Skip to main content

जीवन एक बहती धारा....


समीक्षक - जसविन्दर कौर बिन्द्रा

लगातार साहित्य लेखन से जुड़ी सुधा ओम ढींगरा अपने नवीन कहानी संग्रह 'चलो फिर से शुरू करें' के साथ पाठकों के सम्मुख उपस्थित हुई हैं। लंबे समय से प्रवास में रहने के कारण सुधा जी के साहित्य में प्रवासी भारतीयों को मुखर रूप से देखा जा सकता है। उनसे जुड़े पारिवारिक रिश्तों व अन्य समस्याओं को कहानी के केंद्र में रखकर, भारत व प्रवासी संदर्भों के बीच पुल का काम भी करती है और पाठकों को वहाँ के परिवेश से परिचित भी करवाती है, जिनकी जानकारी हमें यहाँ बैठे नहीं होती। सामान्यतः भारतीयों को लगता है कि विदेशों और विशेषकर अमरीका में बसने वालों को भला कोई तकलीफ या परेशानी कैसे हो सकती है!

'वे अजनबी और गाड़ी का सफर' कहानी हमें एक ऐसे विषय से अवगत करवाती है, जिसे अक्सर फिल्मों व अंतर्राश्ट्रीय सीरियलों में देखा जाता है। दो भारतीय पत्रकार युवतियों ने एक चीनी युवती को यूरोपीय पुरुष के साथ रेलगाड़ी में जाते देखा परन्तु वह लड़की बहुत तकलीफ में प्रतीत हो रही थी। उन दोनों युवतियों ने किस होशियारी व सर्तकता से उस लड़की को ड्रग माफिया से मुक्त करवाया, वह कहानी पढ़ने से ही पता लगता है। इस कहानी को केवल 'एक्साइटिट' करने या आज के दौर की सनसनीखेज़ घटना के तौर पर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि वास्तव यह कहानी हमें अपने और अमरीकी तंत्र व पत्रकारिता के बीच के अंतर को दर्शाती है। वहाँ एक युवती पत्रकार के एक मैसेज पर सिक्योरिटी ऑफिसर्ज़ द्वारा 'हयूमन ड्रग बॉम्ब' के तहत उठायी जा रही उस चीनी लड़की को उस पूरे गैंग से मुक्त करवा लिया गया।
रेलगाड़ी अपनी गति से चलती रही, यात्री अपने-आप में व्यस्त बैठे रहें और एकदम सावधानी और सर्तकता से बिना कोई शोरगुल मचाए, हाय-तौबा किए, लड़की को बचा लिया गया, मैसेज करने वाली लड़की की तारीफ भी कर दी गई। यहाँ तक कि उसके अखबार के मुख्य संपादक को उसका प्रशंसात्मक पत्र तक भिजवा दिया गया। भारत में हमने ऐसा कभी होते देखा है, इतनी सजगता, इतनी सर्तकता, बिना देर किए कदम उठा लेना...! वास्तव में ऐसी बातें यूरोपीय व अमरीकियों से सीखनी वाली हैं, गारंटी है, जो हम कभी नहीं सीख पाएँगे।
अंधविश्वास केवल एशिया व भारत में ही सर्वोपरि नहीं, बाहर के देश भी इसके प्रभाव से मुक्त नहीं। वहाँ भी ग्रामीण क्षेत्र हमारे समान ही पिछड़े हुए, कई प्रकार के दुरावों व पाप-पुण्य के बीच उलझे हुए हैं। इसी कारण जब अगाध सुंदरी डयू स्मिथ ने गौरव मुखी को अपने जीवन के काले अतीत के बारे में बताया तो एक बार वह यकीन न कर पाया। उसे यह जानकर अत्यन्त हैरानी हुई कि डयू के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, जैसाकि किसी भी सुंदर लड़की को जवान होने पर बुरी नीयत और दुश्कर्म से गुज़रना पड़ सकता है परन्तु माँ-बाप ने अपने धर्माधिकारी के चरित्र पर संदेह न किए जाने के अपने रूढ़िवादी और अंधविश्वासी व्यवहार को निभाया। जबकि डयू उस दुश्कर्म के कारण एच आई वी वायरस की लपेट में आ गयी। अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर पहुँच गयी, उसके पास सब कुछ था परन्तु