Skip to main content

मेरी दृष्टि में डॉ. छोटू प्रसाद 'चन्द्रप्रभ' का नवीनतम उपन्यास : बद्रीनारायण की सुहागरात

ज्योतिष विद्या को शास्त्र सम्मत माना गया है! ज्योतिष शास्त्र के अनुसार- हमारे पुर्वार्जित कर्मों का फल हमारी जीवन-यात्रा के दौरान अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएं उत्पन्न करती हैं! अनेकों ऐसे व्यक्ति जो सात्विक प्रकृति के हैं तथा जो खान-पान में संयमी हैं, और आचार-व्यवहार में भी शुद्ध हैं, परिश्रम करते हैं- उन्हें भी कष्टों का शिकार होते देखा जाता है ! उनके कार्यों में भी अड़चनें आती रहती हैं!
 
जन्मकालीन कुण्डली, प्रश्न, लग्न, तथा गोचर में ग्रहों की प्रतिकुल स्थिति द्वारा मनुष्य जीवन-यात्रा के दौरान आनेवाले कष्टों, विघ्न-बाधाओं के विषय में पूर्व अनुमान लगाकर ही- पूर्वज्ञान होने के कारण शास्त्रों में बताये गये- रत्न धारण, औषधि स्नान, व्रत-दान, यज्ञ-हवन आदि के द्वारा ग्रहशांति कर जीवन को सुखमय रखने का प्रयास करते रहे हैं! ग्रहों के कू-प्रभावों को अनुकुल करते रहे हैं!

बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि- आवश्यक उपचार करने पर भी रोग शांति नहीं होती अथवा वास्तविक रोग का निदान नहीं होता- ऐसी स्थिति में ज्योतिष शास्त्र सहायक सिद्ध होता है!

दरअसल यह एक अटल सत्य है कि- जिस दिन हमने जन्म लिया, उसी दिन हमने अपनी मृत्यु पर भी हस्ताक्षर कर दिये! जन्म लेते ही हमारे साथ हर पल इतिहास बनता हुआ चलता है! इस क्रम में कई प्रकार की घटनाएं आती-जाती रहती हैं! उन घटनाओं के बीच से गुजरता हुआ मनुष्य अंधविश्वास को ताक पर रखकर भी चलता है और अनेक लोग अंधविश्वास में उलझकर भी रह जाते हैं, और कुछ लोग उसके प्रतिकार का उपाय कर आगे बढ़ते हैं!

ज्योतिष शास्त्र की जब रचना हुई होगी, तब मानव के व्यवसाय गिने-चुने ही रहे होंगे ! कृषि, व्यापार, प्रशासन, सेना, एवं श्रमजनित कुछ अन्य व्यवसाय! उन दिनों किसी व्यक्ति का व्यवसाय बताना या ज्योतिष के आधार पर चुनाव सरल था- परन्तु बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदल चुका है! महापंडित चाणक्य ने तो- "पृथ्विव्यां त्रिणि रत्नानि सन्ति, अन्नं, जलं, सुमधुर भाषणं, परन्तु मूर्खाणां पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधियते", अर्थात् पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं- अन्न, जल, और मधुर बोली, परन्तु मूर्ख लोगों ने पत्थर के टूकड़ों को भी रत्नों की संज्ञा दे दी है", ऐसा कह दिया है; फिर भी आज फुटपाथ पर घिसटने वाले भिखारियों से लेकर बड़ी-बड़ी मोटरगाड़ियों में चलने वाले व्यापारियों, साहबों, हाकिमों के हाथों की उंगलियों में ज्योतिष शास्त्र के अनुसार विभिन्न प्रकार के रत्नों (पत्थरों) को देखा जा सकता है!

दरअसल जीवन संभावनाओं पर चलता है और यदि जीवन को हम गणित का एक पेचीदा सवाल मानें तो उसका उत्तर खोजने के लिए- मूलधन 100 या  X (एक्स) माने बिना उसे खोजा नहीं जा सकता !
 
स्पष्ट बात है कि- मनुष्य की मूल कामना अपने जीवन में 'पूर्ण सुख' की प्राप्ति ही है; जिसके लिए वह नाना प्रकार के प्रयास करता है! यहाँ तक कि वह स्वयं को बारूद के ढेर पर बिठा लेता है, जो कालान्तर में उसके ही विनाश का कारण बन जाता है!
 
