Skip to main content

साधारण से असाधारण की यात्रा : रामनगीना मौर्य की कहानियाँ

लखनऊ निवासी प्रतिष्ठित लेखक रामनगीना मौर्य ने पिछले कुछ वर्षों में ‘आखिरी गेंद’, ‘आप कैमरे की निगाह में हैं’, ‘साॅफ्ट काॅर्नर’ व ‘यात्रीगण कृपया ध्यान दें’, ‘मन बोहेमियन’, ‘आगे से फटा जूता’ एवं ‘खूबसूरत मोड़’ जैसे बेहतरीन कहानी-संग्रह पाठकों के सुपुर्द किया है। कहानीकार शिवमूर्ति के विचारानुसार-‘‘रामनगीना मौर्य आम जिन्दगी की कहानियां कहते हैं। जहां से ये अपनी कहानियों के पात्र लाते हैं, वहां तक सामान्यतः अन्य कथाकारों की निगाह नहीं पहुॅचती या फिर वे उधर निगाह डालना जरूरी नहीं समझते।...इसीलिए मैं रामनगीना मौर्य को उपेक्षित और अलक्षित जिन्दगी का विशिष्ट कथाकार कहूंगा।’’- (खूबसूरत मोड़, दूसरी आवृत्ति, पृ-7)


रामनगीना जी की कहानियां आम जीवन की छोटी-से-छोटी घटना, भाव, वस्तु तथा स्थिति को पकड़ लेती हैं तथा उनके माध्यम से जीवन के उन अनछुए पहलुओं को प्रकाशित करती हैं जिसे जिन्दगी को सरसरी नजर से जीने वाले साधारण लोग नजरअंदाज कर जाते हैं। इस मामले में आपके विषय चयन की बारीकी व अंदाज-ए-बयान की महीनता पाठक को बांधकर रख लेती है। घर-कार्यालय के साधारण क्रिया-कलाप तथा मामूली वस्तुओं को चुनते हुए आपने उस सत्य को टटोला है, जो पाठक को प्रभावित करता है, बाजारीकरण, मूल्य-वृद्धि, मध्यमवर्गीय जीवन के आर्थिक दबाव व नई पाढ़ी के साथ पुरानी पीढ़ी के विचारों के असामंजस्य को उभारने की भरसक कोशिश करता है।

अत्यन्त रोचक और मजेदार वार्तालाप के माध्यम से आपने ‘रोटेशन सिस्टम से’ कहानी में मध्यमवर्गीय आम पारिवारिक रिश्तों को खंगाला है। ये बातचीत निविड़ मध्य रात्रि को लेखक के घर में रखी डाॅयनिंग-टेबल की छः कुर्सियों के बीच हो रही है। ये कुर्सियां आपस में इस परिवार के सदस्यों की बुराई भी करती हैं और मानव प्रवृत्ति की आलोचना भी। वर्तमान बाजारीकरण के जमाने में बढ़ती कीमतों से समझौता करते हुए भारतीय अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में पिस रहा है। कहानी में दिखाया गया है कि एक डाॅयनिंग-टेबल खरीदने के लिए हम कितनी दुकानों के चक्कर काटते हैं, जिससे हमारे बजट की सीमा भी बनी रहे व वाजिब दाम में बेहतरीन चीज हाथ लग जाए। दूसरी ओर उपभोक्तावादी संस्कृति पर चोट करते हुए मौर्य जी लिखते हैं कि मध्यमवर्गीय परिवार अपनी शान बघारने के लिए डाॅयनिंग-टेबल का दिखावा करने से नहीं चूकता। कहानीकार के भाषाई जादू ने डाॅयनिंग-चेयर्स की बातचीत को बड़ा दिलचस्प बना दिया है-‘‘मालिक भी अपने दोस्तों संग साहित्य जगत में सशक्त हस्ताक्षरों की कमी, या दिनों-दिन पाठकों की कमी होते जाने का मसला हो, या साहित्य-जगत की तीखी-चटपटी, लाग-लपेट बातें हों, सब कुछ इसी डाॅयनिंग-टेबल पर ही निबटाते हैं। अभी पिछले सण्डे ही देखा होगा, इनके पड़ोसी सक्सेना जी अपने खाली प्लाॅट में काम शुरू कराने आए थे। उन्हें भी जाने क्या सूझी...गिट्टी, मौरंग, सरिया, काॅरपेण्टर, प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन आदि के बारे में उन्होंने इनसे औपचारिक पूछताछ क्या कर लिया, ये उन्हें यहीं डाॅयनिंग-टेबल तक खींच लाये। मालकिन से दो चाय बना लाने के लिए बोलते, पूरे शहर में कहां-कहां ठीक-ठाक बिल्डिंग-मैटेरियल्स और ठेकेदारों में कौन ईमानदार या ठग है, के बारे में विस्तारपूर्वक बताते, चर्चा करते, कई उदाहरण देते, बीच-बीच में दिलचस्प सुझाव भी दे दे रहे थे।’’- (कहानी संग्रह- यात्रीगण कृपया ध्यान दें, पृ-32) 

अतः मौर्य जी ने आम भारतीयों की फितरत की नब्ज पकड़ी है। साधारण परिवारों में बातचीत के ढ़र्रे को टटोला है। मेल-मिलाप, विचारों के आदान-प्रदान तथा पास-पड़ोस में अब भी बची हुई मिलनसार जीवटता को सहेजा है। कहानी में एक लेखक के स्वभाव व परिवारजनों में उसके लेखन के प्रति दृष्टिकोण को भी दर्शाया गया है। यह भाव आपकी एक और कहानी ‘नई रैक’ में पाठकों को अभिभूत कर देता है, जहां एक आम लेखक की जरूरी वस्तुओं नोट्स, कागज की कतरनों, किताबों, पुराने अखबारों, कापियों, पत्रिकाओं को रखने के लिए उसे अपने ही परिवार में खरी-खोटी सुननी पड़ती है। पर लेखक तो प्रतिबद्ध होता है, अपनी दृष्टि में भी और अपने लेखन के प्रति भी। इसीलिए उक्त कहानी का लेखक पत्नी की उलाहनाओं से परेशान होकर अपने लेखन व साहित्य से सम्बन्धित आवश्यक कागज-पत्रों को सहेजकर-समेटकर रखने के लिए पड़ोस के काॅरपेण्टर के पास एक नई रैक बनवाता है। इस लकड़ी की रैक को बनाने में उसकी काॅरपेण्टर और सामान बेचने वाले दुकानदार से हुई वार्तालाप बढ़ती हुई महंगाई की मार, मिस्त्रियों के नखरे, मध्यमवर्गीय भारतीय के हिसाब-किताब से भरी जिन्दगी का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। यही कहानी-कहन की सहज कला व लेखन का अंदाज मौर्य जी की कहानियों को अल्हदा वजूद देते हैं। एक रैक को बनवाने के लिए वह लेखक कितनी बार आगे-पीछे सोचता है, बाजारों की भाषा के चलताऊपन और ग्राहक को फंसाने-फुसलाने की तरकीब को व्यक्त करने में आपने कमाल दिखाया है। किस्सागोई के लहजे में कही गई आपकी कहानियां हमारे आस-पास मौजूद माहौल को और अधिक लेखन के दायरे में समेटती चलती हैं।

मानवीय संवेदनाओं के सूखते धरातल पर अब भी साहित्यकार की आशा जीवित है। ‘लोहे की जालियां’ कहानी में मौर्य जी ने पुराने रिश्तों, दोस्ती के मसृण तन्तुओं, परदुखकातरता तथा सहृदयता के महीन धागों को लोहे की जालियों से अधिक मजबूत दिखाया है। पुराने किराये के मकान में पांच हजार रूपये खर्च कर लगाए गए लोहे की जालियों का पैसा वसूलने के इरादे से गए लेखक को जब वहां अपने हाॅस्टल जीवन का पुराना जूनियर किरायेदार के रूप में मिलता है तो उसके इरादे पुरानी दोस्ती की यादों में धूमिल पड़ जाते हैं। एक साथ हाॅस्टल में बिताए गए दिनों की खुशनुमा यादें व एक-दूसरे की मदद में तत्पर उन दिनों की भावनाएं लेखक को कहीं भीतर तक तर-बतर कर देती हैं और वे जालियों से होने वाले उस जूनियर और उसके परिवार के लाभ को देखकर ही संतुष्ट हो जाता है। तभी तो कहानी के अंत में मौर्य जी लिखते हैंः-

‘‘जाहिर है, वो लोहे की जालियां, इंसानी रिश्तों की जंजीर से कमजोर साबित हुईं। फिर...जीवन में किसका एहसान हमें किस रूप में चुकाना पड़ जाय, कौन जानता है?’’

‘‘हां...हवा-प्रकाश के रूप में।’’

‘‘बेशक...कोट और जूतों के रूप में।’’

‘‘जाहिर है...लोहे की जालियों के रूप में भी...?’’- (कहानी संग्रह- साॅफ्ट काॅर्नर, पृ- 50)

उल्लेखनीय है कि लेखक ने अपने जूनियर को यह नहीं बताया कि ये लोहे की जालियां उन्होंने लगवाईं थीं, बल्कि जब उन्होंने देखा कि उन जालियों से उसे काफी आराम मिल रहा है तो वे गद्गद हो गए। मौर्य जी मानते हैं कि आज भी व्यावसायिक मनोवृत्ति, रूपये-पैसे के लिए भागने वाली जिन्दगी में मानवीय मूल्यों, परोपकार व निःस्वार्थ मित्रता के लिए कहीं जगह बची है।

आपकी कहानियों जैसे, ‘आप कैमरे की निगाह में हैं’, ‘पत्ता टूटा डाल से’, ‘आखिरी गेंद’, ‘फुटपाथ पर जिन्दगी’ आदि में भी आम जीवन में उपयोग आने वाली वस्तुओं के जरिये छीजते हुए संवेदनात्मक मूल्यों एवं अंतर्विरोधों को स्वर दिया गया है। आपकी ‘ग्लोब’ कहानी में वर्तमान समय में इंटरनेट, मोबाइल, लैपटाॅप में सिमटे हुए जीवन में दो पीढ़ियों के वैचारिक अंतर को दर्शाया गया है। पिछली पीढ़ी के लिए ग्लोब के माध्यम से दुनिया को देखने-बूझने का दृष्टिकोण निर्मित होता था। तब बड़ों के आदेशों के समक्ष मुंहजोरी करने का दुस्साहस जुटाना शायद भारी पड़ता था। वहीं वर्तमान पीढ़ी की हथेली में रखे मोबाइल व इंटरनेट ने उसकी हर जिज्ञासा को बड़ी आसानी से संतुष्ट कर दिया है। उसे उच्चाकांक्षी, अति आत्मविश्वासी व उत्साही बनाया है, तथा पुरानी पीढ़ी को फेसबुक, व्हाट्सएप, सोशल-मीडिया तथा बैंक के कामकाज, गैस की बुकिंग से लेकर रेलवे व अन्य रोजमर्रा के जीवन में मोबाइल की तकनीक को समझने के लिए नई पीढ़ी के समक्ष हथियार डालने पड़ते हैं। ये घर-घर की कहानी है। साथ ही लेखक दिखाते हैं कि वर्तमान पीढ़ी की परवरिश ने भी कहीं-न-कहीं उसकी सोच को प्रभावित किया है-‘‘कहां हमारी लौकी, बैगन, भिंडी, तरोई, कुंदरू, टिण्डा, देशी घी खाने वाली पीढ़ी और कहां ये पिज्जा-बर्गर, प्रोसेस्ड-फूड, नूडल्स और रिफाइण्ड तेलों से बने पदार्थ आदि खाने वाली पीढ़ी? भला क्या मुकाबला हमारा-इनका?’’- (कहानी संग्रह- साॅफ्ट काॅर्नर, पृ- 91)

कार्यालयीय जीवन की बारीकियों व मनोवृत्तियों को दर्शाते हुए आपने ‘बेकार कुछ भी नहीं होता’ कहानी बुनी है। इसमें ऑफिस के गेट पर पड़े दो पेंचों व बिना ढ़क्कन के पेन को उठाकर लाने वास्ते बाबू ने उनका सदुपयोग किया है। वास्तव में कहीं-न-कहीं लेखक द्वारा भारतीय जीवन में हर छोटी-से-छोटी वस्तु की उपयोगिता तथा बेकार समझी जाने वाली अति-साधारण वस्तुओं को सहेजकर चलने की मनेावृत्ति के लाभ को दिखाया है। मौर्य जी की कहानियों के विषय में साहित्यकार सुषमा मुनीन्द्र का कहना है कि ‘‘कहानियों में वे छोटे-छोटे विषय, उपादान, घटनाएं, हाशिये, दिनचर्या, परिवेश, चारीत्रिक बोध, धरातल, स्थानीयता, मनोविज्ञान, जरूरतें हैं, जहां आमतौर पर रचनाकारों की दृष्टि नहीं जाती या वे इन स्थितियों को कहानी के काबिल नहीं मानते।...रामनगीना मौर्य की कहानियों का स्वरूप अलग होता है, क्योंकि नामालूम-सी चीजों को कल्पना और सम्प्रेषण से अच्छा कथ्य बना देते हैं।...रामनगीना मौर्य कहानियों के अन्त में जो ट्विस्ट लाते हैं, वह कहानी के उद्देश्य को भली प्रकार स्पष्ट कर देता है।’’- (यात्रीगण कृपया ध्यान दें- दूसरी आवृत्ति, पृ-140) मौर्य जी के पाठक दैनन्दिन जीवन से चुने गए कहानियों के चरित्र से आसानी से रिलेट कर लेते हैं।

