सिनेमा वैसे तो मूल रूप से मनोरंजन का एक साधन या कहिए पर्याय है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। इसी सरोकार के तहत कई फिल्मकारों ने परदे पर मनुष्य के अंतर्मन की अनंत गहराइयों को ऐसे उकेरा जैसे कोई शायर अपनी ग़ज़ल में समय की पीड़ा को पिरोता है, या कोई चित्रकार अपने हृदय के रंगों को कैनवास पर उंडेलता है।
बात भारतीय सिनेमा के उस युग (1950-60) की है जब राज कपूर सामाजिक आख्यानों से और बिमल रॉय यथार्थवादी चित्रण से दर्शकों को बाँध रहे थे। उस दौर में गुरुदत्त ने ऐसी फिल्मों का निर्माण किया, जिसके नायक और नायिकाएँ न केवल बाहरी समाज से बल्कि अपनी आंतरिक उथल-पुथल, पितृसत्तात्मक बंधनों और अस्तित्व की व्यर्थता से संघर्ष करते हुए दिखते हैं। उनकी फिल्में- ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ और ‘चौदहवीं का चाँद’ केवल सिनेमाई कृतियाँ नहीं बल्कि मानव मन की उस अनंत तृष्णा का काव्य हैं जो सामाजिक पाखंड, प्रेम की विडंबनाओं और अर्थहीनता के खिलाफ विद्रोह करती हैं। विविधताओं से भरी इस दुनिया मे एक संवेदनशील व्यक्ति सदैव अपनी सच्चाई की खोज में समाज और स्वयं से हारता रहा है। गुरुदत्त का जीवन और उनकी कला इसी हार के कारणों की पड़ताल करने का प्रयास करती है। उनकी सिनेमाई शैली, वी.के. मूर्ति का छायांकन, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी और कैफी आज़मी के गीत तथा एस.डी. बर्मन व ओ.पी. नैयर का संगीत साथ मिलकर एक ऐसी कलात्मक रचना रचते हैं, जहाँ प्रत्येक फ्रेम, प्रत्येक नोट और प्रत्येक मौन आत्मा की गहराइयों को छूता है। उनकी फिल्में विश्व सिनेमा के उन दुर्लभ रत्नों में शुमार हैं, जो इंगमार बर्गमैन की आत्मिक खोज, फ्रेडरिक फेलिनी की आत्मकथात्मक गहराई, और अल्बेयर कामू के अस्तित्ववादी दर्शन की याद दिलाती हैं। गुरुदत्त का जीवन उनकी फिल्मों के पात्रों की तरह ही रहा है- बिल्कुल दीपक की लौ तरह जो लगातार अंधेरे से जूझता है और अंततः स्वयं में ही सिमटकर रह जाता है। प्रस्तुत लेख उनकी चार प्रमुख फिल्मों के माध्यम से उस समय के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को देखने और समझने का प्रयास है।
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चित्र : गूगल से साभार |
‘प्यासा’ (1957) गुरुदत्त की एक ऐसी फिल्म है, जो समाज और व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को गहराई से उकेरती है। नायक विजय (गुरुदत्त) एक आदर्शवादी कवि है। वह उस समाज में साँस लेता है जहाँ कला की कीमत सिक्कों से तौली जाती है। उसके गीत जो जीवन की विसंगतियों और प्रेम की उदासी को शब्द देती हैं प्रकाशकों को ‘गैर-व्यावसायिक’ लगती हैं। साहिर लुधियानवी का गीत “जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं” विजय की आवाज़ में भ्रष्टाचार, पाखंड, और सामाजिक असमानता को ललकारता है। एक दृश्य में, जब विजय एक साहित्यिक सभा में यह गीत गाता है तब वी.के. मूर्ति का कैमरा धीरे-धीरे उसकी आँखों की उदासी को कैद करता है। यह दृश्य अल्बेयर कामू के सिसिफस की तरह है- जिसे एक बड़े चट्टान को पहाड़ की चोटी पर पहुंचाने की सजा मिली थी। वह इस अर्थहीन दुनिया में अपनी सच्चाई की खोज में निरंतर संघर्ष करता है, फिर भी समाज की उदासीनता से टकराकर टूट जाता है। इस दृश्य में, मूर्ति का छायांकन कोलकाता की तंग गलियों और सभागार की भव्यता के बीच के उस अंतर को प्रदर्शित करता है जो विजय के भीतर के अंधेरे और बाहरी दुनिया की चमक के बीच के तनाव को उजागर करता है।
स्त्रीवादी दृष्टिकोण से, ‘प्यासा’ की गुलाबो (वहीदा रहमान) और मीना (माला सिन्हा) पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की सीमित भूमिकाओं को उजागर करती हैं। गुलाबो एक वेश्या है जो सामाजिक तिरस्कार का शिकार है। वह विजय की कविताओं को ऐसे संजोती है जैसे कि वह उसकी आत्मा की एकमात्र पहचानकर्ता हो। एक दृश्य में, जब गुलाबो सड़क पर विजय की कविताएँ बेचती है, कैमरा उसे एक मशाल-वाहक की तरह प्रस्तुत करता है। दृश्य में वह एक मंद रोशनी में कविताओं को पढ़ती है। यह अपने आप में पितृसत्तात्मक ढांचे में स्त्री की स्वायत्तता की खोज का रेखांकन कहा जा सकता है। वहीं दूसरी तरफ मीना जब आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक स्वीकार्यता के लिए विजय को त्याग देती है- सामंती समाज में स्त्री की मजबूरी को दर्शाता है। एक दृश्य में, जब मीना एक भव्य हवेली में विजय से मिलती है, कैमरा उसके चेहरे पर ठहरकर उसकी आंतरिक उथल-पुथल को दर्शाता है। फ़िल्म का सबसे पसंदीदा गीत “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” विजय के मोहभंग को व्यक्त करता है। यह गीत समाज और स्वयं से उसके अलगाव का प्रतीक है। विजय का अंतिम विद्रोह तब दिखता है जब वह खोखली प्रसिद्धि को ठुकराकर गुलाबो के साथ चला जाता है। यहाँ अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इस तरह यह यह संदेश बड़ी संजीदगी देती है कि जीवन का अर्थ बाहरी वाहवाही में नहीं, बल्कि आत्मा की सच्चाई में है।
फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ (1959) गुरुदत्त द्वारा निर्देशित आखिरी फ़िल्म है। यह फ़िल्म उनकी अपनी ही त्रासदी के कई पहलुओ को परदे पर उकेरती है। इस फ़िल्म का नायक सुरेश सिन्हा (गुरुदत्त), एक पूर्व-प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक है जो अपने भीतर के खालीपन और पितृसत्तात्मक अपेक्षाओं से जूझता है। उसका बिखरता पारिवारिक जीवन तथा पत्नी और बेटी से भावनात्मक दूरी उसे अपराधबोध के गर्त में धकेलते हैं। यह फ़िल्म पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष की ‘प्रदाता’ और ‘सफल’ होने की भूमिका की विफलता को दर्शाता है। गुरुदत्त की महत्वाकांक्षी फिल्म ‘कागज़ के फूल’ उनकी आत्मा का प्रतिबिंब है, जिसमें अभिनेत्री शांति (वहीदा रहमान) के साथ उनका जटिल रिश्ता, उनके निजी जीवन (विशेष रूप से गीता दत्त और वहीदा रहमान के साथ) संबंधों और मनोवैज्ञानिक द्वंद्व की छाया है।
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चित्र : गूगल से साभार |
इस फ़िल्म में शांति का चरित्र एक ऐसी स्त्री को दर्शाता है, जो अपनी प्रतिभा और स्वायत्तता के बावजूद पुरुष-प्रधान फिल्म उद्योग में एक ‘म्यूज़’ के रूप में सीमित है। एक दृश्य में, जब शांति स्टूडियो में सुरेश की फिल्म में अभिनय करती है, कैमरा उसके चेहरे को एक प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन उसकी अपनी इच्छाएँ दब जाती हैं, जो पितृसत्तात्मक ढांचे में स्त्री की परतंत्रता को रेखांकित करता है। एक अन्य दृश्य में जहाँ शांति और सुरेश बारिश में सड़क पर चलते हैं, उनकी स्वतंत्रता की क्षणिक झलक देता है, जो समाज की नज़रों में जल्द ही बुझ जाती है। यह दृश्य उनकी भावनात्मक नज़दीकी को एक काव्यात्मक रूप देता है, जो पितृसत्तात्मक बंधनों में कैद हो जाता है। सुरेश का आत्म-विनाश ज्याँ-पॉल सार्त्र के ‘नो एक्ज़िट’ की तरह है—वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करता है, लेकिन उसकी पसंद उसे विनाश की ओर ले जाती है। वी.के. मूर्ति का छायांकन, विशेष रूप से स्टूडियो में लंबे शॉट्स और प्रकाश-छाया का गहरा खेल, सुरेश के अकेलेपन और शांति की घुटन को उजागर करता है। गीत “वक्त ने किया क्या हसीं सितम” (कैफी आज़मी) समय और नियति के दर्शन को व्यक्त करता है, जैसे कि सुरेश और शांति दोनों अपनी बनाई दुनिया में कैद हो गए हों।
फ़िल्म के अंतिम दृश्य में सुरेश अपनी निर्देशक की कुर्सी पर मृत पाया जाता है। यह एक कलाकार की पराजय का प्रतीक है। कैमरा खाली स्टूडियो में सुरेश की निष्प्राण देह पर ठहरता है और उनकी त्रासदी को एक कालजयी चित्र बना देता है। यह दृश्य 1964 में गुरुदत्त की आत्महत्या का क्रूर प्रतिबिंब है। समीक्षक मानते हैं कि यह दृश्य उनकी गीता दत्त के साथ तनावपूर्ण वैवाहिक जीवन और वहीदा रहमान के साथ जटिल संबंधों से प्रभावित था। ‘कागज़ के फूल’ आज के उन कलाकारों को सचेत करता है, जो स्टारडम के दबाव और व्यक्तिगत संकटों में टूट रहे हैं।
‘साहिब बीबी और गुलाम’ (1962) गुरुदत्त की एक ऐसी फिल्म है, जो सामंती समाज के पतन और मानव मन की घुटन को चित्रित करता है। भूतनाथ (गुरुदत्त) एक संवेदनशील युवा है जो एक पतनशील जमींदारी हवेली का साक्षी बनता है, जहाँ नैतिकता और मानवता धीरे-धीरे खोखली हो रही है। छोटी बहू (मीना कुमारी) की अपने पति का प्रेम और सम्मान पाने की व्यर्थ कोशिश, पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की दयनीय दशा को उजागर करती है। गीत “न जाओ सैंया” (शकील बदायूनी, गीता दत्त) एक स्त्री की आत्मिक पीड़ा की चीख है, जो सामंती बंधनों में कैद स्त्री की अस्मिता को व्यक्त करती है। वी.के. मूर्ति का कैमरा हवेली के अंधेरे गलियारों और छोटी बहू के कमरे में उसकी घुटन को मूर्त रूप देता है। एक दृश्य में, जब छोटी बहू शराब के नशे में अपने पति को लुभाने की कोशिश करती है उस समय कैमरे का क्लोजप शॉट उसकी आत्मा की टूटन को दर्शाता है। इस दृश्य में, गीता दत्त की आवाज़ और मूर्ति का छायांकन मिलकर पितृसत्तात्मक बंधनों की क्रूरता को उजागर करते हैं।
स्त्रीवादी नजरिये से देखें तो छोटी बहू का शराब की शरण लेना पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की सीमित स्वायत्तता का प्रतीक है। वह अपनी पहचान को पति के प्रेम में ढूँढती है, लेकिन उसकी विफलता उसे आत्म-विनाश की ओर ले जाती है। यह दृश्य आज की उन स्त्रियों की आवाज बनता है, जो सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच फँसी हैं। अस्तित्ववादी दृष्टिकोण से इस फ़िल्म में भूतनाथ का मूक साक्षी होना अल्बेयर कामू के ‘द स्ट्रेंजर’ की तरह है- वह दुनिया की बेतुकीपन को देखता है, लेकिन अपनी लाचारी के कारण हस्तक्षेप नहीं कर पाता। यह फिल्म एक युग के अंत और आधुनिकता के उदय का प्रतीक है, जो आज के समाज में व्यक्तिवाद और सामूहिकता के टकराव को दर्शाता है।
‘चौदहवीं का चाँद’ (1960) एक रोमांटिक कथा होकर भी गुरुदत्त के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को उजागर करती है। नायक असलम (गुरुदत्त) अपने दोस्त नवाब की खुशी और अपने प्रेम के बीच फँस जाता है। जमीला (वहीदा रहमान), जिसे वह प्रेम करता है, उसके दोस्त की पत्नी बन जाती है। फ़िल्म में जमीला का किरदार एक ऐसी स्त्री का है जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में केवल एक पुरुष की इच्छा का प्रतीक बनकर रह जाती है। एक दृश्य में, जब जमीला का चेहरा चाँद की रोशनी में चमकता है तो एक स्वप्निल छवि उभरती है, लेकिन उसकी अपनी इच्छाएँ और स्वायत्तता दब जाती है। गीत “चौदहवीं का चाँद हो” (शकील बदायूनी, रवि) में असलम की आँखों की उदासी और अधूरी चाहत एक काव्यात्मक प्रस्तुति है। इस दृश्य में, रवि का संगीत और मूर्ति का छायांकन मिलकर प्रेम की उस त्रासदी को उकेरते हैं, जो पितृसत्तात्मक बंधनों में कैद है।
असलम अपने दोस्त की खुशी के लिए अपने प्रेम की कुर्बानी देता है। यह किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग है लेकिन यही स्वतंत्रता उसे आत्मिक पीड़ा की ओर ले जाता है। यह ज्याँ-पॉल सार्त्र के दर्शन की तरह है, जहाँ स्वतंत्रता की कीमत आत्म-विनाश हो सकती है। एक दृश्य में, जब असलम जमीला को नवाब के साथ देखता है तब उसकी मौन पीड़ा और मानसिक द्वंद्व को कैमरा बहुत बारीकी से महसूस कराता है।
गुरुदत्त का सिनेमा उनके निजी जीवन की छाया से अछूता नहीं था। उनका बचपन, जो आर्थिक अस्थिरता और पारिवारिक तनाव से भरा था, उनके अवचेतन में गहरे बैठ गया। गीता दत्त के साथ उनका वैवाहिक जीवन, जो प्रेम से शुरू होकर तनाव और दूरी में बदला, उनकी फिल्मों में बार-बार झलकता है। वहीदा रहमान के साथ उनका जटिल रिश्ता ‘कागज़ के फूल’ और ‘चौदहवीं का चाँद’ में शांति और जमीला के चरित्रों में प्रतिबिंबित होता है। 1964 में मात्र 39 वर्ष की आयु में उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। यह हार एक ऐसी आत्मा की थी जो समाज और स्वयं से जूझते हुए टूट गई।
इस तरह गुरुदत्त का सिनेमा आज भी प्रासंगिक है। विजय का मोहभंग, सुरेश का आत्म-विनाश, भूतनाथ की घुटन, और असलम का दमित प्रेम आज के मानसिक स्वास्थ्य संकट, पितृसत्तात्मक दबावों और पहचान की खोज को प्रतिबिंबित करते हैं। उनकी फिल्में हमे यह बताती हैं कि जरूरत है अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने की, भले ही पितृसत्तात्मक समाज और अर्थहीन दुनिया हमें बहरा कर दे।
संपर्क : महेश सिंह, mahesh.pu14@gmail.com
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