मनुष्य को सदैव ही विपदाओं, आपदाओं, और आजीविका की विपन्नता ने भाग्यवादी बनने के लिए मजबूर किया है- इसका पूरा लाभ आज एक व्यापार की तरह होने लगा है, इसमें संदेह नहीं ! ज्योतिष, भूत-प्रेत, आदि बाधाओं को दूर करने के 'केन्द्र' तक के कितने ही कारखाने जगह-जगह लग गये हैं, जो मनुष्य की मजबूरी का पूरा फायदा उठाते हैं !

दूसरी ओर यह भी सत्य है कि- दुनिया कितनी भी विकसित हो जाय, ब्रह्माण्ड के प्रभाव से वह मुक्त नहीं हो सकती ! इसी का फल है कि- दैविक विपदाएं या प्राकृतिक आपदाएं बिना किसी पूर्व सूचना के वे मनुष्यों के जीवन में आ धमकती हैं; इसलिए बहुत कुछ अ-स्वीकार करने की मुद्रा में भी बहुत कुछ स्वीकार करना पड़ता है! जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना को अन्धविश्वास कहकर उसे 'ताक पर'  रखा भी नहीं जा सकता ! यदि बाधाओं का, रोगों का, निदान नहीं है- वहाँ 'मृगतृष्णा' क्यों ? किन्तु यदि उनके उपशमन का निदान है तो वहाँ आंखें मूंदना भी बुद्धिमानी नहीं ! जहाँ बहुत बड़ी विवशता है- वहाँ शांति तो खोजी जा सकती है ! अंधविश्वास को ताक पर रख देना चाहिए! आपका विवेक आपके पास है, वहाँ केवल आपकी पहुँच है- इसलिए जीवन की कठिनाइयों का एक सामर्थ्यवान व्यक्ति बनकर सामना करना ही हितकर है!

डॉ. छोटू प्रसाद 'चन्द्रप्रभ' जी की नवीनतम कृति- 'बद्रीनारायण की सुहागरात' (उपन्यास), एक ऐसे ही ब्राह्मण युवक की कहानी है, जिसकी जातीय परंपरा में ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण स्थान रहा है; इसलिए ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचांग पर अगाध श्रद्धा और विश्वास है; जिसे एक सीमा के बाद बेशक अंधविश्वास कहा जाएगा और वर्तमान वैज्ञानिक दृष्टि सिरे से ही खारिज कर देगा; परन्तु कथा का नायक- बद्रीनारायण ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचांग पर आधारित दैनंदिन के कार्यों को सम्पादित करने में ही अपना हित समझता है! ज्योतिष गणना के अनुसार पंचांग पर उल्लिखित बातों को ही ब्रह्मवाक्य मानकर अपनी  जीवन-यात्रा पर अपने कदम बढ़ाता रहता है; जिस कारण उसमें अंधश्रद्धा की भरमार दिखती है! वह पंचांग के अनुसार ही किसी कार्य के आरंभ में हाथ डालना उचित मानता है और सरकते समय की परवाह नहीं करते हुए, शारीरिक और मानसिक कष्टों को झेलता हुआ भी दुखित नहीं होता! यहाँ तक कि शुभ-अशुभ समय-सारिणी निर्धारण के चक्कर में उसके दाम्पत्य जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना को हम अन्धविश्वास की दृष्टिकोण से ही देख सकते हैं!

लेखक ने इस पुस्तक का ताना-बाना अत्यंत रोचक और मनोरंजक ढंग से पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है! डॉ. छोटू प्रसाद 'चन्द्रप्रभ' जी की लेखनी की धार कथा में अपनी पूर्ण संवेग में तीब्र गति से मानवीय सरोकारों के लिए अंधविश्वास की शल्यक्रिया करती हुई महीने भर पति-पत्नी के बीच की दैनंदिन की आंतरिक मानसिक उद्वेगों की उठती लहरों की ओट में 'कथोपकथन' के माध्यम से निर्बाध चलती हुई अंतत: एक सुखद परिणाम के साथ समाप्त होती है!

