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हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ


सारांश :

इस शोधालेख के माध्यम से हिंदी साहित्य इतिहास लेखन के दौरान उत्पन्न होने

 वाली समस्याओं को विश्लेषित किया गया है।

बीज शब्द :

साहित्यिक, पुनर्लेखन, इतिहास, गौरवान्वित, अकादमिक, प्रशासनिक, सृजनात्म-        कता, समावेश, सार्थकता, आकांक्षा, ऐतिहासिक, प्रतिबिंब, सामंजस्य, चित्तवृति, कालांतर, संकलन, आंकलन, आह्वान, स्वच्छंदतावाद।

ज हिन्दी साहित्यिक विद्वानों और आलोचकों के बीच हिन्दी साहित्य पुनर्लेखन की समस्या का मुद्दा देखने-सुनने को मिल जाता है। इस समस्या का फलक इतना विस्तृत है कि इसे किसी लेख में बाँधना कठिन है। इसके पुनर्लेखन की समस्या पर विचार करने से पूर्व हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि इतिहास वास्तव में होता क्या है ? साहित्यिक विद्वानों के इतिहास के संदर्भ में किस प्रकार के मत हैं ? अब तक इतिहास लेखन में किन-किन समस्याओं को देखने-समझने का प्रयास किया गया है। इसे लिखने की आवश्यकता क्यों है ? क्या यह साहित्य के लिए उपयोगी है ? इतिहास लेखन में किस प्रकार की सतर्कता बरतनी चाहिए ? किन-किन ऐतिहासिक तत्वों को जोड़ने या घटाने पर हिन्दी साहित्यिक इतिहास को प्रमाणिक स्थिति में स्थापित किया जा सकता है ? इनके अलावा इस समस्या का निदान तभी किया जा सकता है जब इसे हिन्दी साहित्य और इतिहास दोनों दृष्टियों से देखा-परखा जाएगा। यदि इन प्रश्नों का हल खोजने में सफलता मिलती है तो साहित्य इतिहास के पुनर्लेखन कि समस्या को काफी हद तक समझा जा सकता है।

            इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के इतिशब्द से (इति+ह+आस) से हुई है। इतिका अर्थ है- जैसा हुआ वैसा ही हैका अर्थ है- सचमुच। आस का अर्थ है- निरंतर रहना या बोध होना। डॉ. नगेन्द्र कहते हैं- शाब्दिक दृष्टि से इतिहासका अर्थ है; ऐसा ही थाया ऐसा ही हुआ। इससे दो बातें स्पष्ट हैं- एक तो यह कि इतिहास का संबंध अतीत से है, दूसरी यह कि उसके अंतर्गत केवल यथार्थ घटनाओं का ही समावेश किया जाता है।1 किसी भी देश का इतिहास देश बनने की कथा पर आधारित होता है। जिस प्रकार देश के निर्माण में इतिहास की अहम भूमिका होती है, उसी प्रकार साहित्य के व्यवस्थित निर्माण में हिंदी साहित्य के इतिहास की मूल भूमिका स्वीकार की जाती है। इतिहास अधिकतर देश की गौरवान्वित कहानी को विश्लेषित करता है तो साहित्यिक इतिहास ग्रंथ भी साहित्य की कुछ ऐसी घटनाओं, कवियों एवं रचनाकारों की रचनाओं को अपने भीतर स्थान देता है। ये सब ऐतिहासिक तत्त्व उन्हें साहित्यिक गौरव का एहसास कराते हैं। जिन घटनाओं से देश की छवि धूमिल हो या देश को किसी प्रकार की हानि हो, उनका इतिहास में जिक्र नहीं होगा और यदि होगा भी तो इतिहास उन घटनाओं का धुंधला सा जिक्र करते हुए आगे बढ़ता हुआ प्रतीत होगा। वह भी एक समय बाद उस धुंध में दिखना बंद हो जाएगा। इसका मूल कारण है- इतिहास निर्माण में राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप। सच्चा इतिहास तभी लिखा जा सकता है जब इतिहासलेखन के दौरान राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप न हो और इतिहासकार निष्पक्ष भाव से इतिहास लिखे। लेकिन ये बातें आज के समय में नामुमकिन सी प्रतीत होती है, क्योंकि इतिहासकार पर अकादमिक, प्रशासनिक, राजनीतिक विचारकों का दबाव रहता है। 

