“सियाह रात नहीं लेती नाम ढ़लने का यही वो वक्त है सूरज तेरे निकलने का कहीं न सबको संमदर बहाकर ले जाए ये खेल खत्म करो कश्तियाँ बदलने का” [1] आज के समय एवं समाज का मूल्यांकन करे तो हम देखते हैं कि यह फर्क करना मुश्किल है कि भूमण्डलीकरण ने इस पर अपना प्रभाव डाला या अपना प्रकोप फैलाया। वास्तव में इसकी जगमगाहट आँखों में चुभती सी मालूम होती है। एक तरफ समाज क्रांन्तिकारी परिवर्तनों का गवाह बना रहा , वहीं एक समाज ऐसा भी रहा जो गौरवहीन , गतिहीन और निष्क्रिय बना रहा। इस समाज की पहचान कभी सम्मानजनक नहीं रही बल्कि उसे (बर्बर) , हिंसक , असभ्य , गंवारू पंरपरा का ही माना गया तथा इसे मुख्यधारा से अलग ही रखा गया ना ही सभ्य समाज ने इसे अपना हिस्सा माना और न ही इस समाज ने कभी स्वयं सभ्य समाज में शामिल होने की चेष्टा ही की। इस आदिवासी समाज का आहत इतिहास आज भी हमारे सामने उपलब्ध है और अपने साथ हुए इस सौतेले व्यवहार पर सवाल उठाता है- “ रोशनी की हमारी खोज खत्म हो चुकी है। अब हम अंधेरा ही ओढ़ते बिछाते हैं। हमारे हिस्से अंधेरा ही आया है और अब उसी में अपना काम निकालना सीख गये...
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