‘खूबसूरत मोड़’ कहानी संग्रह में परमानंद दास, नरोत्तम दास, सुरेन्द्र, सरन, सहाय, गुमानमल, राजन बाबू हमारे-आपके शहर, मुहल्ले, ऑफिस से निकलकर उनकी कहानियों के हिस्से बन गए हैं। उनकी कहानियां मानव-मनोविज्ञान की परतों को उघाड़ने में दक्ष हैं, और इसका श्रेष्ठ उदाहरण ‘खूबसूरत मोड़’ की रेवती खन्ना का चरित्र है। बीमार मां, अपनी तलाकशुदा जिन्दगी और पारिवारिक-आर्थिक दीनता को झेलती हुई रेवती क्यों अपने बचपन के मित्र सत्यजीत से मिलने से कतराती है, इसका खुलासा कहानी के अंत तक पहुंचते हुए पाठक के समक्ष होता है। बाल-मनोविज्ञान में अपनी पैठ बनाते हुए आपने ‘शास्त्रीय संगीत’ शीर्षक कहानी में दर्शाया है कि कई बार बच्चों को संगीत के माध्यम से चैन-सुकून मिलता है। यह कहानी संगीत-थेरेपी से रोग-निदान की संकल्पना की ओर भी इशारा करती है। इसके साथ ही मुफ्त में बढ़-चढ़कर सुझाव देने की आदत पर भी आपने भरसक व्यंग्य किया है।

निष्कर्षतः कह सकते हैं कि कहानीकार रामनगीना मौर्य जी की कहानियां आम भारतीय जीवन को आद्योपान्त निखारती हुई उसके भीतर तक पहुंचने का रचनात्मक प्रयास है। कहानियां बस, ट्रेन, ठेले, रिक्शा की यात्रा करती हैं। अखबार, पत्र-पत्रिकाओं, पेपर, पेंसिल, कम्प्यूटर, मोबाइल, लैपटाॅप, सब्जी-बाजार, सिनेमाघरों की उपयोगिता पर नजर दौड़ाती हैं। बैंकों, ऑफिसों, दुकानों, गलियों के जीवन से इत्तफाक रखती हैं। कई निर्जीव वस्तुओं के वार्तालाप से आपने जीवन के सजीव अंश को और अधिक सतर्क और सजग बनाया है। अक्सर मानव मन के हलचल, उहापोह, आशा-आकांक्षा को व्यक्त करने के लिए आपने निर्जीव वस्तुओं को कहानी में अहम भूमिका प्रदान की है। पीढ़ियों का संघर्ष दिखाने के लिए ग्लोब व कम्प्यूटर, रिश्तों की मसृणता को लोहे की जालियों, पति-पत्नी के नोंक-झोंक को डाॅयनिंग-चेयर्स व व्यावसायिक मोल-भाव को रैक के माध्यम से आपने बखूबी प्रकाशित किया है। अतः आपकी कहानियां मानवीय संवेदनाओं के साथ निर्जीव वस्तुओं की सक्रियता को भी साथ लेकर चलती हैं। आम चीजों के जरिये जिन्दगी के खास जज्बातों को बयान करने की आपकी कला पाठकों को आह्लादित करती है। डॉ. नीलोत्पल रमेश ने लिखा है कि ‘‘कथाकार रामनगीना मौर्य ने पाठकों को यह ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि कहानी के लिए किसी विषयवस्तु का होना जरूरी नहीं है, बल्कि दैनिक क्रिया-कलापों के बीच में आए प्रसंगों पर भी कहानी लिखी जा सकती है। कथाकार ने निर्जीव वस्तुओं में संवाद करवाकर एक नई राह की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है।’’- (यात्रीगण कृपया ध्यान दें- दूसरी आवृत्ति, पृ-144)

समीक्षक  : 
डॉ. रेशमी पांडा मुखर्जी,
एसोसिएट प्रोफेसर, गोखले मेमोरियल गल्र्स काॅलेज, कोलकाता,
2-ए, उत्तर पल्ली, सोदपुर, कोलकाता- 700110,
मोब. नम्बर-9433675761


Comments

Popular posts from this blog

हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ

सारांश : इस शोधालेख के माध्यम से हिंदी साहित्य इतिहास लेखन के दौरान उत्पन्न होने  वाली समस्याओं को विश्लेषित किया गया है। बीज शब्द : साहित्यिक , पुनर्लेखन , इतिहास , गौरवान्वित , अकादमिक , प्रशासनिक , सृजनात्म-        कता , समावेश , सार्थकता , आकांक्षा , ऐतिहासिक , प्रतिबिंब , सामंजस्य , चित्तवृति , कालांतर , संकलन , आंकलन , आह्वान , स्वच्छंदतावाद। आ ज हिन्दी साहित्यिक विद्वानों और आलोचकों के बीच हिन्दी साहित्य पुनर्लेखन की समस्या का मुद्दा देखने-सुनने को मिल जाता है। इस समस्या का फलक इतना विस्तृत है कि इसे किसी लेख में बाँधना कठिन है। इसके पुनर्लेखन की समस्या पर विचार करने से पूर्व हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि इतिहास वास्तव में होता क्या है ? साहित्यिक विद्वानों के इतिहास के संदर्भ में किस प्रकार के मत हैं ? अब तक इतिहास लेखन में किन-किन समस्याओं को देखने-समझने का प्रयास किया गया है। इसे लिखने की आवश्यकता क्यों है ? क्या यह साहित्य के लिए उपयोगी है ? इतिहास लेखन में किस प्रकार की सतर्कता बरतनी चाहिए ? किन-किन ऐतिहासिक तत्वों को जोड़ने या घटाने पर हिन्दी साहित्यिक इति

नैतिकता के सवाल और एकेडमिया

स भी प्राणियों में मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसके पास सोचने-समझने और बुद्धि के उपयोग की अधिक क्षमता है। यही वजह है कि वह निरंतर जीवन की बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता है। इसी प्रयास में वह तमाम अन-सुलझे सवालों का जवाब ढूंढता है। सवालों का संबंध चेतना से है और चेतना तभी आती है जब हम चिंतन करते हैं , चिंतन भी तभी संभव है जब अध्ययन की लालसा हो या सही मौका मिले और सही मौका तभी मिल सकता है जब सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक हो , लोकतंत्र भी वहीं हो सकता है जहाँ नैतिकता जीवित रहे। असल में नैतिकता मनुष्य का वह स्वाभाविक गुण है जिससे मनुष्य स्वयं के प्रति उत्तरदायी होता है। दुनिया के तमाम संगठनों , संस्थानों और समुदायों की भी नैतिकता तय की जाती है , अपने आप में यह एक आदर्श स्थिति है। इसी आदर्श के दायरे में व्यक्ति , समाज , समुदाय , संगठन और संस्थानों को रहना होता है। नैतिकता के दायरे में ही सभी नियम या कानून तैयार किये जाते हैं। हालाँकि , नैतिकता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो हर परिस्थिति में उसके साथ रहती है , लेकिन कई बार मनुष्य की दूसरी प्रवृतियाँ इसे अपने अधिपत्य में ले लेती हैं। नतीजतन , लोभ , भय औ

उनकी टांग

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सुनीं थीं। टी. वी. पर धारावाहिक भी देखा और अनुमान भी लगाया कि राजा विक्रमादित्य अपने सिंहासन पर बैठे कैसे लगते होंगे ? लेकिन मेरी यह कल्पना तब साकार हुई , जब विद्यालय से घर पहुँचा ही था कि जेब में पड़ा फोन कँपकँपा उठा , मैं तो समझा कि शायद दिल में कंपन हो रहा है , लेकिन अगले ही पल हाथ स्वयं ही जेब में पहुँच गया और मैंने फोन निकालकर देखा कि किसका फोन है ? फोन श्रीमती जी का था इसलिए उसे काटने या अवाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था , तुरन्त आज्ञाकारी पति की होने का फर्ज़ निभाते हुए फोन अटेण्ड किया। हैलो कहने से पहले ही आकाशवाणी की तरह फोन से आवाज़ आई , “ घर में हो तो तुरन्त बाहर आ जाओ ” । मेरे ‘ क्या हुआ ’ पूछने से पहले ही फोन कट गया। बहरहाल मैं तुरन्त ही बाहर गया , पर मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा जिससे चौंका जाए। इधर और उधर से रिक्शे , मोटरसाइकिल और पैदल लोगों के साथ लोग अपने दैनिक कार्यों में लगे हुए थे। आवारा कुत्ते सड़क किनारे छाँव में सुस्ता रहे थे और कुछ पिल्ले यहाँ-वहाँ चहलकदमी कर रहे थे।             मैंने सड़क के दोनों ओर देखा , कुछ नहीं है मन में बुदबुदाया

एक आदिवासी भील सम्राट ने प्रारंभ किया था ‘विक्रम संवत’

-जितेन्द्र विसारिया जैन साहित्य के अनुसार मौर्य व शुंग के बाद ईसा पूर्व की प्रथम सदी में उज्जैन पर गर्दभिल्ल (भील वंश) वंश ने मालवा पर राज किया। राजा गर्दभिल्ल अथवा गंधर्वसेन भील जनजाति से संबंधित थे,  आज भी ओडिशा के पूर्वी भाग के क्षेत्र को गर्दभिल्ल और भील प्रदेश कहा जाता है। मत्स्य पुराण के श्लोक के अनुसार :           सन्तैवाध्रा  भविष्यति दशाभीरास्तथा नृपा:।           सप्तव  गर्दभिल्लाश्च  शकाश्चाष्टादशैवतु।। 7 आंध्र, 10 आभीर, 7 गर्दभिल्ल और 18 शक राजा होने का उल्लेख है। 1 पुराणों में आन्ध्रों के पतन के पश्चात् उदित अनेक वंश, यथा (सात श्री पर्वतीय आन्ध्र (52 वर्ष), दस आभीर (67 वर्ष) सप्त गर्दभिल्ल (72 वर्ष) अठारह शक (183 वर्ष) आठ यवन (87 वर्ष) इत्यादि सभी आन्ध्रों के सेवक कहे गये हैं। इन राजवंशों में सप्त गर्दभिल्लों का उल्लेख है। जैनाचार्य मेरुतुंग रचित थेरावलि में उल्लेख मिलता है कि गर्दभिल्ल वंश का राज्य उज्जयिनी में 153 वर्ष तक रहा। 2 'कलकाचार्य कथा' नामक पाण्डुलिपि में वर्णित जैन भिक्षु कलकाचार्य और राजा शक (छत्रपति शिवाजी महाराज वस्तु संग्रहालय, मुम्बई) (फोटो : विकि

'प्रेमचंद का भारत' विषय पर टी.डी.बी. कॉलेज, रानीगंज में हुआ एकदिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन

प्रेमचंद जी की 144वीं जयंती के अवसर पर दिनांक- 31.07.2024, को त्रिवेणी देवी भालोटिया कॉलेज, रानीगंज हिन्दी विभाग एवं IQAC के संयुक्त तत्वाधान में एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी (प्रेमचंद का भारत) का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरूआत सर्वप्रथम मुंशी प्रेमचंद और कवि गुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण के साथ हुआ। संगोष्ठी का आरंभ अतिथियों द्वारा द्वीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। कार्यक्रम की शुरूआत में छठे सेमेस्टर की छात्रा खुशी मिश्रा ने 'वर दे वीणा वादिनी' वन्दना का गायन किया। तत्पश्चात बीए (ऑनर्स) प्रथम सेमेस्टर के छात्रों ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आये प्रोफेसर आशुतोष पार्थेश्वर और विशिष्ट वक्ता के रूप में डॉ. साबेरा खातून उपस्थिति रहीं। इस कार्यक्रम में कॉलेज के TIC  प्रोफेसर मोबिनुल इस्लाम, TCS अनूप भट्टाचार्य और IQAC कॉर्डिनेटर डॉ. सर्वानी बनर्जी ने कथाकार प्रेमचंद के संदर्भ में अपने-अपने विचार रखें। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता हिंदी विभाग की डॉ. मंजुला शर्मा ने किया। प्रथम सत्र का आरम्भ अपराह्ण 12:30