उसकी सुंदर नीली आँखें उदास बेनूर थी, जिसके पीछे का रहस्य आज गौरव को समझ में आया था। इसलिए डयू उससे शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वास्तविक जीवन में ऐसा करना संभव नहीं था। इस बीमारी का इलाज सारी उम्र करना पड़ता है। बाहर के देशों में ऐसी बीमारी के मरीज़ ज़्यादा है परन्तु इसके बाद भी वे जीवन में आगे बढ़ते हैं, समाज उन्हें उस प्रकार से नहीं दुत्कारता, जिस प्रकार का व्यवहार हमारे यहाँ परिवार व समाज द्वारा किया जाता है।
'वह ज़िन्दा है...' कहानी हस्पताल की उस वास्तविकता को दर्शाती है, जिसमें अल्ट्रासाउंड करने वाली नर्स कीमर्ली ने जब एकदम सपाट तरीके से गर्भवती कविता से कह दिया कि 'मिसेज़ सिंह युअर बेबी इज़ डेड।' ऐसा सुनते ही कविता के शरीर की गति वहीं रुक गई। फिर जो हुआ, वह बहुत ही दर्दनाक था। कविता के शरीर के गतिहीन हो जाने से मृत बच्चे को बहुत मुश्किल से उसके शरीर से बाहर निकाला गया। कविता की केवल साँसें से चल रही हैं जबकि वह अपना मानसिक संतुलन खो चुकी है क्योंकि दो बार गर्भपात हो जाने के बाद यह तीसरा मौका ही उसे माँ बना सकता था परन्तु नर्स द्वारा बिना किसी भावनात्मक अंदाज़ के, प्यार या फुसला कर कहने की बजाय सच को पत्थर की तरह उसके दिल पर दे मारा। जिसे कमज़ोर कविता सहन नहीं कर पायी। पति के कार को पार्क करके वापस आने तक के कुछ मिनटों में ही उस दंपत्ति की ज़िदगी उजड़ गयी। अब पति हस्पताल के मैनेजमेंट से मानवता की लड़ाई लड़ रहा है । उसका तर्क बस इतना ही है कि 'वह सच बोलने के खिलाफ नहीं पर सच को बोला कैसे जाए!' यह बात विदेशियों को हमसे सीखने की आवश्यकता है। कई बार भावनात्मक स्तर को सँभालने के लिए झूठ का सहारा भी लिया जा सकता है या उसे टाला जा सकता है। वास्तव में लेखिका दो भिन्न परिवेशों व परिस्थितियों को उनके दृश्टिकोणों द्वारा अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करती है। इसे तुलना न भी कहा जाए तब भी लगता है, अच्छी बात, अच्छी सलाह जहाँ से भी मिले, उसे सीख लेने में कोई बुराई नहीं। इससे आगे बढ़ने में मदद मिलती है।
'भूल-भुलैया' भी कुछ इसी प्रकार के अंतर को बयान करती है। भारतीयों के वट्सएप ग्रुपों में लगातार इस प्रकार संदेश आ रहे थे कि एशियाई लोगों को अकेले-दुकेले देख कर, अगवा कर लिया जाता है और उन्हें मॉल्स के बड़े ट्रकों में उठा ले जाकर, उनके मानवीय अंग निकाल लिए जाते है। इन संदेशों से घबरायी सुरभि ने जॉगिग करते हुए एक पार्क में उसका पीछा करते एक पुरुष-स्त्री को उसी गैंग का समझ लिया और अपने बचाव के लिए पुलिस को फ़ोन कर दिया। पुलिस ने आकर उसकी गलतफहमी दूर की कि ये सारी अफवाहें है और वे स्त्री-पुरुष उसकी सहायता के लिए उसके साथ-साथ आ रहे थे। जिस घटना के कारण ऐसी अफवाहें फैलने लगी, वह एक गलती के कारण घटी और तभी खत्म भी हो गई परन्तु उस एशियन महिला ने बात का बतंगड़ बना कर, अटेंशन लेने के लिए कुछ का कुछ बना दिया। यह कहानी केवल विदेशों में ही नहीं, कहीं भी रहते हुए ऐसे फैलने वाले और फॉरवर्ड किए जाने वाले संदेशों से सतर्क करती है। जिस डिज़ीटल मीडिया की सुख-सुविधा ने हमारा जीवन आसान किया है, उस पर बढ़ती निर्भरता हमें बेआराम करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।