            इस बात को साहित्यिक इतिहास के संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन के ग्रंथ मध्यएशिया का इतिहासके माध्यम से समझा जा सकता है। नलिन विलोचन शर्मा ने हिन्दी साहित्य का इतिहास दर्शनके तीसरे पृष्ठ पर लिखा है कि काईकल ने कहा- इतिहास वैसा दर्शन है जो दृष्टांतों के माध्यम से शिक्षा देता है।2 डॉ. नगेन्द्र अनुसार- उसमें उन सभी लिखित या मौखिक वृतों को सम्मिलित किया जाता है जिनका संबंध अतीत की यथार्थ परिस्थितियों व घटनाओं से है और साथ ही उनका संबंध केवल प्रसिद्ध घटनाओंसे ही नहीं, अपितु उन घटनाओं से भी है जो प्रसिद्ध न होते हुए भी यथार्थ में घटित हुई हों। वस्तुतः आज इतिहासशब्द को इतने व्यापक अर्थ में प्रतुक्त किया जाता है कि उसके अंतर्गत अतीत की प्रत्येक स्थिति, परिस्थिति, घटना, प्रक्रिया एवं प्रवृति की व्याख्या का समावेश हो जाता है। अतः संक्षेप में अतीत के किसी भी तथ्य, तत्व एवं प्रवृति वर्णन, विवरण, विवेचन व विश्लेषण को, जो कि काल विशेष या कालक्रम की दृष्टि से किया गया हो- इतिहास कहा जा सकता है।3 शिवदान सिंह चौहान का मानना है- इतिहासकार एक वैज्ञानिक होता है, इतिहास की दृष्टि से सामयिक और प्रचलित धारणाओं और मतवादों से ही परिचालित नहीं होती बल्कि गत्यात्मक वास्तविकता की ऐतिहासिक गति और दिशा का उद्घाटन करने के लिए जो प्रत्यक्षतः दृश्यमान है उसके वास्तविक तथा आंतरिक सत्य तक पहुँचने तक की चेष्टा करती है। तभी इतिहास मनुष्य के भावी विकास की दृष्टि से सार्थक बनता है, हमारा पाठ प्रदर्शन करता है, नहीं तो विकृत दृष्टिकोण को प्रोत्साहन देकर हमारी दृष्टि-परिधि को सीमित बना देता है।4 श्यामसुंदर दास साहित्य के इतिहास को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि- किसी साहित्य के इतिहास का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल उस साहित्य की जातिगत या देशगत प्रवृतियों को ही जानना आवश्यक नहीं होता, वरन् विभिन्न कालों में उसकी कैसी अवस्था रही, देश के सामाजिक, धार्मिक तथा कला-कौशल से संबंधी आंदोलनों के उस पर कैसे-कैसे प्रभाव पड़े, किन-किन व्यक्तियों की प्रतिभा ने उसकी कितनी और कैसी उन्नति की, ऐसी अनेक बातों को जानना अनिवार्य होता है।5

