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बदलती वैश्विक शक्ति संरचना: बहुध्रुवीयता की ओर

वैश्विक शक्ति संरचना में परिवर्तन एक ऐसी गतिशील और जटिल प्रक्रिया है, जो मानव इतिहास के विभिन्न कालखंडों में सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक बदलावों के साथ आकार लेती रही है। यह प्रक्रिया न केवल देशों के बीच शक्ति के वितरण को प्रभावित करती है, बल्कि वैश्विक शासन, सहयोग और संघर्ष के तौर-तरीकों को भी पुनर्परिभाषित करती है। बीसवीं सदी में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक शक्ति संरचना द्विध्रुवीय थी, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ दो प्रमुख शक्तियों के रूप में उभरे। शीत युद्ध के समापन और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बन गया, जिसने एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था को जन्म दिया। हालांकि, इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में वैश्विक शक्ति संरचना में एक नया मोड़ देखने को मिल रहा है, जो अब बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रहा है। इस बदलाव ने वैश्विक मंच पर नए शक्ति केंद्रों को जन्म दिया है, जिनमें उभरते हुए देश जैसे चीन, भारत, ब्राजील और रूस, साथ ही क्षेत्रीय संगठन जैसे यूरोपीय संघ और आसियान शामिल हैं। 

   


 


वैश्विक शक्ति संरचना का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

वैश्विक शक्ति संरचना का इतिहास मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में रोमन साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य और चीनी हान वंश जैसे साम्राज्यों ने अपने-अपने क्षेत्रों में शक्ति का केंद्र बनकर वैश्विक प्रभाव डाला। रोमन साम्राज्य ने अपनी सैन्य शक्ति और प्रशासनिक व्यवस्था के माध्यम से यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और पश्चिमी एशिया पर शासन किया, जबकि मौर्य साम्राज्य ने भारतीय उपमहाद्वीप में शांति और समृद्धि की स्थापना की। मध्यकाल में इस्लामी खलीफा और मंगोल साम्राज्य ने व्यापार, संस्कृति और सैन्य शक्ति के माध्यम से वैश्विक व्यवस्था को प्रभावित किया। मंगोल साम्राज्य ने यूरेशिया में व्यापार मार्गों को खोलकर सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया। 

आधुनिक युग में, विशेष रूप से औपनिवेशिक काल में, यूरोपीय देशों जैसे ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन ने अपनी नौसैनिक शक्ति, व्यापारिक नेटवर्क और उपनिवेशों के माध्यम से वैश्विक शक्ति पर कब्जा किया। ब्रिटिश साम्राज्य, जिसे कभी "सूरज कभी न डूबने वाला साम्राज्य" कहा जाता था, ने विश्व के कई हिस्सों में अपनी सांस्कृतिक, आर्थिक और सैन्य छाप छोड़ी। हालांकि, बीसवीं सदी में औपनिवेशिक शक्तियों का पतन हुआ और दो विश्व युद्धों ने वैश्विक शक्ति संरचना को पूरी तरह बदल दिया। 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो ध्रुवों में बंट गया: पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका और साम्यवादी सोवियत संघ। इस द्विध्रुवीय व्यवस्था में दोनों देशों ने न केवल अपनी सैन्य और आर्थिक शक्ति को बढ़ाया, बल्कि वैचारिक स्तर पर भी विश्व को प्रभावित किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) के माध्यम से पश्चिमी देशों को एकजुट किया, जबकि सोवियत संघ ने वारसॉ संधि के तहत पूर्वी यूरोप और अन्य साम्यवादी देशों को अपने प्रभाव में लिया। इस दौरान विकासशील देश, विशेष रूप से एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतंत्र देश, इन दोनों ध्रुवों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में लगे रहे। 