भावनात्मक स्तर की बात करें तो संग्रह की बहुत सारी कहानियों में इसे प्रमुखता से देखा जा सकता है, जिसमें भारतीय पारिवारिक मूल्यों की अधिकता समायी हुई है।
'कभी देर नहीं होती' में ददिहाल के लाडले नंदी को माँ और ननिहाल के प्रभाव में आनंद में बदलना पड़ा। ननिहाल की चालाकी और तेज़-तर्रार भरे व्यवहार के कारण आनंद और उसके छोटे भाई को बचपन से ही दादा-दादी के प्यार व ममत्व भरे माहौल से दूर होना पड़ा। सब कुछ समझने के बावजूद उसके पापा ने मम्मी और ननिहाल के आगे चुप्पी साध ली ताकि बच्चों की परवरिश पर कोई बुरा असर न पड़े। जब इतने वर्षों के बाद अमरीका के एक शहर में रहते हुए उसकी बुआ ने 'नंदी' कह कर पुकारा, तो वह इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद उसी माहौल व अपनेपन से भर उठा। अंग्रेज़ी के दो शब्द हैं, जो संबंधों के लिए प्रयोग किए जाते हैं 'कनेक्ट' होना और 'रिलेशन' होना। परन्तु हम जानते हैं कि हर शब्द का अपना लहज़ा, टोन व संदर्भ तो होता ही है, उसकी अनुभूति भी अलग होती है। यहाँ कनेक्शन से अर्थ, संस्कारों से, भावनाओं से, अपने मूल से जुड़ा होना है, जिसमें वर्षों की दूरी भी कोई अर्थ नहीं रखती जबकि दूसरी ओर रिलेशनशिप में संबंध तब तक रहेगा, जब तक आप चाहें...! इसलिए रिश्तों में कनेक्शन होना चाहिए, रिलेशनशिप तो आती-जाती चीज़ है।
ऐसा ही कुछ 'चलो फिर से शुरू करें' शीर्षक कहानी में भी देखा जा सकता है। विदेशी महिला से विवाह कर पुत्र माँ-बाप से अलग हो गया। माँ-बाप ने भी उसकी गृहस्थी में दखल देना ठीक न समझ, उससे दूरी बनाना उचित समझा। परन्तु जब उन्हें किसी परिचित द्वारा मालूम हुआ कि मार्था, कुशल को तलाक देकर, बच्चों को उसके पास छोड़ कर चली गई। इतना ही नहीं, वह उसके नाम पर तीन मिलियन का कर्ज़ ले, अपनी माँ के साथ चली गयी। यदि कुशल श्वेत अमेरिकन होता तो मार्था बच्चे साथ ले जाती परन्तु भारतीय अमेरिकन पिता के बच्चों को वह कभी स्वीकार नहीं करेगी। ऐसी मुश्किल स्थिति में कुशल को भुला दिए गए माँ-बाप ही याद आए क्योंकि उसे मालूम था कि उसके माँ-बाप ने उसे कभी भुलाया नहीं होगा। इसलिए उसने अपने पिता को फ़ोन किया और उनके पास अपने बच्चों को छोड़ कर, जीवन में एक नयी शुरूआत करने का संकल्प लिया।
कॉलेज जीवन में ऐसे कई मित्र मिलते हैं, जिनसे सारी उम्र का नाता बन जाता है और कई बार ऐसी कुछ घटनाएँ भी घट जाती हैं, जिसकी कड़वाहट जीवन में घुल कर, परिवार को भी बदनाम कर देती है। 'कँटीली झाड़ी' में डिप्टी कमिश्नर की बेटी होने के घमंड में खोयी अनुभा ने कॉलेज में अपना रौब बनाए रखा। परन्तु जब उससे अधिक योग्य और सुंदर नेहा पर उसका यह रौब न चला तो उसने नेहा को बदनाम करने की कोशिश की। यहाँ तक कि शादी के बाद किसी परिचित के घर पर मिलने पर, अनुभा ने फिर से नेहा के ड्राईवर के साथ घर से भाग जाने की बात फैला कर, ससुराल में उसकी बदनामी करनी चाही। तब नेहा ने सभी को उसकी सारी सच्चाई से अवगत करवाया कि यह उसी के साथ घटा था। नेहा को समझ आ गया कि कुछ लोग इतने विषैले व कांटों भरे होते हैं कि उनसे न केवल