ज्योतिष विद्या को शास्त्र सम्मत माना गया है! ज्योतिष शास्त्र के अनुसार- हमारे पुर्वार्जित कर्मों का फल हमारी जीवन-यात्रा के दौरान अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएं उत्पन्न करती हैं! अनेकों ऐसे व्यक्ति जो सात्विक प्रकृति के हैं तथा जो खान-पान में संयमी हैं, और आचार-व्यवहार में भी शुद्ध हैं, परिश्रम करते हैं- उन्हें भी कष्टों का शिकार होते देखा जाता है ! उनके कार्यों में भी अड़चनें आती रहती हैं!
जन्मकालीन कुण्डली, प्रश्न, लग्न, तथा गोचर में ग्रहों की प्रतिकुल स्थिति द्वारा मनुष्य जीवन-यात्रा के दौरान आनेवाले कष्टों, विघ्न-बाधाओं के विषय में पूर्व अनुमान लगाकर ही- पूर्वज्ञान होने के कारण शास्त्रों में बताये गये- रत्न धारण, औषधि स्नान, व्रत-दान, यज्ञ-हवन आदि के द्वारा ग्रहशांति कर जीवन को सुखमय रखने का प्रयास करते रहे हैं! ग्रहों के कू-प्रभावों को अनुकुल करते रहे हैं!
बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि- आवश्यक उपचार करने पर भी रोग शांति नहीं होती अथवा वास्तविक रोग का निदान नहीं होता- ऐसी स्थिति में ज्योतिष शास्त्र सहायक सिद्ध होता है!
दरअसल यह एक अटल सत्य है कि- जिस दिन हमने जन्म लिया, उसी दिन हमने अपनी मृत्यु पर भी हस्ताक्षर कर दिये! जन्म लेते ही हमारे साथ हर पल इतिहास बनता हुआ चलता है! इस क्रम में कई प्रकार की घटनाएं आती-जाती रहती हैं! उन घटनाओं के बीच से गुजरता हुआ मनुष्य अंधविश्वास को ताक पर रखकर भी चलता है और अनेक लोग अंधविश्वास में उलझकर भी रह जाते हैं, और कुछ लोग उसके प्रतिकार का उपाय कर आगे बढ़ते हैं!
ज्योतिष शास्त्र की जब रचना हुई होगी, तब मानव के व्यवसाय गिने-चुने ही रहे होंगे ! कृषि, व्यापार, प्रशासन, सेना, एवं श्रमजनित कुछ अन्य व्यवसाय! उन दिनों किसी व्यक्ति का व्यवसाय बताना या ज्योतिष के आधार पर चुनाव सरल था- परन्तु बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदल चुका है! महापंडित चाणक्य ने तो- "पृथ्विव्यां त्रिणि रत्नानि सन्ति, अन्नं, जलं, सुमधुर भाषणं, परन्तु मूर्खाणां पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधियते", अर्थात् पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं- अन्न, जल, और मधुर बोली, परन्तु मूर्ख लोगों ने पत्थर के टूकड़ों को भी रत्नों की संज्ञा दे दी है", ऐसा कह दिया है; फिर भी आज फुटपाथ पर घिसटने वाले भिखारियों से लेकर बड़ी-बड़ी मोटरगाड़ियों में चलने वाले व्यापारियों, साहबों, हाकिमों के हाथों की उंगलियों में ज्योतिष शास्त्र के अनुसार विभिन्न प्रकार के रत्नों (पत्थरों) को देखा जा सकता है!
दरअसल जीवन संभावनाओं पर चलता है और यदि जीवन को हम गणित का एक पेचीदा सवाल मानें तो उसका उत्तर खोजने के लिए- मूलधन 100 या X (एक्स) माने बिना उसे खोजा नहीं जा सकता !
स्पष्ट बात है कि- मनुष्य की मूल कामना अपने जीवन में 'पूर्ण सुख' की प्राप्ति ही है; जिसके लिए वह नाना प्रकार के प्रयास करता है! यहाँ तक कि वह स्वयं को बारूद के ढेर पर बिठा लेता है, जो कालान्तर में उसके ही विनाश का कारण बन जाता है!
मनुष्य को सदैव ही विपदाओं, आपदाओं, और आजीविका की विपन्नता ने भाग्यवादी बनने के लिए मजबूर किया है- इसका पूरा लाभ आज एक व्यापार की तरह होने लगा है, इसमें संदेह नहीं ! ज्योतिष, भूत-प्रेत, आदि बाधाओं को दूर करने के 'केन्द्र' तक के कितने ही कारखाने जगह-जगह लग गये हैं, जो मनुष्य की मजबूरी का पूरा फायदा उठाते हैं !
दूसरी ओर यह भी सत्य है कि- दुनिया कितनी भी विकसित हो जाय, ब्रह्माण्ड के प्रभाव से वह मुक्त नहीं हो सकती ! इसी का फल है कि- दैविक विपदाएं या प्राकृतिक आपदाएं बिना किसी पूर्व सूचना के वे मनुष्यों के जीवन में आ धमकती हैं; इसलिए बहुत कुछ अ-स्वीकार करने की मुद्रा में भी बहुत कुछ स्वीकार करना पड़ता है! जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना को अन्धविश्वास कहकर उसे 'ताक पर' रखा भी नहीं जा सकता ! यदि बाधाओं का, रोगों का, निदान नहीं है- वहाँ 'मृगतृष्णा' क्यों ? किन्तु यदि उनके उपशमन का निदान है तो वहाँ आंखें मूंदना भी बुद्धिमानी नहीं ! जहाँ बहुत बड़ी विवशता है- वहाँ शांति तो खोजी जा सकती है ! अंधविश्वास को ताक पर रख देना चाहिए! आपका विवेक आपके पास है, वहाँ केवल आपकी पहुँच है- इसलिए जीवन की कठिनाइयों का एक सामर्थ्यवान व्यक्ति बनकर सामना करना ही हितकर है!
डॉ. छोटू प्रसाद 'चन्द्रप्रभ' जी की नवीनतम कृति- 'बद्रीनारायण की सुहागरात' (उपन्यास), एक ऐसे ही ब्राह्मण युवक की कहानी है, जिसकी जातीय परंपरा में ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण स्थान रहा है; इसलिए ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचांग पर अगाध श्रद्धा और विश्वास है; जिसे एक सीमा के बाद बेशक अंधविश्वास कहा जाएगा और वर्तमान वैज्ञानिक दृष्टि सिरे से ही खारिज कर देगा; परन्तु कथा का नायक- बद्रीनारायण ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचांग पर आधारित दैनंदिन के कार्यों को सम्पादित करने में ही अपना हित समझता है! ज्योतिष गणना के अनुसार पंचांग पर उल्लिखित बातों को ही ब्रह्मवाक्य मानकर अपनी जीवन-यात्रा पर अपने कदम बढ़ाता रहता है; जिस कारण उसमें अंधश्रद्धा की भरमार दिखती है! वह पंचांग के अनुसार ही किसी कार्य के आरंभ में हाथ डालना उचित मानता है और सरकते समय की परवाह नहीं करते हुए, शारीरिक और मानसिक कष्टों को झेलता हुआ भी दुखित नहीं होता! यहाँ तक कि शुभ-अशुभ समय-सारिणी निर्धारण के चक्कर में उसके दाम्पत्य जीवन में घटने वाली प्रत्येक घटना को हम अन्धविश्वास की दृष्टिकोण से ही देख सकते हैं!
लेखक ने इस पुस्तक का ताना-बाना अत्यंत रोचक और मनोरंजक ढंग से पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है! डॉ. छोटू प्रसाद 'चन्द्रप्रभ' जी की लेखनी की धार कथा में अपनी पूर्ण संवेग में तीब्र गति से मानवीय सरोकारों के लिए अंधविश्वास की शल्यक्रिया करती हुई महीने भर पति-पत्नी के बीच की दैनंदिन की आंतरिक मानसिक उद्वेगों की उठती लहरों की ओट में 'कथोपकथन' के माध्यम से निर्बाध चलती हुई अंतत: एक सुखद परिणाम के साथ समाप्त होती है!
लेखक अपनी रचनाधर्मिता में नित नये आयामों के साथ उत्तरोत्तर रचनाकर्म के पथ पर अग्रसर हों ! इसी मंगलकामना के साथ-
समीक्षक -
महेंद्र नाथ गोस्वामी 'सुधाकर'
ग्राम+पोस्ट - गुनघसा (गोमो)
जिला - धनबाद, झारखण्ड-828401
sudhakar.gomoh@gmail.com
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