1991 में सोवियत संघ के विघटन ने इस द्विध्रुवीय व्यवस्था को समाप्त कर दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बन गया, जिसने वैश्विक अर्थव्यवस्था, सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक प्रभाव के माध्यम से विश्व पर प्रभुत्व स्थापित किया। इस एकध्रुवीय व्यवस्था में अमेरिका ने वैश्विक संस्थानों जैसे संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के माध्यम से अपनी नीतियों को लागू किया। हालांकि, यह एकध्रुवीयता स्थायी नहीं थी। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में नए शक्ति केंद्रों का उदय हुआ। चीन, भारत, ब्राजील और रूस जैसे उभरते देशों ने अपनी आर्थिक और सैन्य क्षमताओं को बढ़ाया, जबकि यूरोपीय संघ, आसियान और अफ्रीकी संघ जैसे क्षेत्रीय संगठनों ने वैश्विक मंच पर अपनी आवाज को मजबूत किया। यह बदलाव एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर इशारा करता है, जहां शक्ति एक देश के बजाय कई देशों और समूहों के बीच वितरित हो रही है। (हंटिंगटन, सैमुएल पी., 1996, *The Clash of Civilizations and the Remaking of World Order*, साइमन एंड शूस्टर)।

बहुध्रुवीयता के उदय के कारण

वैश्विक शक्ति संरचना के बहुध्रुवीय होने के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं, जिनका विश्लेषण इस परिवर्तन को समझने के लिए आवश्यक है। सबसे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण है। पिछले कुछ दशकों में वैश्विक अर्थव्यवस्था में उभरते देशों की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। चीन ने अपनी सुधारवादी आर्थिक नीतियों, बुनियादी ढांचे के विकास और वैश्विक व्यापार में बढ़ती भागीदारी के माध्यम से विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का गौरव प्राप्त किया है। विश्व बैंक के 2024 के आंकड़ों के अनुसार, चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 18.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के 25.5 ट्रिलियन डॉलर के करीब है। यह आर्थिक प्रगति केवल आंकड़ों तक सीमित नहीं है। चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) जैसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट्स के माध्यम से एशिया, अफ्रीका और यूरोप के देशों के साथ आर्थिक संबंधों को मजबूत किया है। यह पहल न केवल व्यापार और निवेश को बढ़ावा देती है, बल्कि चीन को वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित करती है। 

भारत भी इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुमानों के अनुसार, 2030 तक भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। भारत की आर्थिक नीतियां, जैसे मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया, ने इसे वैश्विक व्यापार और निवेश के लिए एक आकर्षक गंतव्य बनाया है। भारत की युवा जनसंख्या और तकनीकी नवाचार ने इसे वैश्विक मंच पर एक मजबूत दावेदार बनाया है। इसके अलावा, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और अन्य विकासशील देश भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं। ब्राजील ने कृषि और प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत की है, जबकि दक्षिण अफ्रीका ने अफ्रीकी महाद्वीप में आर्थिक नेतृत्व प्रदान किया है। यह आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण बहुध्रुवीयता का एक प्रमुख आधार है। (विश्व बैंक, 2024, *World Development Indicators*)।

सैन्य शक्ति का वितरण भी बहुध्रुवीयता को बढ़ावा दे रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका अभी भी विश्व में सैन्य खर्च के मामले में सबसे आगे है, लेकिन अन्य देशों ने भी अपनी सैन्य क्षमताओं को उल्लेखनीय रूप से बढ़ाया है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) के अनुसार, 2023 में चीन का सैन्य खर्च 296 बिलियन डॉलर था, जो विश्व में दूसरा सबसे बड़ा था। चीन ने अपनी नौसेना को आधुनिक बनाया है और दक्षिण चीन सागर में अपनी उपस्थिति को मजबूत किया है। रूस ने हाइपरसोनिक मिसाइलों, साइबर युद्ध और परमाणु हथियारों के आधुनिकीकरण में निवेश करके अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाया है। भारत ने भी अपनी सैन्य क्षमताओं को उन्नत किया है, जिसमें स्वदेशी रक्षा तकनीक जैसे तेजस लड़ाकू विमान और अग्नि मिसाइल प्रणाली शामिल हैं। भारत की नौसैनिक शक्ति भी हिंद महासागर में बढ़ रही है, जो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है। 