बच कर रहना चाहिए बल्कि उन्हें उनकी औकात भी बता देनी चाहिए ताकि उनके खतरनाक कारनामों पर लगाम लग सके। इसी प्रकार कई बार पूजा व दीपक जैसे मित्र भी होते है, जिनकी शुरूआत लड़ाई से हुई हो परन्तु एक-दूसरे के संपर्क में आने और गलतफहमी दूर होने से दोनों ही एक-दूसरे के मददगार साबित हुए। परन्तु जीवन के लंबे समय में मित्र खो भी जाते हैं, फिर ऐसी स्थिति आ जाती है, जब 'कल हम कहाँ तुम कहाँ'। कोई कहीं भी रहें, मीठी याद बन कर अवश्य दिल में समाए रहते हैं। मन क्या है, इसका चेतन/अवचेतन उसे कहाँ से कहाँ पहूँचा सकता है। सदियों से इसे जानने-समझने की कोशिश धर्मग्रंथों, शास्त्रों व फिलॉसफी द्वारा की जा रही है। कई बार निकट के संबंधों को व्यक्ति सारी उम्र समझ नहीं पाता और कई बार दूर-देश में बैठे अपने बच्चों की दुख-तकलीफ को माँ-बाप अपने घर में बैठे महसूस कर, तड़पने लगते है। कई लोग, अपनों के अलावा दूसरों के दुख-दर्द या किसी आने वाले अनिष्ट को भांप लेते हैं। यह सब अबूझ पहेली समान है, जिसकी थाह पाना संभव नहीं, उस व्यक्ति के लिए भी नहीं, जिसे कुछ अप्रिय घटने का अंदेशा होने लगता है। माना जाता है कि सारा ब्रह्यांड एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है, इससे बाहर कुछ भी नहीं। इसलिए प्रकृति में कुछ भी घटने का भास, विशेषकर अप्रिय व दुखद घटने का एहसास
संसार के कुछ जीवों को होने लगता है। कुछेक मनुष्यों को ऐसी अनुभूतियों का एहसास होना उनके अपने बूते की बात नहीं होती मगर कभी-कभार ऐसा होता है। ऐसी अनुभूतियों को लेकर दो कहानियाँ इस संग्रह में शामिल है। 'इस पार से उस पार' में सांची को ऐसा कुछ का एहसास अपने बचपन से ही होने लगा। उसने जब अपने परिवार व गली-मुहल्ले में एक-दो घटनाओं के बारे में घटने से पहले ही बता दिया परन्तु उसके परिवार वालों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। बल्कि उसकी इस अनुभूति को हमेशा के लिए दबा देने की कोशिश की। बरसों बाद उसने फिर एक बार अपनी सखी अनुघा को फलां समय पर सड़क पार करने से चेतावनी देकर उसे बचा लिया।
'अबूझ पहेली' नामक कहानी की मुक्ता धीर को 9/11 के हवाई जहाज़ हादसे के दृश्य कुछ दिन पहले से ही नज़र आने लगे थे। उसे बार-बार दिखायी दे रहे इस दृश्य की समझ नहीं आ रही थी। परन्तु उसका तन-मन उदास, क्लांत और निर्जीव महसूस कर रहा था। अपने पति व बेटे को बता देने के बावजूद, उसे स्वयं पर भी यकीन हो रहा था। परन्तु वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का हादसा सच में घट गया, उसके पति व बेटे को उसकी बात पर यकीन आ गया । परन्तु इतने बरसों बाद भी मुक्ता स्वयं इस पहेली को बूझ नहीं पायी कि उसे वे दृश्य कुछ दिन पहले कैसे दिखायी देने लगे थे। वास्तव में मनुष्य विज्ञान, मेडिकल, अंतरिक्ष व तकनीकी स्तर पर कितनी भी प्रगति कर लें, प्रकृति और मन के बहुत सारे रहस्यों को समझ पाना अभी भी उसके वश की बात नहीं है।
सुधा ओम ढींगरा की सारी ही कहानियाँ उसके शीर्षक 'चलो फिर से शुरू करें' को ही सार्थक करती है। मानवीय जीवन उतार-चढ़ाव का ही नाम है। इसमें हिम्म्त रखकर, डट कर चलने वाले ही जीवन की बहती धारा को पार सकते हैं।