लेखक अपनी रचनाधर्मिता में नित नये आयामों के साथ उत्तरोत्तर रचनाकर्म के पथ पर अग्रसर हों ! इसी मंगलकामना के साथ-

समीक्षक -
महेंद्र नाथ गोस्वामी  'सुधाकर'
ग्राम+पोस्ट - गुनघसा (गोमो) 
जिला - धनबाद, झारखण्ड-828401  
sudhakar.gomoh@gmail.com 

Comments

Popular posts from this blog

हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ

सारांश : इस शोधालेख के माध्यम से हिंदी साहित्य इतिहास लेखन के दौरान उत्पन्न होने  वाली समस्याओं को विश्लेषित किया गया है। बीज शब्द : साहित्यिक , पुनर्लेखन , इतिहास , गौरवान्वित , अकादमिक , प्रशासनिक , सृजनात्म-        कता , समावेश , सार्थकता , आकांक्षा , ऐतिहासिक , प्रतिबिंब , सामंजस्य , चित्तवृति , कालांतर , संकलन , आंकलन , आह्वान , स्वच्छंदतावाद। आ ज हिन्दी साहित्यिक विद्वानों और आलोचकों के बीच हिन्दी साहित्य पुनर्लेखन की समस्या का मुद्दा देखने-सुनने को मिल जाता है। इस समस्या का फलक इतना विस्तृत है कि इसे किसी लेख में बाँधना कठिन है। इसके पुनर्लेखन की समस्या पर विचार करने से पूर्व हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि इतिहास वास्तव में होता क्या है ? साहित्यिक विद्वानों के इतिहास के संदर्भ में किस प्रकार के मत हैं ? अब तक इतिहास लेखन में किन-किन समस्याओं को देखने-समझने का प्रयास किया गया है। इसे लिखने की आवश्यकता क्यों है ? क्या यह साहित्य के लिए उपयोगी है ? इतिहास लेखन में किस प्रकार की सतर्कता बरतनी चाहिए ? किन-किन ऐतिहासिक तत्वों को जोड़ने या घटाने पर हिन्दी साहित्यिक इति

नैतिकता के सवाल और एकेडमिया

स भी प्राणियों में मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसके पास सोचने-समझने और बुद्धि के उपयोग की अधिक क्षमता है। यही वजह है कि वह निरंतर जीवन की बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता है। इसी प्रयास में वह तमाम अन-सुलझे सवालों का जवाब ढूंढता है। सवालों का संबंध चेतना से है और चेतना तभी आती है जब हम चिंतन करते हैं , चिंतन भी तभी संभव है जब अध्ययन की लालसा हो या सही मौका मिले और सही मौका तभी मिल सकता है जब सामाजिक व्यवस्था लोकतांत्रिक हो , लोकतंत्र भी वहीं हो सकता है जहाँ नैतिकता जीवित रहे। असल में नैतिकता मनुष्य का वह स्वाभाविक गुण है जिससे मनुष्य स्वयं के प्रति उत्तरदायी होता है। दुनिया के तमाम संगठनों , संस्थानों और समुदायों की भी नैतिकता तय की जाती है , अपने आप में यह एक आदर्श स्थिति है। इसी आदर्श के दायरे में व्यक्ति , समाज , समुदाय , संगठन और संस्थानों को रहना होता है। नैतिकता के दायरे में ही सभी नियम या कानून तैयार किये जाते हैं। हालाँकि , नैतिकता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो हर परिस्थिति में उसके साथ रहती है , लेकिन कई बार मनुष्य की दूसरी प्रवृतियाँ इसे अपने अधिपत्य में ले लेती हैं। नतीजतन , लोभ , भय औ

