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परिचय

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हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ

सारांश : इस शोधालेख के माध्यम से हिंदी साहित्य इतिहास लेखन के दौरान उत्पन्न होने  वाली समस्याओं को विश्लेषित किया गया है। बीज शब्द : साहित्यिक , पुनर्लेखन , इतिहास , गौरवान्वित , अकादमिक , प्रशासनिक , सृजनात्म-        कता , समावेश , सार्थकता , आकांक्षा , ऐतिहासिक , प्रतिबिंब , सामंजस्य , चित्तवृति , कालांतर , संकलन , आंकलन , आह्वान , स्वच्छंदतावाद। आ ज हिन्दी साहित्यिक विद्वानों और आलोचकों के बीच हिन्दी साहित्य पुनर्लेखन की समस्या का मुद्दा देखने-सुनने को मिल जाता है। इस समस्या का फलक इतना विस्तृत है कि इसे किसी लेख में बाँधना कठिन है। इसके पुनर्लेखन की समस्या पर विचार करने से पूर्व हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि इतिहास वास्तव में होता क्या है ? साहित्यिक विद्वानों के इतिहास के संदर्भ में किस प्रकार के मत हैं ? अब तक इतिहास लेखन में किन-किन समस्याओं को देखने-समझने का प्रयास किया गया है। इसे लिखने की आवश्यकता क्यों है ? क्या यह साहित्य के लिए उपयोगी है ? इतिहास लेखन में किस प्रकार की सतर्कता बरतनी चाहिए ? किन-किन ऐतिहासिक तत्वों को जोड़ने या घटाने पर हिन्दी साहित्यिक इति

नैतिकता के सवाल और एकेडमिया

स भी प्राणियों में मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसके पास सोचने-समझने और बुद्धि के उपयोग की अधिक क्षमता है। यही वजह है कि वह निरंतर जीवन की बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता है। इसी प्रयास में वह तमाम अन-सुलझे सवालों का जवाब ढूंढता है। सवालों का संबंध चेतना से है और चेतना तभी आती है जब हम चिंतन करते हैं , चिंतन भी तभी संभव है जब अध्ययन की लालसा हो या सही मौका मिले और सही मौका तभी मिल सकता है जब सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक हो , लोकतंत्र भी वहीं हो सकता है जहाँ नैतिकता जीवित रहे। असल में नैतिकता मनुष्य का वह स्वाभाविक गुण है जिससे मनुष्य स्वयं के प्रति उत्तरदायी होता है। दुनिया के तमाम संगठनों , संस्थानों और समुदायों की भी नैतिकता तय की जाती है , अपने आप में यह एक आदर्श स्थिति है। इसी आदर्श के दायरे में व्यक्ति , समाज , समुदाय , संगठन और संस्थानों को रहना होता है। नैतिकता के दायरे में ही सभी नियम या कानून तैयार किये जाते हैं। हालाँकि , नैतिकता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो हर परिस्थिति में उसके साथ रहती है , लेकिन कई बार मनुष्य की दूसरी प्रवृतियाँ इसे अपने अधिपत्य में ले लेती हैं। नतीजतन , लोभ , भय औ

उनकी टांग

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सुनीं थीं। टी. वी. पर धारावाहिक भी देखा और अनुमान भी लगाया कि राजा विक्रमादित्य अपने सिंहासन पर बैठे कैसे लगते होंगे ? लेकिन मेरी यह कल्पना तब साकार हुई , जब विद्यालय से घर पहुँचा ही था कि जेब में पड़ा फोन कँपकँपा उठा , मैं तो समझा कि शायद दिल में कंपन हो रहा है , लेकिन अगले ही पल हाथ स्वयं ही जेब में पहुँच गया और मैंने फोन निकालकर देखा कि किसका फोन है ? फोन श्रीमती जी का था इसलिए उसे काटने या अवाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था , तुरन्त आज्ञाकारी पति की होने का फर्ज़ निभाते हुए फोन अटेण्ड किया। हैलो कहने से पहले ही आकाशवाणी की तरह फोन से आवाज़ आई , “ घर में हो तो तुरन्त बाहर आ जाओ ” । मेरे ‘ क्या हुआ ’ पूछने से पहले ही फोन कट गया। बहरहाल मैं तुरन्त ही बाहर गया , पर मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा जिससे चौंका जाए। इधर और उधर से रिक्शे , मोटरसाइकिल और पैदल लोगों के साथ लोग अपने दैनिक कार्यों में लगे हुए थे। आवारा कुत्ते सड़क किनारे छाँव में सुस्ता रहे थे और कुछ पिल्ले यहाँ-वहाँ चहलकदमी कर रहे थे।             मैंने सड़क के दोनों ओर देखा , कुछ नहीं है मन में बुदबुदाया

एक आदिवासी भील सम्राट ने प्रारंभ किया था ‘विक्रम संवत’

-जितेन्द्र विसारिया जैन साहित्य के अनुसार मौर्य व शुंग के बाद ईसा पूर्व की प्रथम सदी में उज्जैन पर गर्दभिल्ल (भील वंश) वंश ने मालवा पर राज किया। राजा गर्दभिल्ल अथवा गंधर्वसेन भील जनजाति से संबंधित थे,  आज भी ओडिशा के पूर्वी भाग के क्षेत्र को गर्दभिल्ल और भील प्रदेश कहा जाता है। मत्स्य पुराण के श्लोक के अनुसार :           सन्तैवाध्रा  भविष्यति दशाभीरास्तथा नृपा:।           सप्तव  गर्दभिल्लाश्च  शकाश्चाष्टादशैवतु।। 7 आंध्र, 10 आभीर, 7 गर्दभिल्ल और 18 शक राजा होने का उल्लेख है। 1 पुराणों में आन्ध्रों के पतन के पश्चात् उदित अनेक वंश, यथा (सात श्री पर्वतीय आन्ध्र (52 वर्ष), दस आभीर (67 वर्ष) सप्त गर्दभिल्ल (72 वर्ष) अठारह शक (183 वर्ष) आठ यवन (87 वर्ष) इत्यादि सभी आन्ध्रों के सेवक कहे गये हैं। इन राजवंशों में सप्त गर्दभिल्लों का उल्लेख है। जैनाचार्य मेरुतुंग रचित थेरावलि में उल्लेख मिलता है कि गर्दभिल्ल वंश का राज्य उज्जयिनी में 153 वर्ष तक रहा। 2 'कलकाचार्य कथा' नामक पाण्डुलिपि में वर्णित जैन भिक्षु कलकाचार्य और राजा शक (छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय, मुम्बई) (फोटो : विकि

निराला : आत्महन्ता आस्था और दूधनाथ सिंह

कवि-कथाकार और आलोचकीय प्रतिभा को अपने व्यक्तित्व में समोये दूधनाथ सिंह एक संवेदनशील , बौद्धिक , सजगता सम्पन्न दृष्टि रखने वाले शीर्षस्थ समकालीन आलोचक हैं। आपके अध्ययन-विश्लेषण का दायरा व्यापक और विस्तीर्ण है। निराला साहित्य के व्यक्तित्व के विविध पक्षों और उनकी रचनात्मकता के सघन अनुभव क्षणों  का गहरा समीक्षात्मक विश्लेषण आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘ निराला: आत्महन्ता आस्था ’’ (1972) में किया है।             दूधनाथ सिंह जी सर्वप्रथम पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता को विवेचित करते हुए लिखते हैं कि कला और रचना के प्रति एकान्त समर्पण और गहरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर ‘‘ घनी-सुनहली अयालों वाला एक सिंह होता है , जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंहवृत्ति के कारण वह कभी भी इस खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है- चारों ओर से अपनी नजरें समेटे , एकाग्रचित्त , आत्ममुख , एकाकी और कोलाहलपूर्ण शान्ति में जूझने और झपटने को तैयार।...... इस तरह यह एकान्त-समर्पण एक प्रकार का आत्मभोज होता है: कला-रचना के प्रति यह अन