            इसी विषय पर डॉ. विश्वंभर नाथ उपाध्याय कहते हैं- इतिहास में किसी मानव समूह या समूहों के उद्भव, विकास, ह्रास और अभ्युदय का आलेख रहता है।6 आलोचक नामवर सिंह लिखते हैं- यदि इतिहास भी साहित्य के समान कल्पना-प्रसूत रचना है तो उसे साहित्य की सामाजिक व्याख्या करने का सर्वोपरि विशेष अधिकार नहीं दिया जा सकता, जैसे कोई उपन्यास एक टेक्स्टहै तो उसी काल का लिखा हुआ कोई इतिहास दूसरा टेक्स्ट। दोनों पाठसमान रूप से व्याख्या-सापेक्ष है। साहित्यिक इतिहास की विषय सामग्री किसी भाषा की सृजनात्मकता-साहित्य दृष्टि है जिसकी गुणवत्ता का तारतमिक मूल्यांकन भी साहित्यिक इतिहासकार का दायित्व है।7 इस संबंध में आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहासशीर्षक में डॉ. नंदकिशोर नवल लिखते हैं- साहित्य के इतिहास के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पूरे साहित्य का इतिहास हो। इतिहासकार वर्तमान की दृष्टि से, अतीत की परीक्षा करता है और उसमें जो कुछ आज के लिए उपयोगी और प्रासंगिक होता है, उसे उभारकर हमारे सामने रखता है। इतिहास समाज का हो या साहित्य का उसकी यही सार्थकता है, इससे वह नया इतिहास बनाने में योग देता है, वरना यह रेलवे की समयसारणी है, पुस्तकालय की लेखक या पुस्तक सूची है।8 इसी संदर्भ में डॉ. शम्भूनाथ लिखते हैं- जब सामज में अखंडताऔर किसी नई समग्रताकी ओर बढ़ने की आकांक्षा पैदा होती है तभी वह इतिहास की ओर बढ़ता है। इतिहास से बनने वाला ही इतिहास बनाता है। इतिहास से विच्छिन होकर लिखा गया साहित्येतिहास ऊपरी विवरण (ऐतिहासिक) मात्र होता है। पहले के सुंदर उदाहरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा दूसरे के डॉ. नगेन्द्र हैं।9

उपरोक्त मतों से स्पष्ट है किसी भी इतिहास ग्रंथ पर वहाँ की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। जिन परिस्थितियों से जनता की चित्तवृति बढ़ती है, उन्हें इतिहास में शामिल किया जाता रहा है। यह चित्तवृति दो प्रकार की होती हैं- एक व्यक्तिगत और दूसरी सामूहिक। इनका संचित एवं चयनित प्रतिबिंब साहित्यिक इतिहास होता है। आचार्य शुक्ल भी कहते हैं- प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चलता है। आदि से अंत तक इन्ही चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहासकहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।10 इसके अलावा वह घटना जो समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करती हो और उसे तर्क सहित स्थापित किया जाए- इतिहास समझी जा सकती है। वास्तव में अतीत की किसी घटना पर लिखना इतिहास नहीं होता बल्कि जो अतीत आज भी जीवित है उसे इतिहास कहा जा सकता है।



हिंदी साहित्य इतिहास लेखन की समस्या को, इतिहास लेखन की विविध पद्धतियों के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। मसलन् वर्णानुक्रम पद्धति, कालानुक्रमी पद्धति, वैज्ञानिक पद्धति और विधेयवादी पद्धति आदि। गार्सा द तासी एवं शिवसिंह सेंगर ने अपने इतिहास ग्रंथों में वर्णानुक्रम पद्धति का प्रयोग किया है तो जॉर्ज ग्रियर्सन एवं मिश्रबंधुओं ने कालानुक्रमी पद्धति का। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहासमें विधेयवादी पद्धति का उपयोग किया है। आचार्य शुक्ल के लगभग 36 वर्षों बाद डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त ने वैज्ञानिक पद्धति अपनाते हुए हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहासलिखा। इन सब इतिहास लेखन पद्धतियों में कुछ न कुछ कमी अवश्य देखने को मिलती हैं। ये पद्धतियाँ अकेले किसी इतिहास ग्रंथ का व्यवस्थित तरीके से निर्माण नहीं कर सकती हैं। इनकी कुछेक कमियों का जिक्र करें तो हम देखते हैं कि वर्णानुक्रम पद्धति में लिखे गए इतिहास ग्रंथ साहित्यकार कोषकहे जा सकते हैं- इतिहास ग्रंथ नहीं। कालानुक्रमी पद्धति से रचनाकारों का जीवन परिचय और उनकी कृतियों का उल्लेख मात्र मिलेगा। इन सभी में साहित्य इतिहास सीमा पूरी नहीं होती। इसमें उस युग की परिस्थितियों, कवि और उनकी रचनाओं की प्रवृत्तियों का विवरण होना भी आवश्यक है। इनके अभाव में वह इतिहास ग्रंथ न कहलाकर कवि वृत्त संग्रहमात्र बनकर रह जाएगा। वैज्ञानिक पद्धति में भी कालानुक्रमी पद्धति के समान दोष मिलता है। इतिहास- तथ्यों के संकलन की ही नहीं अपितु व्याख्या और विश्लेषण की अपेक्षा भी करता है। आचार्य शुक्ल के इतिहास में भी कुछ हद तक वैज्ञानिक पद्धति का अभाव देखने को मिलता है। इन लेखन पद्धतियों के आधार पर कहा जा सकता है;  फिर तो, कोई साहित्यिक इतिहास पूर्ण है ही नहीं। सब इतिहास ग्रन्थों में किसी न किसी इतिहास लेखन पद्धति का अभाव देखने को मिलता है। किंतु ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ये सब साहित्यिक इतिहास ग्रंथ निरर्थक हैं। सब इतिहास ग्रंथों का अपना महत्त्व है। पहले इतिहास ग्रंथ से दूसरे इतिहास ग्रंथ की आधारभूमि तैयार होती है, दूसरे से तीसरे की। यही सिलसिला कालांतर आगे बढ़ता रहता है। प्रत्येक इतिहास की यही सार्थकता है कि एक समय बाद वह एक नया इतिहास ग्रंथ बनाने योगदान देता है।

            उन इतिहास लेखकों का जिक्र करना भी आवश्यक है जिन्होंने आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने का प्रयास किया और उनके कुछ मतों का खंडन किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उनमें से एक हैं। इन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल का इतिहास पढ़ने के बाद कुछ कमियां महसूस हुई जिनका जिक्र वे क्रमशः अपने तीनो ग्रंथों- हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘हिंदी साहित्य का उद्भव और विकासऔर हिन्दी साहित्य का आदिकालआदि में करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या इन पुस्तकों के लेखन के बाद सारा इतिहास इनमें समाहित हो गया ? मेंरे ख्याल से सभी का जवाब ना होगा। द्विवेदी जी के इतिहास ग्रन्थों की तो छोड़िए इनके बाद भी अब तक जितने इतिहास ग्रंथ के नाम से रचनाए हुई हैं, वे सारी अपूर्ण सी प्रतीत होती हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास की निर्माण प्रक्रिया की बात की जाए तो यह आपसी मत-भेदों से भरा पड़ा है। आचार्य शुक्ल के बाद भी जितने इतिहासकार हुए उनका आपस में कुछ न कुछ मतभेद जरूर था। जैसे- रामचंद्र शुक्ल के इतिहास से हजारी प्रसाद द्विवेदी की असहमति, हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास से रामस्वरूप चतुर्वेदी की असहमति है और रामस्वरूप चतुर्वेदी के इतिहास से विश्वनाथ त्रिपाठी की असहमति। यही असहमति की प्रक्रिया अब तक विद्यमान है। समान्यतः साहित्य में यह असहमति बनी रहनी चाहिए। इसी वजह से साहित्य में नए विचारों का समावेश होता है और एक नए इतिहास ग्रंथ की निर्मिति होती है। लेकिन यह असहमति कई बार समस्या भी उत्पन्न कर देती है। इससे पाठकों को समस्या हो सकती है कि किस इतिहासकार को प्रामाणिक समझा जाए। जैसे- पृथ्वीराज रासोकी प्रामाणिकता को लेकर अधिकांश विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। कुछेक विद्वान इसे अप्रामाणिक मानते हैं तो कुछ प्रामाणिक तो कुछ अर्धप्रमाणिक और आज भी इसकी प्रामाणिकता को लेकर यह समस्या बनी हुई है।

            इतिहासकारों, आलोचकों और लेखकों में असहमति के बीज होना आवश्यक है, इनके बिना साहित्य का उचित निर्माण नहीं हो सकता। लेकिन यह असहमति इतने भी निचले स्तर की नहीं होनी चाहिए कि आप किसी को कुछ भी बोल कर आगे बढ़ जाओ। दुर्भाग्यवश आज यही देखने को मिल रहा है। इस असहमति का आंकलन करने पर इसका जो मूल कारण समझ आया वो यह है कि- आज साहित्यिक विचारकों की अनेक विचारधाराएँ हैं, इन्हीं विचारधाओं के फलस्वरूप साहित्य का निर्माण हो रहा है। मसलन एक आचार्य शुक्ल की विचारधारा से प्रभावित साहित्यिक विद्वान हैं। दूसरे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित विद्वान और तीसरे दलित साहित्य से संबंध रखने वाले साहित्यिक विद्वान हैं। इनके अलावा भी ऐसी ही अनेक विचारधाएँ हैं जिनसे साहित्य प्रभावित होता आया है और आज भी हो रहा है। इन विद्वानों के मतों में मतभेद के कारण ही अब तक साहित्यिक इतिहास का एक व्यवस्थित ढांचा तैयार नहीं हो सका है। इन मतभेदों के चलते एक-दूसरे में साहित्यिक टिप्पणियों के माध्यम से कमियां तो निकाल सकते हैं लेकिन जब इतिहास लेखन की बात होती है तो एक-दूसरे की बगले झाँकते दिखाई देते हैं। वास्तव में हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का कार्य इतना आसान नहीं है, यदि आसान होता तो नामवर सिंह जैसे विद्वान इसे पहले ही लिख डालते। वे दिल्ली हिंदी अकादमी की इतिहास विषयक गोष्ठी में यह घोषणा नहीं करते कि अब उनसे हिंदी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जाएगा। इस व्याख्यान में उन्होंने अपने साथ रामविलास शर्मा को भी (थके हुए बूढ़े) मानकर उस दायित्व से मुक्त करके नौजवानों को यह काम करने का आह्वान किया।

साहित्य इतिहास लेखन में अन्य समस्याओं की बात करें तो काल विभाजन के नामकरण की समस्या आज भी जस की तस है। आचार्य शुक्ल के इतिहास से इन नामों में भक्ति काल और आधुनिक काल को यथावत् स्वीकार किया जा सकता है लेकिन वीरगाथाकाल और रीतिकाल विवाद के विषय हैं। वीरगाथा काल के लिए आदिकाल अब तक सर्वमान्य रहा है। हो सकता है जब तक इस विषय पर उचित तथ्यों, आंकड़ों घटनाओं और भाषा आदि के आधार पर प्रमाणित शोध नहीं हो जाता तब तक यह नाम सर्वमान्य रहे। रीतिकाल को श्रृंगार काल, अलंकार काल आदि के नाम से देखा-परखा गया है। लेकिन अब तक रीतिकाल ही स्वीकार्य है। छायावाद के नामकरण छायावाद बनाम स्वच्छंदतावादको लेकर साहित्य में लंबे समय तक बहस चली है। इस संदर्भ में डॉ. बच्चन लिखते हैं कि- छायावाद को लेकर जितनी परिभाषाएँ दी गई हैं उनकी दृष्टि में केवल काव्य ही रहा है। प्रसाद, जैनेन्द्र और इलाचन्द्र जोशी के उपन्यासों को, जो उसी काल में लिखे गए, क्या छायावादी कहा जाएगा ? इस काल के काव्य, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना आदि को स्वच्छंदतावादी तो कहा जा सकता है, छायावादी नहीं।11 डॉ. बच्चन सिंह स्वच्छंदतावाद से पहले के युग को पूर्व-स्वच्छंदतावाद और स्वच्छंदतावाद के बाद के युग को उत्तर-स्वच्छंदतावाद कहना उचित समझते हैं। नए इतिहास लेखन के दौरान इन बातों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है।