उनकी टांग

सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सुनीं थीं। टी. वी. पर धारावाहिक भी देखा और अनुमान भी लगाया कि राजा विक्रमादित्य अपने सिंहासन पर बैठे कैसे लगते होंगे ? लेकिन मेरी यह कल्पना तब साकार हुई , जब विद्यालय से घर पहुँचा ही था कि जेब में पड़ा फोन कँपकँपा उठा , मैं तो समझा कि शायद दिल में कंपन हो रहा है , लेकिन अगले ही पल हाथ स्वयं ही जेब में पहुँच गया और मैंने फोन निकालकर देखा कि किसका फोन है ? फोन श्रीमती जी का था इसलिए उसे काटने या अवाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था , तुरन्त आज्ञाकारी पति की होने का फर्ज़ निभाते हुए फोन अटेण्ड किया। हैलो कहने से पहले ही आकाशवाणी की तरह फोन से आवाज़ आई , “ घर में हो तो तुरन्त बाहर आ जाओ ” । मेरे ‘ क्या हुआ ’ पूछने से पहले ही फोन कट गया। बहरहाल मैं तुरन्त ही बाहर गया , पर मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा जिससे चौंका जाए। इधर और उधर से रिक्शे , मोटरसाइकिल और पैदल लोगों के साथ लोग अपने दैनिक कार्यों में लगे हुए थे। आवारा कुत्ते सड़क किनारे छाँव में सुस्ता रहे थे और कुछ पिल्ले यहाँ-वहाँ चहलकदमी कर रहे थे।             मैंने सड़क के दोनों ओर देखा , कुछ नहीं है मन में बुदबुदाया

निराला : आत्महन्ता आस्था और दूधनाथ सिंह

कवि-कथाकार और आलोचकीय प्रतिभा को अपने व्यक्तित्व में समोये दूधनाथ सिंह एक संवेदनशील , बौद्धिक , सजगता सम्पन्न दृष्टि रखने वाले शीर्षस्थ समकालीन आलोचक हैं। आपके अध्ययन-विश्लेषण का दायरा व्यापक और विस्तीर्ण है। निराला साहित्य के व्यक्तित्व के विविध पक्षों और उनकी रचनात्मकता के सघन अनुभव क्षणों  का गहरा समीक्षात्मक विश्लेषण आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘ निराला: आत्महन्ता आस्था ’’ (1972) में किया है।             दूधनाथ सिंह जी सर्वप्रथम पुस्तक के शीर्षक की सार्थकता को विवेचित करते हुए लिखते हैं कि कला और रचना के प्रति एकान्त समर्पण और गहरी निष्ठा रखने वाला रचनाकार बाहरी दुनिया से बेखबर ‘‘ घनी-सुनहली अयालों वाला एक सिंह होता है , जिसकी जीभ पर उसके स्वयं के भीतर निहित रचनात्मकता का खून लगा होता है। अपनी सिंहवृत्ति के कारण वह कभी भी इस खून का स्वाद नहीं भूलता और हर वक्त शिकार की ताक में सजग रहता है- चारों ओर से अपनी नजरें समेटे , एकाग्रचित्त , आत्ममुख , एकाकी और कोलाहलपूर्ण शान्ति में जूझने और झपटने को तैयार।...... इस तरह यह एकान्त-समर्पण एक प्रकार का आत्मभोज होता है: कला-रचना के प्रति यह अन

युवाओं के मसीहा : स्वामी विवेकानंद

भारत में न जाने कितने युवा पैदा हुए , लेकिन ऐसा क्या था उस युवा में जिसके जन्मदिन को हम ‘ युवा दिवस ’ के रुप में मनाते हैं। या यूं कहें कि उसने ऐसे कौन से कार्य किए जिससे वह आज भी हम युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। जब कोई व्यक्ति अपने समय की समस्याओं से सीधे टकराकर मानवता के लिए पथ प्रदर्शित करने का कार्य करता है तो वह चिरस्मरणीय बन जाता है। ऐसे समय में जब दुनिया हमें नकारात्मक नजरिए से देख रही थी , हम उसके लिए अशिक्षित-असभ्य थे। तब ‘ उठो जागो और लक्ष्य तक पहुंचे बिना न रुको ’ का नारा देकर भारतीय जनमानस में नवचेतना का संचार करने वाला वहीं युवा था , जिसे आगे चलकर दुनिया ने ‘ स्वामी विवेकानंद ’ के नाम से जाना।             भारतीय धर्म , दर्शन , ज्ञान एवं संस्कृति के स्वर से दुनिया को परिचित कराने वाले युवा ही हम सभी का प्रेरक हो सकता है। अपनी अपार मेधा शक्ति के चलते उसने न केवल ‘ अमेरिकी धर्म संसद ’ में अपनी धर्म-संस्कृति के ज्ञान का डंका बजाकर उसकी श्रेष्ठता को प्रमाणित किया , अपितु विश्व की भारत के प्रति दृष्टि में बदलाव को रेखांकित किया। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो “ स