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Showing posts from February, 2024

सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल

समसामायिक प्रसंगों पर पाठकों को बैचेनी और तिलमिलाहट के साथ कुछ सोचने को मजबूर करने वाले व्यंग्य और कटाक्ष की पैनी नजर रखने वाले धर्मपाल महेंद्र जैन का नाम व्यंग्य-विधा में चिर-परिचित है। इस व्यंग्य-संग्रह में 44 आलेख हैं, जिसकी भूमिका में डॉ. रमेश तिवारी जी कहते हैं कि “विचार से प्रगतिशील और स्वभाव से मृदुभाषी धर्मपाल जी इस संग्रह की रचनाओं में विसंगतियों की पहचान और प्रहार करने की भरपूर कोशिश करते दिखाई देते हैं और अपवादस्वरूप कुछ अवसरों को छोड़ दिया जाए तो प्राय: उनकी दृष्टि और विषय चयन ठीक हैं। इस संग्रह की अधिकांश रचनाओं में हमें वर्तमान समाज और उसकी विसंगतियां झाँकती हुई दिखाई देंगी।” व्यंग्य एक ऐसी विधा है, जो छोटी-छोटी घटनाओं पर कटाक्ष कर पाठक के मन के किसी कोने को प्रभावित करती है। घटनाएं भले ही छोटी हो, मगर उनके भीतर एक खास उद्देश्य छुपा हुआ होता है। समाज के किसी भी परिप्रेक्ष्य में घटनाएं चाहें, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक सामाजिक या व्यावहारिक पहलुओं को आधार व्यंग्यात्मक रूप से बनाकर लिखी गई हों, अवश्य पढ़ते समय पाठकों के मन में गुदगुदी पैदा होती है, उसका कारण होता है उन शब्दो

मानवीय संवेदनाओं के विविध रंगों से रूबरू करवाती लघुकथाएँ

सतीश राठी ने साहित्य के क्षेत्र में लगातार काम करते हुए विशेष रूप से लघुकथा को अच्छी तरह से साधा है, क्षितिज साहित्यिक संस्था के माध्यम से राठी जी ने कई नवांकुरों को वरिष्ठ लघुकथाकारों का मार्गदर्शन दिलवाया, जिससे इंदौर से एक बड़ी संख्या में रचनाकार लघुकथा के क्षेत्र में देश में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। राठी जी ने लघुकथा विधा को काफी समृद्ध किया है। वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राठी हिंदी भाषा के एक संवेदनशील लेखक हैं। सतीश राठी के लेखन का सफ़र लंबा है। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। राठी जी की रचनाएँ शिल्प के स्तर पर देश में कालजयी लघुकथाओं के रूप में चर्चित हो चुकी है। सतीश राठी के लेखन में “शब्द साक्षी हैं”, “जिस्मों का तिलिस्म” (लघुकथा संग्रह) “पिघलती आँखों का सच” (कविता संग्रह), “कोहरे में गाँव” (ग़ज़ल संग्रह) चार साझा संकलन में लघु कथाओं का प्रकाशन शामिल हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने कई लघुकथा संग्रहों का संपादन किया है और साथ ही कई लघुकथा संकलनों की भूमिका भी लिखी है। "जिस्मों का तिलिस्म" सतीश राठी का दूसरा लघुकथा संग्रह है। इ

कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे, यहाँ तो हर चीज बिकती है!*

ए क समय था जब कबीर जैसा व्यक्ति बाजार में खड़ा होकर सबकी खैर मांग सकता था। ' कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर। ' सबकी खैर चाहना मानवीय करुणा का एक बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है। वहाँ उसे ना किसी से दोस्ती है और ना ही किसी से बैर है। ' ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर। ' मतलब यह कि तब बाजार की भावना भी सबकी भलाई में निहित थी। ‘सर्व जन हिताय , सर्वजन सुखाय’। लेकिन आज का बाजार केवल मुनाफे तक ही सीमित है। इसी मुनाफे की चाहत लिए आज का बाजार तरह-तरह के तमाशे रचने में मशगूल है। आप भी जितना चाहिए उतना तमाशा रच सकते हैं। सबके लिए खुला आसमां है। विज्ञापन इस बाजार का ब्रह्मास्त्र है। तकनीकी , इंटरनेट और सोशल मीडिया के दौर में विज्ञापन ने अपना हाथ-पाँव इतना पसारा है कि वह आपके बेडरूम तक पहुँच चुका है। बस आपको मोबाइल स्क्रीन पर उंगली फेरने भर की देर है वह अल्लाउद्दीन के चिराग के जिन्न की तरह प्रकट होता है- ' कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे ?' मसलन, क्रय-विक्रय का आलम यहाँ तक है कि आज किराये की कोख तक उपलब्ध हैं। रुकिए , ठहरिये और सोचिये कि यह सब कितना चमत्कारिक है! है न ? एक साधा

संभावनाओं का वितान : सावन सुआ उपास

शैलेन्द्र कुमार शुक्ल समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। 'सावन सुआ उपास' उनका ताजा और पहला ही काव्य संग्रह है। मैं समझता हूँ कि इस संग्रह के गंभीर पाठक उनके दूसरे काव्य संग्रह के आने की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। दरअसल 'सावन सुआ उपास' संग्रह कवि शैलेंद्र कुमार शुक्ल की काव्यप्रतिभा का प्रस्थान बिंदु है। इसमें उनके कविकर्म और काव्यविवेक का विविध स्वरूप संक्षिप्त रूप में उद्घाटित हुआ है। साधारणता में असाधारणता कवि शुक्ल की विशिष्टता है। प्रेम पर लिखी उनकी कविताएं अद्भुत हैं। पुरुष सत्ता और सामंती व्यवस्था को उनकी कविताएं प्रश्नांकित करती हुई एक ओर समकालीन प्रेम के स्वरूप को विस्तृत करती हैं तो दूसरी ओर प्रेम की चुनौतियों से आगाह भी। प्रेम का विद्रोह से गहरा संबंध है। सर्वविदित है कि हर बड़े कवि ने प्रेम पर कविताएं लिखीं हैं। इसको अछूता मानकर लिखने वाला कोई कवि बड़ा नहीं हुआ है। प्रेम पर कविताएं लिखते हुए कवियों ने समाज और राजनीति को भी प्रश्नांकित किया है। इन पक्षों को कवि शैलेंद्र कुमार शुक्ल ने भी उद्घाटित किया है। उनकी एक सवाल, सामंती प्रेम, दिल्ली की रात

संस्कृतियों की अन्तर्भुक्ति पर शोधपरक उपन्यास- रिसर्च इन तप्पाडोमागढ़

“पुई के सवाल पर देवकी सोखा गंभीर हो गये, कुछ क्षण मौन रहने के बाद बोले- ई दुनियाँ विश्वास पर टिकी है बाबू! आप पढ़े लिखे लोग को जितना विश्वास अपनी किताब, वेद-शास्तर पर है, उतना ही मुझे वामति माई पर है।” अचल पुलस्तेय के उपन्यास “रिसर्च इन तप्पा डोमागढ़” की शुरुआत सुदूर पूर्व मिजोरम निवासी जेएनयू की शोध छात्रा लल्लीम पुई के इस सवाल से होती है। जिसका जवाब भोजपुरी इलाके के एक गाँव तप्पाडोमागढ़ के लोक आस्था केन्द्र वामाई माई देवगढ़ के अनपढ़ सेवक देवकी सोखा शिक्षित लोगों की आस्था और शास्त्रों  पर सवाल उठाते हुए अपनी आस्था के प्रतिफल से देते हैं। सवाल आगे बढ़ता है और चीनी नाक-नक्श की वजह से मिजो लड़की के भारतीय होने के संदेह तक पहुँच जाता है। जिसके जबाब में पुई अपने सहयोगी संजय से कहती है- “संजय! हम भी उतने ही भारतीय हैं, जितने तुम हो, दोनों की एक समस्या यह है, कि हम भारत की समग्रता से अनभिज्ञ हैं। हमें भी भारतीय होने पर उतना ही गर्व है जितना तुम्हें, पर हिन्दी भाषी हमारी भारतीयता को स्वीकार नहीं करते है, इसीलिए रिसर्च के लिए मैंने नार्थईस्ट के बजाय हिन्दी भाषी प्रदेश के गाँव को चुना है। जिससे