            आचार्य शुक्ल के समय इतिहास लेखन के लिए रचनाकारों द्वारा रचे ग्रंथ, तथ्यों, घटनाओं आदि को एकत्र करना इतना आसान नहीं था जितना आज है। आज की तुलना में उस समय कवियों, कहानीकारों, आलोचकों और अन्य रचनाकारों की संख्या भी इतनी अधिक नहीं थी। आज अनेक विमर्श; दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श, किन्नर-विमर्श, वृद्ध-विमर्श आदि उभरकर सामने आए हैं, जिन्हें प्रमाणित और स्थापित करने के लिए समय-समय पर सरकारी-गैर सरकारी संसथाओं में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार और संगोष्ठियाँ होती रहती हैं। यदि आज उन्हे साहित्य में स्थान नहीं मिलता तो कहीं न कहीं साहित्यिक इतिहास अधूरा रहेगा। यदि आज हिंदी साहित्य की सभी विधाओं को एक ही परिधि में बांधने का प्रयास करते हैं तो कहीं न कहीं यह प्रयास असफल साबित होगा। इसका मुख्य कारण है- प्रत्येक साहित्यिक विधा का विस्तृत फैलाव। इन विधाओं के विस्तृत आयाम को देखकर लगता है कि आज इनका अलग-अलग इतिहास लिखा जा सकता है। प्रसिद्ध आलोचक गोपाल राय ने इसकी शुरुआत हिन्दी उपन्यास का इतिहास’ (2002) और हिन्दी कहानी का इतिहासभाग-एक (2008) हिन्दी कहानी का इतिहासभाग-दो (2011), ‘हिन्दी कहानी का इतिहासभाग-तीन (2014) लिखकर कर चुके हैं। अब यह देखना है कि हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन इसी आधार पर होगा या इतिहास लेखन की कोई नई परिपाठी विकसित होगी।

संदर्भ सूची

1.       हरदयाल, डॉ.  नगेन्द्र (2014), हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. स. 19

2.       मारू, प. (2013), हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 22

3.       मारू, प. (2013), हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 22

4.       मारू, प. (2013), हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 23

5.       मारू, प. (2013),  हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 23

6.       मारू, प. (2013),  हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 24

7.       मारू, प. (2013), हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 24

8.       मारू, प. (2013),  हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 25

9.       मारू, प. (2013),  हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, पृ.स. 26

10.    शुक्ल, आ. र. (2016), हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.स. 15

11.    सिंह, ब. (2016), आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ.स. 9

अन्य पुस्तकें

1.                   राय, ग. (2020). हिंदी भाषा का विकास, नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.

2.                   शुक्ल, आ. र. (2016). हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली : कमल प्रकाशन .

3.                   हरदयाल, डॉ.  न. (2014). हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली: मयूर पेपरबैक्स.

4.                   वार्ष्णेय, ल. (2017). हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, नई दिल्ली : लोकभारती प्रकाशन.

5.                   सिंह, ब. (2016). आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, नई दिल्ली : लोकभारती प्रकाशन.

6.                   सांकृत, स. (2012). हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन से जुड़े कुछ सवाल, समसामयिक सृजन.

7.                   मारू, प. (2013). हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता, नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन .

इन्टरनेट

1.       https://h.wkpeda.org/wk/%

2.       https://www.google.com/search?clent 


रमन कुमार  

शोधार्थी, हिंदी विभाग  

डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय

दिल्ली

ramantakiyadu@gmail.com

नोट : आलेख परिवर्तन पत्रिका (अंक 23, जुलाई-सितम्बर 2021) में पूर्व प्रकाशित है.


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