तकनीकी प्रगति और नवाचार भी इस बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), साइबर सुरक्षा, 5G प्रौद्योगिकी और अंतरिक्ष अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में कई देश अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं। चीन ने AI और 5G प्रौद्योगिकी में भारी निवेश किया है, जिससे वह वैश्विक तकनीकी नेतृत्व की दौड़ में शामिल हो गया है। हुआवेई जैसे चीनी तकनीकी दिग्गजों ने वैश्विक टेलीकॉम बाजार में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी हासिल की है। भारत ने डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इकोसिस्टम के माध्यम से तकनीकी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम, जिसमें चंद्रयान और मंगलयान जैसे मिशन शामिल हैं, ने इसे अंतरिक्ष अनुसंधान में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाया है। रूस और यूरोपीय देश साइबर युद्ध और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में अपनी क्षमताओं को बढ़ा रहे हैं। यह तकनीकी प्रतिस्पर्धा वैश्विक शक्ति को और अधिक विकेंद्रित कर रही है। 

क्षेत्रीय संगठनों की बढ़ती भूमिका भी बहुध्रुवीयता का एक महत्वपूर्ण कारक है। यूरोपीय संघ ने व्यापार, पर्यावरण और मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर वैश्विक नेतृत्व प्रदान किया है। यूरोपीय संघ की एकल बाजार नीति और पर्यावरणीय नियमों ने वैश्विक मानकों को प्रभावित किया है। आसियान ने दक्षिण-पूर्व एशिया में आर्थिक और राजनीतिक सहयोग को बढ़ावा दिया है, जिसने इस क्षेत्र को वैश्विक व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाया है। अफ्रीकी संघ ने अफ्रीकी देशों के बीच एकता को मजबूत किया है और क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिए अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र (AfCFTA) जैसे समझौते किए हैं। ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) जैसे समूह वैश्विक आर्थिक नीतियों को प्रभावित कर रहे हैं और पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती दे रहे हैं। ब्रिक्स का न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) विकासशील देशों के लिए वैकल्पिक वित्तपोषण का स्रोत बन रहा है, जो विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे पश्चिमी-प्रभुत्व वाले संस्थानों को चुनौती देता है। (SIPRI, 2023, *Military Expenditure Database*)।

बहुध्रुवीयता के प्रभाव

बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था ने वैश्विक शासन की संरचना को गहराई से प्रभावित किया है। पहले संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन मुख्य रूप से पश्चिमी देशों के प्रभाव में थे। अब, उभरते हुए देश जैसे चीन और भारत इन संगठनों में अपनी भूमिका बढ़ा रहे हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग को और मजबूत किया है, जो वैश्विक शासन में अधिक समावेशी प्रतिनिधित्व की आवश्यकता को दर्शाता है। हालांकि, यह बदलाव चुनौतियों के बिना नहीं है। बहुध्रुवीयता ने वैश्विक शासन को अधिक जटिल बना दिया है, क्योंकि विभिन्न देशों के हितों और प्राथमिकताओं को संतुलित करना कठिन हो गया है। उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों पर सहमति बनाना अब पहले से कहीं अधिक जटिल है। विकसित देश कार्बन उत्सर्जन में कमी की मांग करते हैं, जबकि विकासशील देश आर्थिक विकास को प्राथमिकता देते हैं, जिससे समझौते में देरी होती है। 

क्षेत्रीय स्तर पर, बहुध्रुवीयता ने संघर्ष और सहयोग दोनों को बढ़ावा दिया है। दक्षिण चीन सागर में चीन और अन्य देशों, जैसे वियतनाम और फिलीपींस, के बीच तनाव बढ़ा है। चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं और सैन्य उपस्थिति ने इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन को प्रभावित किया है। दूसरी ओर, चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव ने कई देशों को आर्थिक रूप से जोड़ा है, जिससे बुनियादी ढांचे और व्यापार में सहयोग बढ़ा है। हालांकि, इस पहल की आलोचना भी हुई है। कुछ देश, जैसे श्रीलंका और पाकिस्तान, इसे "ऋण जाल дипломати" के रूप में देखते हैं, जहां छोटे देश भारी ऋण के बोझ तले दबकर चीन के प्रभाव में आ सकते हैं। यह स्थिति बहुध्रुवीयता की दोहरी प्रकृति को दर्शाती है, जहां सहयोग और प्रतिस्पर्धा एक साथ मौजूद हैं। 

आर्थिक दृष्टिकोण से, उभरते देशों की प्रगति ने वैश्विक व्यापार और निवेश के नए अवसर पैदा किए हैं। भारत और चीन जैसे देशों ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी स्थिति मजबूत की है। भारत का डिजिटल अर्थव्यवस्था में विकास, विशेष रूप से यूपीआई (यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस) जैसे नवाचारों ने इसे वैश्विक डिजिटल व्यापार में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाया है। हालांकि, यह प्रगति व्यापार युद्धों और आर्थिक प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ावा दे रही है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को प्रभावित किया है, जिसके परिणामस्वरूप टैरिफ युद्ध और व्यापारिक बाधाएं बढ़ी हैं। यह स्थिति वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता को बढ़ाती है, जो विशेष रूप से छोटे और मध्यम आकार के देशों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकती है। 

भारत की भूमिका

भारत बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अपनी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, सैन्य आधुनिकीकरण और तकनीकी प्रगति के साथ, भारत वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति को मजबूत कर रहा है। भारत की विदेश नीति रणनीतिक स्वायत्तता के सिद्धांत पर आधारित है, जिसके तहत वह किसी एक महाशक्ति के साथ पूर्ण गठबंधन करने के बजाय सभी देशों के साथ संतुलित संबंध बनाए रखता है। उदाहरण के लिए, भारत ने क्वाड गठबंधन (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत) के माध्यम से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति को मजबूत किया है, जो चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने का प्रयास है। साथ ही, भारत ने रूस के साथ अपने ऐतिहासिक संबंधों को बनाए रखा है, विशेष रूप से रक्षा और ऊर्जा क्षेत्रों में। भारत और रूस के बीच S-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली का सौदा इस संबंध का एक उदाहरण है। 

भारत की सौर गठबंधन और डिजिटल इंडिया जैसी पहलें वैश्विक नेतृत्व की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। सौर गठबंधन ने नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत को एक वैश्विक नेता के रूप में स्थापित किया है, जो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक प्रयासों में योगदान देता है। डिजिटल इंडिया ने भारत को डिजिटल अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाया है, जिसने डिजिटल समावेशिता और तकनीकी नवाचार को बढ़ावा दिया है। 

हालांकि, भारत की भूमिका बिना चुनौतियों के नहीं है। आलोचकों का मानना है कि भारत को अपनी आंतरिक चुनौतियों, जैसे गरीबी, बेरोजगारी और बुनियादी ढांचे की कमी, पर अधिक ध्यान देना चाहिए। ये समस्याएं भारत की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को सीमित कर सकती हैं। इसके अलावा, भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की नीति को कुछ लोग अनिर्णय के रूप में देखते हैं, क्योंकि यह उसे किसी एक वैश्विक गठबंधन के साथ पूरी तरह से जुड़ने से रोकता है। फिर भी, यह नीति भारत को विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच संतुलन बनाने में सक्षम बनाती है, जो बहुध्रुवीय विश्व में एक महत्वपूर्ण रणनीति है। (जयशंकर, एस., 2020, *The India Way: Strategies for an Uncertain World*, हार्पर कॉलिन्स)।

भविष्य की संभावनाएं

भविष्य में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था और अधिक स्पष्ट होगी। यह व्यवस्था अवसरों और चुनौतियों का एक जटिल मिश्रण प्रस्तुत करेगी। वैश्विक समुदाय को जलवायु परिवर्तन, महामारी, आतंकवाद और साइबर सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सहयोग करना होगा। हालांकि, विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच हितों का टकराव इस सहयोग को कठिन बना सकता है। उदाहरण के लिए, जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक समझौतों को लागू करने में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद बाधा बन सकते हैं। विकसित देश ऐतिहासिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदारी लेने से बचते हैं, जबकि विकासशील देश विकास के लिए अधिक समय और संसाधनों की मांग करते हैं। 

क्षेत्रीय शक्तियों का उदय भी भविष्य में वैश्विक शक्ति संरचना को प्रभावित करेगा। अफ्रीका, अपनी युवा जनसंख्या और प्राकृतिक संसाधनों के कारण, भविष्य में एक महत्वपूर्ण शक्ति केंद्र बन सकता है। अफ्रीकी महाद्वीपीय मुक्त व्यापार क्षेत्र जैसे समझौते अफ्रीकी देशों को आर्थिक रूप से एकजुट कर सकते हैं। लैटिन अमेरिका और दक्षिण एशिया भी वैश्विक मंच पर अपनी उपस्थिति बढ़ा सकते हैं। हालांकि, इन क्षेत्रों में आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता जैसी चुनौतियां इस प्रक्रिया को धीमा कर सकती हैं। 

तकनीकी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा भी भविष्य की शक्ति संरचना को आकार देगी। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, साइबर सुरक्षा और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में निवेश बढ़ रहा है। ये क्षेत्र न केवल आर्थिक विकास को बढ़ावा देंगे, बल्कि सैन्य और रणनीतिक शक्ति को भी प्रभावित करेंगे। उदाहरण के लिए, साइबर युद्ध ने परंपरागत युद्ध के स्वरूप को बदल दिया है। देश अब साइबर हमलों के माध्यम से एक-दूसरे की अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचा सकते हैं। अंतरिक्ष में उपग्रहों और अंतरिक्ष मिशनों की दौड़ भी नई प्रतिस्पर्धा को जन्म दे रही है। 

आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो, बहुध्रुवीयता वैश्विक व्यवस्था को अधिक समावेशी बना सकती है, लेकिन यह अनिश्चितता और अस्थिरता को भी बढ़ा सकती है। एकध्रुवीय व्यवस्था में निर्णय लेना अपेक्षाकृत आसान था, क्योंकि एक महाशक्ति प्रमुख भूमिका निभाती थी। बहुध्रुवीय व्यवस्था में, विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच सहमति बनाना कठिन हो सकता है, जिससे वैश्विक समस्याओं का समाधान जटिल हो सकता है। इसके अलावा, छोटे और मध्यम आकार के देश इस नई व्यवस्था में खुद को असुरक्षित महसूस कर सकते हैं, क्योंकि वे बड़े शक्ति केंद्रों के बीच संतुलन बनाने में कठिनाई का सामना कर सकते हैं। बहुध्रुवीयता में क्षेत्रीय संघर्षों की संभावना भी बढ़ सकती है, क्योंकि विभिन्न देश अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश करेंगे। 

निष्कर्ष

वैश्विक शक्ति संरचना का बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ना एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है। आर्थिक, सैन्य और तकनीकी शक्ति का विकेंद्रीकरण, क्षेत्रीय संगठनों की बढ़ती भूमिका और उभरते देशों का उदय इस बदलाव के प्रमुख कारक हैं। भारत जैसे देश इस नई व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन उन्हें अपनी आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना करना होगा। बहुध्रुवीयता वैश्विक सहयोग के नए अवसर प्रदान करती है, लेकिन यह संघर्ष और अनिश्चितता को भी बढ़ा सकती है। भविष्य में, वैश्विक समुदाय को इन चुनौतियों का सामना करने और अवसरों का लाभ उठाने के लिए मिलकर काम करना होगा। यह आवश्यक है कि देश अपने राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ वैश्विक हितों को भी प्राथमिकता दें, ताकि एक स्थिर और समावेशी विश्व व्यवस्था का निर्माण हो सके। 

संदर्भ सूची

1. हंटिंगटन, सैमुएल पी. (1996), *The Clash of Civilizations and the Remaking of World Order*, साइमन एंड शूस्टर।  
2. विश्व बैंक (2024), *World Development Indicators*।  
3. SIPRI (2023), *Military Expenditure Database*।  
4. जयशंकर, एस. (2020), *The India Way: Strategies for an Uncertain World*, हार्पर कॉलिन्स।

संपर्क : महेश सिंह, mahesh.pu14@gmail.com

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भारतीय सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर अनगिनत प्रेम कहानियाँ उभरीं, उनमें से कुछ कल्पना की उड़ान थीं तो कुछ वास्तविक जीवन की मार्मिक गाथाएँ। मगर इन सबमें एक ऐसी प्रेम कहानी भी है जो समय के साथ फीकी पड़ने के बजाय और भी चमकदार होती गई, वह है 'मधुबाला और दिलीप कुमार की प्रेम कहानी।' यह सिर्फ दो सितारों का रिश्ता नहीं था, बल्कि दो असाधारण प्रतिभाओं और दो नितांत विपरीत व्यक्तित्वों के बीच पनपा ऐसा प्रेम था, जो अपने अधूरेपन के कारण आज भी सिनेमाई किंवदंतियों में शुमार है।   चित्र : गूगल से साभार आज के दौर में जब बॉलीवुड के रिश्ते क्षणभंगुर होते दिखते हैं, तब मधुबाला और दिलीप कुमार का नौ साल लंबा प्रेम संबंध, अपनी गहराई और मार्मिकता के कारण और भी विशिष्ट प्रतीत होता है। यह 1951 की बात है, जब फिल्म 'तराना' के सेट पर नियति ने उन्हें करीब ला दिया। उस समय, दिलीप कुमार को 'ट्रेजेडी किंग' के नाम से जाना जाता था। वे अपनी संजीदा अदाकारी, गहन व्यक्तित्व और पर्दे पर उदासी को साकार करने की अनूठी क्षमता के लिए मशहूर थे। उनका शांत स्वभाव और विचारों में डूबी आँखें उन्हें दर्शकों के बीच एक ...

निराला : आत्महन्ता आस्था और दूधनाथ सिंह

कवि-कथाकार और आलोचकीय प्रतिभा को अपने व्यक्तित्व में समोये दूधनाथ सिंह एक संवेदनशील , बौद्धिक , सजगता सम्पन्न दृष्टि रखने वाले शीर्षस्थ समकालीन आलोचक हैं। आपके अध्ययन-विश्लेषण का दायरा व्यापक और विस्तीर्ण है। निराला साहित्य के व्यक्तित्व के विविध पक्षों और उनकी रचनात्मकता के सघन अनुभव क्षणों  का गहरा समीक्षात्मक विश्लेषण आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘ निराला: आत्महन्ता आस्था ’’ (1972) में किया है।             दूधनाथ सिंह जी सर्वप्रथम पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता को विवेचित करते हुए लिखते हैं कि कला और रचना के प्रति एकान्त समर्पण और गहरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर ‘‘ घनी-सुनहली अयालों वाला एक सिंह होता है , जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंहवृत्ति के कारण वह कभी भी इस खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है- चारों ओर से अपनी नजरें समेटे , एकाग्रचित्त , आत्ममुख , एकाकी और कोलाहलपूर्ण शान्ति में जूझने और झपटने को तैयार।...... इस तरह यह एकान्त-स...