पुस्तक - चलो फिर से शुरू करें (कहानी संग्रह)
लेखक - सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, सीहोर, मप्र 466001
प्रकाशन वर्ष - 2024

संपर्क-
जसविन्दर कौर बिन्द्रा, आर-142, प्रथम मंज़िल
ग्रेटर कैलाश-1, नई दिल्ली- 110048
मोबाइल- 9868182835
jasvinderkaurbindra@gmail.com


Comments

Popular posts from this blog

हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ

सारांश : इस शोधालेख के माध्यम से हिंदी साहित्य इतिहास लेखन के दौरान उत्पन्न होने  वाली समस्याओं को विश्लेषित किया गया है। बीज शब्द : साहित्यिक , पुनर्लेखन , इतिहास , गौरवान्वित , अकादमिक , प्रशासनिक , सृजनात्म-        कता , समावेश , सार्थकता , आकांक्षा , ऐतिहासिक , प्रतिबिंब , सामंजस्य , चित्तवृति , कालांतर , संकलन , आंकलन , आह्वान , स्वच्छंदतावाद। आ ज हिन्दी साहित्यिक विद्वानों और आलोचकों के बीच हिन्दी साहित्य पुनर्लेखन की समस्या का मुद्दा देखने-सुनने को मिल जाता है। इस समस्या का फलक इतना विस्तृत है कि इसे किसी लेख में बाँधना कठिन है। इसके पुनर्लेखन की समस्या पर विचार करने से पूर्व हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि इतिहास वास्तव में होता क्या है ? साहित्यिक विद्वानों के इतिहास के संदर्भ में किस प्रकार के मत हैं ? अब तक इतिहास लेखन में किन-किन समस्याओं को देखने-समझने का प्रयास किया गया है। इसे लिखने की आवश्यकता क्यों है ? क्या यह साहित्य के लिए उपयोगी है ? इतिहास लेखन में किस प्रकार की सतर्कता बरतनी चाहिए ? किन-किन ऐतिहासिक तत्वों को जोड़ने या घटाने पर हिन्दी साहित्यिक इति

नैतिकता के सवाल और एकेडमिया

स भी प्राणियों में मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसके पास सोचने-समझने और बुद्धि के उपयोग की अधिक क्षमता है। यही वजह है कि वह निरंतर जीवन की बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता है। इसी प्रयास में वह तमाम अन-सुलझे सवालों का जवाब ढूंढता है। सवालों का संबंध चेतना से है और चेतना तभी आती है जब हम चिंतन करते हैं , चिंतन भी तभी संभव है जब अध्ययन की लालसा हो या सही मौका मिले और सही मौका तभी मिल सकता है जब सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक हो , लोकतंत्र भी वहीं हो सकता है जहाँ नैतिकता जीवित रहे। असल में नैतिकता मनुष्य का वह स्वाभाविक गुण है जिससे मनुष्य स्वयं के प्रति उत्तरदायी होता है। दुनिया के तमाम संगठनों , संस्थानों और समुदायों की भी नैतिकता तय की जाती है , अपने आप में यह एक आदर्श स्थिति है। इसी आदर्श के दायरे में व्यक्ति , समाज , समुदाय , संगठन और संस्थानों को रहना होता है। नैतिकता के दायरे में ही सभी नियम या कानून तैयार किये जाते हैं। हालाँकि , नैतिकता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो हर परिस्थिति में उसके साथ रहती है , लेकिन कई बार मनुष्य की दूसरी प्रवृतियाँ इसे अपने अधिपत्य में ले लेती हैं। नतीजतन , लोभ , भय औ

उनकी टांग

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सुनीं थीं। टी. वी. पर धारावाहिक भी देखा और अनुमान भी लगाया कि राजा विक्रमादित्य अपने सिंहासन पर बैठे कैसे लगते होंगे ? लेकिन मेरी यह कल्पना तब साकार हुई , जब विद्यालय से घर पहुँचा ही था कि जेब में पड़ा फोन कँपकँपा उठा , मैं तो समझा कि शायद दिल में कंपन हो रहा है , लेकिन अगले ही पल हाथ स्वयं ही जेब में पहुँच गया और मैंने फोन निकालकर देखा कि किसका फोन है ? फोन श्रीमती जी का था इसलिए उसे काटने या अवाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था , तुरन्त आज्ञाकारी पति की होने का फर्ज़ निभाते हुए फोन अटेण्ड किया। हैलो कहने से पहले ही आकाशवाणी की तरह फोन से आवाज़ आई , “ घर में हो तो तुरन्त बाहर आ जाओ ” । मेरे ‘ क्या हुआ ’ पूछने से पहले ही फोन कट गया। बहरहाल मैं तुरन्त ही बाहर गया , पर मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा जिससे चौंका जाए। इधर और उधर से रिक्शे , मोटरसाइकिल और पैदल लोगों के साथ लोग अपने दैनिक कार्यों में लगे हुए थे। आवारा कुत्ते सड़क किनारे छाँव में सुस्ता रहे थे और कुछ पिल्ले यहाँ-वहाँ चहलकदमी कर रहे थे।             मैंने सड़क के दोनों ओर देखा , कुछ नहीं है मन में बुदबुदाया

निराला : आत्महन्ता आस्था और दूधनाथ सिंह

कवि-कथाकार और आलोचकीय प्रतिभा को अपने व्यक्तित्व में समोये दूधनाथ सिंह एक संवेदनशील , बौद्धिक , सजगता सम्पन्न दृष्टि रखने वाले शीर्षस्थ समकालीन आलोचक हैं। आपके अध्ययन-विश्लेषण का दायरा व्यापक और विस्तीर्ण है। निराला साहित्य के व्यक्तित्व के विविध पक्षों और उनकी रचनात्मकता के सघन अनुभव क्षणों  का गहरा समीक्षात्मक विश्लेषण आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘ निराला: आत्महन्ता आस्था ’’ (1972) में किया है।             दूधनाथ सिंह जी सर्वप्रथम पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता को विवेचित करते हुए लिखते हैं कि कला और रचना के प्रति एकान्त समर्पण और गहरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर ‘‘ घनी-सुनहली अयालों वाला एक सिंह होता है , जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंहवृत्ति के कारण वह कभी भी इस खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है- चारों ओर से अपनी नजरें समेटे , एकाग्रचित्त , आत्ममुख , एकाकी और कोलाहलपूर्ण शान्ति में जूझने और झपटने को तैयार।...... इस तरह यह एकान्त-समर्पण एक प्रकार का आत्मभोज होता है: कला-रचना के प्रति यह अन

युवाओं के मसीहा : स्वामी विवेकानंद

भारत में न जाने कितने युवा पैदा हुए , लेकिन ऐसा क्या था उस युवा में जिसके जन्मदिन को हम ‘ युवा दिवस ’ के रुप में मनाते हैं। या यूं कहें कि उसने ऐसे कौन से कार्य किए जिससे वह आज भी हम युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। जब कोई व्यक्ति अपने समय की समस्याओं से सीधे टकराकर मानवता के लिए पथ प्रदर्शित करने का कार्य करता है तो वह चिरस्मरणीय बन जाता है। ऐसे समय में जब दुनिया हमें नकारात्मक नजरिए से देख रही थी , हम उसके लिए अशिक्षित-असभ्य थे। तब ‘ उठो जागो और लक्ष्य तक पहुंचे बिना न रुको ’ का नारा देकर भारतीय जनमानस में नवचेतना का संचार करने वाला वहीं युवा था , जिसे आगे चलकर दुनिया ने ‘ स्वामी विवेकानंद ’ के नाम से जाना।             भारतीय धर्म , दर्शन , ज्ञान एवं संस्कृति के स्वर से दुनिया को परिचित कराने वाले युवा ही हम सभी का प्रेरक हो सकता है। अपनी अपार मेधा शक्ति के चलते उसने न केवल ‘ अमेरिकी धर्म संसद ’ में अपनी धर्म-संस्कृति के ज्ञान का डंका बजाकर उसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित किया , अपितु विश्व की भारत के प्रति दृष्टि में बदलाव को रेखांकित किया। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो “ स