मध्य रात्रि का समय रहा होगा और मैं उसकी निस्तब्धता में सोया था। तभी एक धुँधली-सी आकृति मेरे सामने उभरती है। धोती-कुर्ता पहने, आँखों में गहरी संवेदना और चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान लिए कोई व्यक्ति कुछ कह रहा है। आवाज़ कुछ जानी-पहचानी लगी मानों बरसों से सुनता रहा हूँ। उन्होंने कहा, ‘आजकल का जमाना भी अजब है! कभी-कभी मन में विचार आता है कि क्या यह वही धरती है, वही मनुष्य हैं, जिनके बीच हमने अपनी कलम चलाई, जिनके सुख-दुख को अपनी कहानियों में पिरोया?’
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चित्र : गूगल से साभार |
मैं चौंका, क्योंकि सब कुछ जाना-पहचाना और स्वाभाविक-सा लगा। यह तो मुंशी प्रेमचंद हैं! ठीक मेरे सामने, मुझसे बातें करते हुए।
‘देखो बेटा’, उन्होंने अपनी बात जारी रखी, ‘एक समय था- जीवन की डगर कितनी सीधी-सादी थी और गाँव की धूल-भरी पगडंडियों पर चलते हुए कितना सुकून मिलता था। ज़रूरतें कम थीं और मन में एक स्थायी सन्तोष था। उस वक़्त आदमी का मोल उसकी हैसियत से नहीं, उसके भीतर के इंसान से था, उसकी ईमानदारी से था, उसके पड़ोसियों के साथ उसके व्यवहार से था, न कि उसके पास कितनी दौलत है या कितने चमकते कपड़े पहनता है, इस बात से। यह सब आजकल की इस चकाचौंध भरी दुनिया से कोसों दूर की बात है, यहाँ तो हर चीज़ को पाने की एक ऐसी अंधी दौड़ शुरू हो गई है, जिसका कोई अंत नहीं दिखता।’
उनकी आँखों में होरी और हल्कू की तस्वीरें तैरने लगीं। ‘हमारे समय में होरी जैसे किसान थे’। वे बोले, ‘जो सारी उम्र एक गाय को दान करने के सपने में जीते थे। उनका सपना कोई महलों का नहीं था, न सोने-चाँदी के अंबार का। वह तो बस एक किसान के लिए आत्म-सम्मान का प्रतीक था, अपने बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी का था और अपनी मेहनत का फल देखने की एक छोटी-सी चाहत का। होरी और हलकू पास भले ही धन की कमी थी, पर मन की अमीरी थी। वे अपनी ज़मीन से जुड़े थे, अपनी परंपराओं से बँधे थे और गाँव के आत्मीय रिश्तों में उनका जीवन साँस लेता था। सुख-दुख में लोग एक-दूसरे का हाथ थामते थे। पंचायतें न्याय करती थीं। हालाँकि उस समय शोषण का दानव सिर उठाए खड़ा था, पर आदमी की आत्मा में नैतिक बल बना रहता था। ‘पूस की रात’ में हल्कू ठंड से ठिठुरता जरूर है, पर उसकी आत्मा में संतोष की भावना थी, क्योंकि वह अपनी मेहनत से जीता था। ‘ईदगाह’ का हामिद अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदकर जो खुशी पाता था, वह आज के बच्चों के महंगे खिलौनों में कहाँ मिलती है? यह सब इसलिए था क्योंकि उस वक़्त जीवन का पैमाना बाहरी चमक-दमक नहीं, बल्कि भीतर की शांति और संबंधों की पवित्रता थी।’
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चित्र : गूगल से साभार |
उन्होंने एक गहरी साँस ली और अतीत की यादों में खोते चले गए। ‘उस सादगी भरे जीवन के भीतर भी हमने शोषण और अन्याय को देखा। ज़मींदारी प्रथा का कहर, महाजनों की सूदखोरी का जाल, जातिगत भेदभाव की गहरी जड़ें और महिलाओं की बेबसी– ये सब हमारे समाज की कड़वी सच्चाइयाँ थीं। लेकिन इन संघर्षों के बीच भी, हमारे पात्रों में नैतिक दृढ़ता और ईमानदारी की भावना बनी रहती थी। वे भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल नहीं थे, बल्कि अपनी मानवीय गरिमा और नैतिक मूल्यों को बचाने के लिए संघर्ष करते थे। सादा जीवन अक्सर गरीबी की मजबूरी होती है, पर इसके भीतर एक सांस्कृतिक और नैतिक समृद्धि भी थी जो आज के समाज में दुर्लभ है। उस वक़्त आदमी का पेट तो भरता ही था, मन भी भर जाता था। लेकिन आज तो पेट भरता है, पर मन कभी नहीं भरता। असल में बाज़ार ने पेट भरने के साथ-साथ मन को भी एक अथाह खाई बना दिया है।’
सहसा, उनकी आवाज़ में व्यंग्य की एक तीखी धार दिखाई देने लगी। ‘पर अब तो हवा ही बदल गई है। जैसे कोई जादूगर आया हो और उसने पूरी दुनिया को ही पलट दिया हो। 1991 के बाद से, जब बाज़ार के दरवाजे खुले, तब से तो देश का रंग-रूप ही बदल गया और दुनिया ग्लोबल हो गयी। 'आर्थिक उदारीकरण' नाम की बला ने हर आदमी के मन में 'अधिक' की चाहत का बीज बो दिया है। आज आदमी की ज़रूरतें आसमान छू रही हैं, और हर चीज़ को पाने की एक ऐसी अंधी दौड़ शुरू हो गई है, जिसका कोई अंत नहीं दिखता।
यह जो नया 'उपभोक्तावाद' का रोग फैला है, इसने आदमी के मन में एक अजीब-सी बेचैनी भर दी है। पहले लोग अपनी ज़रूरतें पूरी करते थे, अब तो ज़रूरतें पैदा की जाती हैं। बाज़ार में हर रोज़ कोई न कोई नई चीज़ आ जाती है। और विज्ञापन की माया ऐसी है कि आदमी को लगता है, अगर उसके पास वह चीज़ नहीं है, तो उसका जीवन अधूरा है, वह समाज में पिछड़ा हुआ है। हिंदुस्तान में ‘फेयर एंड लवली’ को आये लगभग पच्चीस साल हो गए लेकिन अभी भी लोग काले और साँवले ही दिखते हैं।
आदमी का मोल आजकल उसके पास मौजूद चीज़ों से आँका जाता है। कौन-सा नया फ़ोन है उसके पास, कितनी महंगी गाड़ी चलाता है, किस ब्रांड के कपड़े पहनता है; इन्हीं सब से उसकी हैसियत तय होती है। पहले लोग अपने चरित्र से जाने जाते थे, अब अपनी संपत्ति से। इस दौड़ में आदमी इतना अंधा हो गया है कि उसे अपने आसपास के लोगों की भी सुध नहीं रहती। रिश्ते भी अब बाज़ार के तराजू पर तौले जाते हैं। लोग एक-दूसरे से अपनी हैसियत के हिसाब से जुड़ने लगे हैं। बच्चों को भी अब खिलौनों से ज़्यादा गैजेट्स की चाहत है। और तो और प्रेम का इज़हार भी अक्सर महंगे तोहफों से होता है, न कि सच्चे दिल से। यह 'उपयोग करो और फेंको' की संस्कृति ने पुराने मूल्यों को मिट्टी में मिला दिया है, जहाँ चीज़ों को सहेज कर रखा जाता था। अब तो हर कुछ महीनों में नया फ़ोन चाहिए, हर सीज़न में नए कपड़े, और हर साल नई गाड़ी। पुरानी चीज़ें तो जैसे छूत की बीमारी हो गई हों, उन्हें देखते ही आदमी नाक-भौं सिकोड़ने लगता है।’
उनकी आवाज़ एकाएक गंभीर होती चली गयी। ‘यह 'अधिक' की चाहत ने आदमी को नैतिक रूप से भी खोखला कर दिया है। पहले ईमानदारी और सच्चाई को सबसे बड़ा धर्म माना जाता था। पर अब तो धन कमाने के लिए आदमी किसी भी हद तक जाने को तैयार है। भ्रष्टाचार, बेईमानी और धोखेबाजी आम बात हो गई है, क्योंकि हर कोई इस अंधी दौड़ में आगे निकलना चाहता है, नैतिक सीमाओं को लांघने से भी नहीं हिचकिचाता। धर्म का नाम तो जुबान पर ही रहता है, पर कर्म में अधर्म ही दिखता है। यह उस नैतिक बल के बिल्कुल विपरीत है, जिसे हमारे पात्रों ने गरीबी और शोषण के बावजूद बनाए रखा था। उन्हें पता था कि आत्मा की शांति और ईमानदारी ही असली दौलत है, पर आज तो यह बात कोई सुनता ही नहीं।’
उन्होंने निराशा में सिर हिलाया। ‘इस उपभोक्तावाद ने आदमी की खुशी भी छीन ली है। पहले सीमित साधनों में भी संतोष था, एक अजीब-सी खुशी थी। पर अब तो आदमी के पास सब कुछ है, फिर भी वह खुश नहीं है। एक चीज़ पाता है, तो दूसरी की चाहत पैदा हो जाती है। खुशी तो ऐसी चीज़ हो गई है, जो हर नई चीज़ के डिब्बे में बंद होकर आती है और खुलते ही हवा हो जाती है। यह एक ऐसी चक्की है, जिसमें आदमी पिसता रहता है और कभी उसे स्थायी खुशी नहीं मिलती। यह 'हेडोनिक ट्रेडमिल' का खेल है, जहाँ आदमी दौड़ता रहता है, पर मंज़िल कभी आती ही नहीं। मन में एक अजीब-सी बेचैनी और असंतोष हमेशा बना रहता है, क्योंकि बाज़ार हर पल नई इच्छाएँ पैदा करता रहता है, और आदमी उन इच्छाओं का गुलाम बन जाता है। इस पूँजीवादी व्यवस्था ने आदमी को एक मशीन बना दिया है, जो बस पैदा करने और खरीदने के लिए बना है।
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चित्र : गूगल से साभार |
उनकी दृष्टि अब दूर कहीं शून्य में थी। "और इस अंधी दौड़ का नतीजा केवल आदमी पर ही नहीं, इस धरती पर भी पड़ रहा है। पहले लोग प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीते थे। कम उपभोग का मतलब था कम बर्बादी और कम प्राकृतिक संसाधनों का दोहन। पर अब तो हर चीज़ को इस्तेमाल करके फेंकने की जो आदत पड़ गई है, उसने धरती को ही बीमार कर दिया है। हवा, पानी, ज़मीन – सब प्रदूषित हो रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या इस 'अधिक' पाने की चाहत का ही नतीजा है, जिसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। यह उस वक्त की सादगी के बिल्कुल विपरीत है, जहाँ प्रकृति को माँ समान पूजा जाता था, और उसके संसाधनों का सम्मान किया जाता था।’
उन्होंने गहरी साँस ली। ‘यह जो नई व्यवस्था आई है, इसने आर्थिक असमानता को भी बढ़ा दिया है। जो लोग इस उपभोग की दौड़ में शामिल हो सकते हैं, वे अपनी शान दिखाते हैं, और जो नहीं कर पाते, वे अभाव और हीनता महसूस करते हैं। यह एक ऐसा चक्र बनाता है जहाँ गरीब और हाशिए पर पड़े लोग इस बाज़ार के जाल में फंसने के लिए और भी अधिक संघर्ष करते हैं, जिससे समाज में खाई और गहरी होती जा रही है। पहले ज़मींदार और महाजन शोषण करते थे, अब तंत्र, बाज़ार और विज्ञापन शोषण करते हैं, पर नतीजा वही है – आम आदमी पिस रहा है। इसने आदमी के मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाला है। लगातार दूसरों से तुलना, सामाजिक दबाव और यह डर कि कहीं वह 'पर्याप्त' नहीं है, आदमी को तनाव, चिंता और अवसाद की ओर धकेल रहा है। अब तो आदमी को खुद से भी फुर्सत नहीं, दूसरों से क्या मिलेगा।’ हालिया दौर में कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जिसमें कुछ महिलाओं ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति की निर्मम हत्या की हैं, कहीं न कहीं उपभोक्तावाद भी इसमें जिम्मेदार है।
प्रेमचंद ने मेरी ओर देखा। उनकी आँखों में एक रहस्यमयी चमक थी, जैसे वे मुझसे कोई रहस्य साझा कर रहे हों। ‘कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या इस सब का कोई अंत है? क्या आदमी कभी इस अंधी दौड़ से बाहर निकल पाएगा? क्या उसे कभी समझ आएगा कि असली खुशी चमकती चीज़ों में नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों में, ईमानदारी में, और भीतर की शांति में है? क्या वह कभी यह जान पाएगा कि संतोष ही सबसे बड़ा धन है, और सादगी में भी सुख छिपा होता है?’
उन्होंने अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा। ‘देखो, बेटा, हमारी कहानियाँ, हमारे होरी, हलकू और धनिया, आज भी तुम्हें एक मार्ग दिखाते हैं। वे चीख-चीख कर कहते हैं कि सच्चा मूल्य चरित्र में है, ईमानदारी में है और दूसरों के प्रति सहानुभूति में है। वे तुम्हें सहजता और संतोष का पाठ पढ़ाते हैं और सिखाते हैं कि कैसे सीमित संसाधनों में भी गरिमापूर्ण जीवन जिया जा सकता है। आज शोषण का स्वरूप भले ही बदल गया हो, पर उसके खिलाफ लड़ने की प्रेरणा आज भी हमारे साहित्य में मिलती है। सामाजिक न्याय का जो सपना हमने देखा था, वह आज भी अधूरा है, और उसके लिए तुम्हें लगातार संघर्ष करना होगा।
तुम्हें आज भी सामुदायिक मूल्यों की ज़रूरत है, आपसी सहयोग की ज़रूरत है, ताकि यह पूँजीवादी उपभोक्तावाद तुम्हें अकेला न कर दे। मेरा साहित्य आज भी एक मार्गदर्शक की तरह है। यह तुम्हें एक ऐसे समाज की कल्पना करने के लिए प्रेरित करता है जहाँ आर्थिक प्रगति मानवीय मूल्यों की कीमत पर न हो। तुम्हें इस अंधी दौड़ पर विराम लगाने और अपनी वास्तविक ज़रूरतों तथा आकांक्षाओं पर विचार करने की आवश्यकता है। सादगी, संतोष, ईमानदारी और मानवीय संबंधों को पुनः स्थापित करना ही वह मार्ग है जो तुम्हें अधिक संतुलित, न्यायपूर्ण और वास्तव में खुशहाल समाज की ओर ले जा सकता है। क्योंकि सच्चा धन बैंक खातों या अलमारियों में भरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि एक समृद्ध आत्मा और एक मानवीय हृदय में निहित है। यही बात हमने अपने जीवन में सीखी थी। यह बात आज भी उतनी ही सत्य है, जितनी तब थी।’
उनकी आवाज़ धीरे-धीरे धीमी होती गई, वे भावुक थे, चिंतित भी। मैं उन्हें सम्हालने की चेष्टा करता उससे पहले ही उनकी आकृति धुँधली पड़ने लगी। मैं उन्हें पुकारना चाहा, पर आवाज़ नहीं निकली। जब मेरी आँखें खुलीं, तो कमरा शांत था, पर उनके शब्द अभी भी मेरे कानों में गूँज रहे थे।
संपर्क : महेश सिंह, mahesh.pu14@gmail.com
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