकरानी हुई तो क्या हुआ, एक प्रकार की 'रानी' तो वह है ही!

महाराजा विक्रमादित्य : गूगल से साभार

विक्रमादित्य के पितामह गर्दभिल्ल राजा का नाम जब था। इसके पुत्र का नाम था पुरु गर्द भिल्ल। भीलों के राजा की कन्या अडोलिया से उसका विवाह हुआ था। 'अडोलिया' रूप और शील में तो अनुपम थी ही, रणक्षेत्र में भी अडोल ही रहती थी। उसकी वीरता को देखकर ही भिल्लराज ने उसका नाम 'अडोलिया’ रखा था। अडोलिया के कोई सन्तान नहीं हुई। क्षत्रिय राजाओं में बहु-विवाह की प्रथा तो थी। किन्तु पुरु गर्दभिल्ल ऐसा कुछ करना नहीं चाहते थे। परन्तु विधि-विधान कुछ और ही था।
 
एक बार जब वे शिकार खेलने गये थे, उस समय जैन मुनियों के आश्रम में एक मुग्धा तपस्वी कन्या 'सरस्वती' से उनका साक्षात्कार हुथा, जो आगे चलकर गांधर्व विवाह में पर्यवसित हुआ। सरस्वती के भाई कालक ने इस बात को अनुचित समझा, परन्तु और कोई उपाय न देखकर राजा के यहाँ पहुँचा देने का संकल्प किया।
 
राजा ने आश्रम के गुप्त विवाह को अस्वीकार कर दिया। इससे कालकाचार्य को बड़ा कोप हुआ। वे शक देश पारस गये और शकों को बुला लाये। इन शकों ने गर्दभिल्लराज को पराजित किया और उज्जैनी पर अधिकार कर लिया। कालकाचार्य ने क्रोधावेश में देश ही बरबाद कर डाला। सब मिलाकर 'गर्दभिल्ल' राजा को अपने पाप का बड़ा भारी प्रायश्चित करना पड़ा; राज्य विदेशियों के हाथ में चला गया और जनता में जो कुल- गौरव का यश था, उससे भी हाथ धोना पड़ा।
 
परन्तु सरस्वती पुत्र वीर विक्रमादित्य ने अपनी सौतेली माँ अडोलिया के सगे-सम्बन्धी परम पराक्रमी भिल्लगण की सहायता से अपने लुप्त कुल- गौरव का उद्धार किया। उसने शकों को मार भगाया। कालिदास ने 'शकुन्तला' नाटक में कथा-योजना कुछ इस प्रकार की है कि लोक में प्रचलित गर्दभिल्ल राजा का अपवाद दूर हो और मुग्धा तपस्वी कन्या के साथ राजपरिणय की और बाद में उसके प्रत्याख्यान की कथा के प्रति लोक-मानस में सहानुभूति का भाव पैदा हो। नाटक के अन्त में तो स्पष्ट रूप से 'सरस्वती' की महिमा का स्मरण कराया है। भरतवाक्य में उन्होंने कहलवाया है :

        "प्रवर्ततां   प्रकृतिहिताय पार्थिवः।
          सरस्वती श्रुति महती महीयताम्।।
          ममापि  च  क्षपयतु  नीललोहितः।
          पुनभवं   परिवत   शक्तिरात्मभूः।।"9

अब यह जैनियों का गर्दभिल्ल के चरित्र हनन से सम्बंधित लोकोपवाद था अथवा सत्य घटनाक्रम कि जैन ग्रन्थों में पुरु गर्दभिल्ल द्वारा, अडोलिया और सरस्वती दोनों के साथ गान्धर्व विवाह का उल्लेख मिलता है। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘श्वेतांबर और दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य पुस्तक में’ में साध्वी श्री संघमित्रा लिखती हैं-“वृहत्कल्प भाष्य-चूर्णि में गर्दभ को अवंती राजा 'अनिल-सुतयव' का पुत्र बताया है। गर्दभ का मन अपनी ही बहन अडोलिया के रूप सौंदर्य पर मोहित हो गया था। इस कार्य में दीर्घपृष्ठ नामक मंत्री का पूर्ण सहयोग था। वह गर्दभ की इच्छा पूर्ण करने के लिए अडोलिया को सातवें भूमिगृह (अंतर-घर) में रखा करता था। चूर्णि साहित्य में उल्लिखित गर्दभ तथा सरस्वती के अपहरणकर्ता गर्दभिल्ल दोनों एक ही प्रतीत होते हैं। दशाश्रुत स्कंध चूर्णि के उल्लेखानुसार गर्दभिल्लोच्छेद की यह घटना वी. नि. 453 (वि. पू. 17) में एवं 'विचार श्रेणी' के अनुसार वी. नि. 466 (वि. पू. 4) में घटित हुई। इसी वर्ष मालव प्रदेश पर शकों का राज्य स्थापित हुआ।10
 
'प्रभावकचरित' नामक एक जैन ग्रंथ, जो तेरहवीं शताब्दी में लिखा गया था। उसके अनुसार मालव विजय पर शकों के नायक उषवदात ने नासिक की गुफा में अपनी विजय को चिरस्मरणीय बनाने के लिए एक शिलालेख खुदवाया, जो इस प्रकार है :-
 
तोस्मि वर्षा रंतु मालयेहि हिरुधमउत्तमभद्रं मोचयितुं तेच मालया प्रणदेनेव अपयाता उत्तमभद्रकानं क्षत्रियणं सर्वे परिग्रह कृता ।”
 
आरंभिक शकों का जैसा खिचड़ी मेल धर्म था वैसी ही भाषा भी एक ही लेख में संस्कृत और प्राकृत की खिचड़ी। उसका भावार्थ है–'मैं वर्षा ऋतु की-समाप्ति पर उत्तमभद्रों का उद्धार करने के लिए गया, जिनको मालवों ने (किसी गढ़ में) घेर रखा था। मालव मेरी हुँकार मात्र से भाग गए!' नासिक की ही एक गुफा में इसी उषवदात का दूसरा शिलालेख है, जो उसने बाल के आवेदन करने के संबंध में खुदवाया था- “सिद्धं बसे 42 वैशाख मासे राजेनो क्षहरातस कर्तव्यत्रपस नहपानस जामातारा दीनीक पुत्रेन उषवदातेन संघस चातुदिसस इमं लेणं ।” (क्षहरात क्षत्रप नहपान के दामाद, दीनिक के पुत्र उषवदात ने संघ को यह गुफ़ा लगाई)।'
 
तेरह-चौदह वर्ष तक उज्जैन पर शासन करते हुए शकों ने जो भयंकर अत्याचार इन जनपदों में किए, उससे यह धरा बिलबिला उठी। चतुरांश जनता को दास बनाकर अपने देश में भेज दिया। किसानों की भूमि छीनी, शिल्पियों का विनाश किया, कलाओं को भ्रष्ट किया तथा नाना प्रकार की अवर्णनीय क्रूरताएँ कीं रक्त की तो नदियाँ ही बहा दीं।”11
 
शकों से पराजित होकर महाराज गर्दभिल्ल सेना, साध्वी सरस्वती और अपनी रानी सोम्यदर्शना के साथ, विन्धयाचल के वनों में शरणागत हो गये थे। साध्वी सरस्वती ने महारानी सोम्या से बहुत दुलार पाया तथा साध्वी ने भी गंधर्व सेन को अपना पति स्वीकार कर लिया। वनों में निवास करते हुए, सरस्वती ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम भर्तृहरि रक्खा गया। उसके तीन वर्ष पश्चात महारानी सोम्या ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम विक्रमादित्य रक्खा गया।12
 
यहाँ पर आकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का मत उलझन पैदा करता है। यह इतिहास प्रसिद्ध है कि भृर्तहरि विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भाई थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी विक्रमादित्य को सरस्वती पुत्र मानते हैं। वहीं पौराणिक साहित्यकार उन्हें महारानी सौम्यदर्शना का पुत्र। भील वृतांत उन्हें भील राजकुमारी अडोलिया का पुत्र कहते हैं। ऐसे में संभव यही है कि विक्रमादित्य भील रानी अडोलिया के ही पुत्र रहे हों? विक्रमादित्य को क्षत्रियत्व का चोला ओढ़ाने के लिए, गर्दभिल्ल को गन्धर्व सेन और भील वीरांगना रानी अडोलिया को निःसन्तान बताकर उनके स्थान पर सौम्यदर्शना जैसा संस्कृतनिष्ठ नाम दे दिया है। जबकि बाद के इतिहास में विक्रमादित्य अपने मातृकुल भीलों की सहायता से ‘शक विनाश’ करते वर्णित हैं। इस बात की पुष्टि तो हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भी ‘चारुचंद्र’ कर ही रहे हैं।

गधैया सिक्के
 
'बृहत्कल्प भाष्य' नामक जैन ग्रन्थ की निम्नलिखित गाथाओं में भी गर्दभिल्ल के साथ रानी अडोलिया का ही उल्लेख मिलता है-“मा एवमसग्गाहं गिहसु सुयं तइय चक्खु। किं वा तुमे निलसुतो न स्सुयपुब्वो अवो राम्रा।।1154।। जव राम्रा दीहपट्ठो सचिवो पुत्तो गद्दभो तस्स। धूता डोलिया गद्दभेण छूढा य अगडम्मि।।11551 पब्वयशां च नरिदे पुणरागमणं डोलि खेलणं चेडा। जव पत्थणं खररसा उवस्सवो फरुस सालाए ।।1556113
 
विंध्याचल के वनों में निवास करते हुए एक दिन गर्दभिल्ल आखेट को गये, जहाँ वे एक सिंह का शिकार हो गये। वहीं साध्वी सरस्वती भी अपने भाई जैन मुनि कलिकाचार्य के राष्ट्र द्रोह से क्षुब्ध थीं। महाराज की मृत्यु के पश्चात उनहोने भी अपने पुत्र भृतर्हरी को, महारानी सौम्या दर्शन अथवा अडोलिया को सोंपकर अन्न-जल त्याग दिया और कुछ दिन बाद अपने प्राण छोड़ दिए।14 कुछ जैन परम्पराओं के अनुसार सरस्वती, पुनः आर्यिका बनकर अपने भाई कालक के साथ, प्रतिष्ठान के सातवाहन राजा के राज्य में चले जाने का भी उल्लेख मिलता है।15
 
तत्पश्चात पश्चात महारानी सोम्या दोनों पुत्रों को लेकर कृष्ण की नगरी वृंदावन चली गई, तथा वहाँ पर आज्ञातवास काटने लगीं। भर्तृहरि बचपन से ही स्वभाव से शांत और चिंतनशील थे। वहीं विक्रमादित्य अत्यंत ही चंचल व साहसी थे। दोनों भाइयों में एक-दूसरे के लिए अगाध प्रेम था। पिता की मृत्यु के बाद दोनों पुत्रों का लालन-पालन माता सौम्यदर्शना के सान्निध्य में भगवान् कृष्ण की लीला भूमि वृंदावन के अज्ञातवास में हुआ। यहाँ इनके संरक्षण एवं रहन-सहन का दायित्व इनके मामा (माता सौम्यदर्शना के भाई) व्याघ्रसेन ने उठाया, जो कि साबरमती नदी के तट पर सौराष्ट्र के शाही शासन के अधीन एक छोटे से क्षेत्र के सामंत थे। इस अज्ञातवास के दौरान महारानी सौम्यदर्शना ने स्वयं का नाम बदलकर सोमवती और दोनों पुत्रों का नाम क्रमशः शील और विषमशील रखा।16
 
वहीं जैन ग्रन्थ दशाश्रुत स्कंध चूर्णि के उल्लेखानुसार भृगुकच्छ लाटदेश की राजधानी थी, वहाँ के शक्तिशाली शासक बलमित्र और भानुमित्र थे। वे आचार्य  कालक के भानेज थे। आचार्य  कालक को विजय बनाने में उनका पूरा सहयोग था। अवंती पर चार वर्षों तक शकों ने शासन किया। भारत भूमि को विदेशी सत्ता से शासित देखकर भरौंच शासक बलमित्र एवं भानुमित्र का खून उबल गया। उन्होंने मालव पर आक्रमण किया एवं शक सामंतों को बुरी तरह से अभिभूत कर वहाँ का राज्याधिकार अपने हाथ में ले लिया। उज्जयिनी के प्रांगण में एक बार पुनः स्वतंत्रता का सूर्य उदय हुआ। बलमित्र ने वहाँ का शासन संभाला और लघु भ्राता भानुमित्र को युवराज बनाया।17
 
इन दोनों स्रोतों से इतना तय है कि संवत्सर को प्रचलित करने वाले विक्रमादित्य और भर्तृहरि किसी एक मातृपक्ष से जैन थे। इसमें श्राविका1 सरस्वती ही जैन थीं। इसलिए जैन ग्रन्थ भर्तृहरि और विक्रमादित्य को प्रकारांतर से कालक का भानेज मानते हैं, एक तरह से यह सत्य भी है। पितृपक्ष को ग़ैर आदिवासी रंग में रंगने के लिए पुराणकारों ने, भीलराज गर्दभिल्ल को अन्य नाम यथा-‘चंद्रसेन, गंधर्वसेन इत्यादि देकर, ब्राह्मण, क्षत्रिय तक सिद्ध करने की जी-तोड़ कोशिश की ही है।
 
इस विषय पर एक विवाद हम वृंदावनलाल वर्मा और हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के यहाँ देखते हैं। जहाँ वर्मा जी ने शक विजय के समय विक्रमादित्य की उम्र 17-18 साल रही होगी, इसलिए उन्होंने एक नए पात्र ‘इन्द्रसेन’ को गढ़ लिया, जो अन्य जनपदों की सहायता से उज्जयिनी को शकों से मुक्त करवाता है। इस पूरे अभियान में सहयोगी के रूप में न अडोलिया हैं, न उनका भील कबीला।

कैलासचन्द्र भाटिया के अनुसार- यह सिक्के गर्दभिल्ल ने जारी किए थे.

वर्मा जी जिस प्रभावक चरित्र से कथा उठाते हैं, उसका भी पूरा निर्वहन नहीं करते। वे विक्रम को सरस्वती पुत्र नहीं बताते। कालक को भी देशद्रोही साबित करते हैं। इस बात को लेकर गुजरात के तत्कालीन श्वेतांबर सम्प्रदाय के जैन मुनियों ने ‘हंस मयूर’ की जमकर आलोचना की थी और विरोध में एक पुस्तिका भी छपवाकर वितरित की थी। उसके ज़वाब में वर्मा जी ने भी कुछ लचर जबावों के साथ एक पुस्तिका प्रकाशित की थी।18
 
दरसल अपने राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के नवोत्थान के प्रभाव में आकर उन्होंने विक्रमादित्य के भील पक्ष की ही अवहेलना नहीं की, अपितु गर्दभिल्ल पुत्र विक्रमादित्य की ही उपेक्षा कर दी है। एक अनाम युवक इन्द्रसेन को गढ़ा है, जिसके सम्बन्ध में उनके दुराग्रह पूर्ण विचार उपरोक्त नाटक में ही झलक जाते हैं।
 
नाटक की भूमिका में वे उसे एक अनाम कुलगोत्र का व्यक्ति बताते हैं-“किसी महापुरुष के नेतृत्व मे संगठिन होकर जब आर्य जनपदों ने इन शकों का विध्वंस करके संस्कृति की पुनः स्थापना की इसी पुनः स्थापना का संदर्भ उदयपुर वाले शिला लेख मे है-“'मालवाना - गण स्थित्या…” तब मानो फिर से कृतयुग (सतयुग) आ गया! बिलकुल संभव है उस महापुरुष का नाम या उपनाम ‘कृत’ रहा हो जिसके नाम से विक्रम सम्वत् का आरम्भ हुआ। उस महापुरुष ने, न तो, अपना कोई राज्य स्थापित किया और न कोई वंश। अपने अनेक महान पूर्वजों की भाँति नाम की तनिक भी चिन्ता न करते हुये, वह भारतीय गौरव गगन मे समा गया। यही कृत 'हंस-मयूर' नाटक का इन्द्रसेन है। परन्तु आर्य-विजय की घटना का उल्लेख नासिक की ही गुफा में, मानो शकों के उस दम्भ का दमन करने के लिये जो उनके शिलालेख मे उत्कीर्ण है, शातकर्णि ने खुदवाया:-

          “सुविभत    तिवगदेस     कालस।
            शक  यवन   पल्हव  निसूदनस॥
            धमोपजितकर विनियोग करस।
            कितापरोधेपि सतुजने अपाणहिसा रुचिस॥
            खखरात  वंश  निरवसेस करस।”

भावार्थ- 'शकों, यवनों, पल्हवों और क्षहरातोंको ध्वस्त करके निर्वश कर दिया, परन्तु धर्म की सर्वांगीण स्थापना की-और बड़े बड़े अपराधी शत्रु जनों तक को अभय और रक्षा दी! उनके साथ क्रूर वर्ताव नहीं किया, प्रत्युत उनको हिन्दू समाज और संस्कृति में समाहित कर लिया।19
 
वर्मा जी का हिन्दू मानस यहीं आकर चालाकी खेल जाता है। भूमिका में वे जहाँ उसे अनाम कहते हैं, वहीं नाटक की कथावस्तु में वह प्राचीन आर्य और वैष्णव है :

“कालकाचार्य- एक इन्द्रसेन नलपुर जनपद में हैं ।
कुजुल-यह कौन है?
कालकाचार्य- वैदिक आर्य है।
नहपान- शैव
कालकाचार्य- शैव नहीं है, वैष्णव है। एक वर्ग उठ खड़ा हुश्रा है जो अपने को वैष्णव कहता है । वैष्णवों की कुछ चर्चा अभी हुई थी।”20

नाटक में शक आकृमण के समय गर्दभिल्ल द्वारा अपनी बड़ी रानी और पुत्र के समीप के गांव में भेजने का उल्लेख भर करते हैं। इस उल्लेख में न तो वे गर्दभिल्ल की बड़ी रानी का नाम उल्लेखित करते हैं, न उस गाँव और उस गाँव के शक्तिशाली निवासियों का, जो एक राजरानी की रक्षा में अकेले सक्षम हैं।
 
निश्चित ही मालवा का गाँव कोई भील कबीला रहा होगा और वह रानी ‘अडोलिया’ भील। भील जनजाति अपने संरक्षक स्वभाव के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने ऐसे ही निर्वासित धर्म भानेज (भांजे) महाराणा का संरक्षण ही नहीं किया, बल्कि अपने युद्ध कौशल से उन्हें विजयें भी दिलवाई थीं।
 
संभव यही जान पड़ता है कि विक्रम अडोलिया के पुत्र रहे हों और भर्तृहरि सरस्वती पुत्र। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यह कि अडोलिया का स्वभाव साहसी और अडिग बताया गया है, यह गुण विक्रम में भी दिखाई देते हैं, वहीं स्वभावतः अहिंसक और सांसारिक बंधनों में न रमने का गुण भर्तृहरि को उनकी जैन माँ श्राविका सरस्वती से मिला हो? इस दृष्टि का समर्थन मध्यप्रदेश के दतिया जिला स्थित प्रसिद्धि जैन, तीर्थ सोनागिरि भी है, जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि यहाँ, विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भ्राता भर्तृहरि ने तपस्या की थी।
 
इस संबंध में सिंहासन बत्तीसी के संपादक लेखक गंगा प्रसाद शर्मा का मत भी कम महत्वपूर्ण नहीं है- “राजा विक्रम के पिता का नाम गंधर्व सेन (गर्दभिल्ल) था। उन्होंने वहाँ के एक जैन भिक्षु कालकाचार्य की विधवा बहन सरस्वती का अपहरण कर उसे अपने घर में रख लिया था। इस पर क्रुद्ध होकर वह जैन भिक्षु सिंध प्रान्त से शकों को बुला लाया। शकों ने गर्दभिल्ल को पराजित कर उसके राज्य पर कब्जा कर लिया। अवंती (उज्जयनी) पर उनका शासन चार वर्ष तक बना रहा, तत्पश्चात गर्दभिल्ल के छोटे पुत्र विक्रम ने गर्दभिल्ल के पराजित होने की घटना के 17 वर्ष बाद, अपने मातृकुल के भीलों की सहायता से शकों को पराजित कर, पुनः अपना राज्य प्राप्त कर लिया।
 
यह युद्ध संभवतः जैथल (जयस्थल) के पास हुआ था। इस विजय के फलस्वरूप एक नए संवत का प्रवर्तन हुआ। इस युद्ध के पश्चात विक्रम के बड़े भाई भर्तृहरि ने अवंती पर शासन किया। भर्तृहरि को उनकी पत्नी पिंगला के चरित्र पर संदेह होने से वे राजपाट छोड़कर नाथपंथी साधु हो गए। उन्होंने (भर्तृहरि) भारत के अनेक स्थानों पर जाकर तपस्या की थी। उनमें से कुछ स्थानों के नाम इस प्रकार हैं-
1. उज्जैन - भर्तृहरि गुफा (मध्य प्रदेश)
2. राजोरगढ़ - अलवर के समीप राजस्थान में। यहाँ अनेक वर्षों से एक अखंड दीपक (भर्तृहरि की जोत) जल रही है।
3. चुनार - जिला मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) यहाँ राजा विक्रम का बनवाया हुआ भर्तृहरि मंदिर है।21
 
भारतीय अनुश्रुतियों एवं साहित्यिक कृतियों में उल्लिखित होने पर भी फर्ग्युसन, कीलहार्न, कनिंघम, फ्लीट, मार्शल, जायस वाल और भण्डारकर जैसे विद्वानों ने इस विषय में अनेक परस्पर विरोधी मतों की स्थापना की है। राजबली पाण्डेय ने विक्रमादित्य पर लिखी गई अपनी महत्वपूर्ण कृति 'विक्रमादित्य ऑफउज्जयिनी' में विभिन्न विद्वानों के मतों का खण्डन करते हुए विक्रमादित्य को ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध किया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि विक्रमादित्य मालवों की गर्दभिल्ल नामक शाखा में जन्मा था।
 
विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता स्थापित करने के लिए कुछ शर्तों का पूरा करना आवश्यक है जिनमें
(1) मालव प्रदेश और उज्जयिनी का राजधानी होना
(2) शकारि होना
(3) 57 ई. पूर्व में संवत् का प्रवर्तक होना
(4) कालिदास का आश्रयदाता होना।
 इन सभी शर्तों की पूर्ति में विक्रमादित्य को एक स्वर में डॉ. काले, शारदा रंजनराय, के चट्टोपाध्याय, राजबली पाण्डेय, नलिन विलोचन शर्मा, उज्जयिनी के आचार्य सूर्य नारायण व्यास, पं. केशव भाई ध्रुव जैसे अनेक भारतीय मनीषियों एवं सर विलियम जोन्स, पीटरसन, एच. एच. विल्सन जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार किया है।
 
विक्रमादित्य का सबसे प्रमुख कार्य उज्जयिनी से शकों का निष्कासन था। अपनी इस सफलता को चिरस्थायी बताने के लिए उसने 58-57 ई. पूर्व में एक नवीन संवत् की स्थापना की जो कृत, मालव एवं विक्रम संवत् नाम से अलग-अलग कालों में पुकारा जाता रहा और आज भी यह परम्परा जीवित है।22
 
जैन ग्रन्थ मेरुतुंगाचार्य रचित पट्टावली में लिखा है कि चौबीसवें तीर्थंकर भगवान वर्धमान महावीर के निर्वाण के 470 वर्ष पश्चात अर्थात् 527-470= 57 . पूर्व में विक्रम संवत का प्रवर्तन हुआ। विक्रम संवत के प्रवर्तन का कारण राजा विक्रम द्वारा मालवा में शकों पर विजय तथा उसकी खुशी में दान देना है। प्रारम्भ में इसका नामकृत संवत’, बाद मेंमालव संवत’ तथा अंत मेंविक्रम संवत’ कहलाया, जो आज तक प्रचलित है।
 
विक्रमादित्य द्वारा शकों का उन्मूलन एवं ‘विक्रम संवत्’ की स्थापना की पुष्टि, प्रबन्धकोष एवं धनेश्वरसूरि रचित 'शत्रुंजय महात्म्य' से भी होती है। अलबेरुनी ने अपने ग्रंथ में भी इस बात का उल्लेख किया है। विक्रमादित्य के अस्तित्व को सिद्ध करने का सबसे सबल आधार उसके द्वारा चलाया गया विक्रम संवत् है, जिससे प्रथम शती ई. पूर्व में विक्रमादित्य के उज्जैन के राजा होने की बात सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त 'विक्रमचरित्र', 'सिंहासनबत्तीसी', 'कथा सरित्सागर', 'गाथा सप्तशती, मेरुतुंग की 'थेरावलि' आदि अनेक ऐसे ग्रंथ हैं, जो उक्त तथ्य को प्रमाणित करते हैं।23
 
अब प्रश्न उठता है कि यदि विक्रमादित्य की शक विजय की स्मृति में इस संवत् का प्रचलन किया गया तो इसका प्राचीनतम नाम विक्रम संवत् क्यों नहीं पड़ा। इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना सम्भव नहीं, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि गणतंत्रात्मक शासन प्रणाली के प्रति अपने उत्कट प्रेम के कारण मालवों द्वारा राजा के महत्व को जाति के महत्व से कम आँकने के कारण उसे कृत संवत (कृत अर्थात् वध या शत्रु का नाश) या मालव संवत के नाम से भी पुकारा गया।
 
राजनीति में शत्रुवध के लिए 'कृत्या' शब्द का प्रयोग प्राचीन धर्मग्रन्थों में हुआ है। उसी का रूप 'कृत्य' या कृत है। इसका सम्बन्ध सतयुग या कृतयुग से स्थापित करना उचित नहीं, क्योंकि कृत् शब्द युगवाचक है जबकि 'कृत' नहीं इसी तरह संवत् का नाम 'कृतसंवत्' है, कृत्संवत नहीं। कालान्तर में गणतन्त्र के प्रति जनमानस की आस्था हट गई तब इस संवत् के प्राचीन नामों का परित्याग कालांतर में गणतन्त्र के प्रति जनमानस की आस्था हट गई तब इस संवत् के प्राचीन नामों का परित्याग कर लोगों ने इसके जन्मदाता के नाम पर इसे विक्रम संवत् कहना प्रारम्भ कर दिया और आज भी यह इसी नाम से जाना जाता है।24

सन्दर्भ :

  1. भील वृतांतपृ.1
  2. उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंश : https://www.mpgkpdf.com
  3. वही,
  4. वही,
  5. बसंत, पीके (2012). The city and the country in early India : a study of Malwa. नई दिल्ली: प्रिमुस बुक्स. OCLC 796082082आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-80607-15-3
  6. गंगा प्रसाद शर्मा-सिंहासन बत्तीसीपृ.5
  7. उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंशवही
  8. दिशा अविनाश शर्मा-ग्राम विहार : राजा विक्रमादित्य के पिता गन्धर्वसेन की तालोद का सूरजकुण्ड विक्रमादित्य का षष्ठी पूजन स्थलhttps://theroaddiaries.in  › 2019/11/01
  9. द्विवेदी हजारीप्रसाद आचार्य हजारी प्रसाद ग्रंन्थावली-1चारुचंद्रपृ. 339-40
  10. श्री संघमित्रा साध्वी-जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्तhttps://www.herenow4u.net
  11. वर्मा वृंदावनलाल-हंस मयूर (नाटक), प्रभात प्रकाशनदिल्लीपृ.14
  12. शिंदे प्रवेश : उज्जयिनी (उज्जैन) नरेश चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य, https://sahityapedia.com   
  13. द्विवेदी हजारीप्रसाद-आचार्य हजारी प्रसाद ग्रंन्थावली-1चारुचंद्र,  पृ. 557
  14. शिंदे प्रवेश-उज्जयिनी (उज्जैन) नरेश चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्यवहीं
  15. उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंशवही
  16. शिंदे प्रवेश-उज्जयिनी (उज्जैन) नरेश चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्यवही
  17. श्री संघमित्रा साध्वी-जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा  के आचार्यों का जीवन वृत्तवही
  18. वर्मा वृंदावनलाल-हंस मयूर (नाटक), मयूर प्रकाशनझाँसी, प्रथम संस्करण : 1952,पृ.1-32
  19. वर्मा वृंदावनलाल-हंस मयूर (नाटक), प्रभात प्रकाशनदिल्लीपृ. 13
  20. वही, पृ.186
  21. शर्मा गंगा प्रसाद- सिंहासन बत्तीसी (प्रस्तावना),  सुयश प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2010, पृ.5
  22. उज्जयिनी का गर्दभिल्ल वंश : https://www.mpgkpdf.com  
  23. शर्मा गंगा प्रसाद- सिंहासन बत्तीसी (प्रस्तावना),  वही, पृ.1
  24. वही,

     


संपर्क :


विभाग अध्यक्ष ‘हिंदी’
महाराजा जीवाजीराव सिंधिया शासकीय
महाविद्यालय, भिण्ड (म.प्र.)
jitendra.visariya@gmail.com
मोबाइल : 9893375309 



*आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक/शोधार्थी के निजी विचार हैं 

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