देश को आजादी मिलने के बाद समाज के प्रत्येक वर्ग को एक भरोसा था कि इसमें उनकी भी मुक्ति शामिल है, लेकिन बदलते राजनीतिक मुखौटो व आर्थिक सामाजिक चुनौतियों के बीच कुछ वर्गों की तरफ सत्ता व्यवस्था ने ध्यान ही नहीं दिया। संविधान लागू होने के बावजूद दलित,आदिवासी और स्त्री समाज में बहुत सकारात्मक परिवर्तन नहीं हो रहें थे। इसके उलट इनपर शोषण और बढ़ता ही जा रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में दलित और स्त्री विमर्श जैसे दो प्रमुख अस्मिता मूलक विमर्शों का उदय होता है। आरक्षण लागू होने के बाद दलित व स्त्री समाज की पहली पीढ़ी को उच्च शिक्षा में आने का अवसर मिला। हालांकि सवर्ण समाज की स्त्रियां उसके पहले भी उच्च शिक्षा में थी लेकिन जैसी भागीदारी होनी चाहिए वैसी भागीदारी का अभाव था। वहीं दूसरी तरफ दुनिया के मानचित्र पर भारत एक बड़े बाजार के तौर पर उभर रहा था। भारत दुनिया भर के पूंजीपतियों के लिए दरवाजे खोलकर मुक्त व्यापार को निमंत्रण दे रहा था। जिसका परिणाम यह हुआ कि नयी कंपनियों, कारखानों के बनने से रोजगार के नए अवसरों की उपलब्धता बढ़ी जिसने अशिक्षित गरीब समाजों के लिए आर्थिक समृद्धि को प्रोत्साहित किया। एक ही समय में आरक्षण से प्राप्त शिक्षा और सरकार के उदारवादी आर्थिक नीतियों से उपलब्ध रोजगार ने दलित समाज को सामाजिक और आर्थिक रूप से इस लायक बना दिया की वे अपने अधिकारों को लेकर जागरूक होने लगे।इस जागरूकता की स्पष्ट झलक हमें साहित्य में देखने को मिलने लगी। बीसवीं सदी के आखिरी दो दशक व इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में इन दोनों विमर्शों ने पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया। लेकिन इन सबके बावजूद भी एक वर्ग जो इनके बीच का होकर भी उपेक्षित था, वह थी दलित स्त्री।
सदियों से जाति के नाम पर शोषण झेल रहे दलित समाज को जब
अवसर मिला तो उसने दुनिया के सामने आत्मकथाओं व कहानियों के माध्यम से अपने दुख व
शोषण को दर्ज किया। इसमें दलित समाज के पुरुष आगे थे, क्योंकि भारत अपने मूल चरित्र में पितृसत्तात्मक समाज रहा
है जिसका प्रभाव दलित जातियों पर भी दिखा। दूसरी तरफ स्त्री विमर्श में भी सवर्ण
स्त्रियां आगे रही क्योंकि उनको शिक्षित होने का अवसर पहले मिला। लेकिन इन स्त्री
विमर्शकारों ने अपने विमर्श में दलित स्त्री के साथ दूरी बनाए रखा। इस तरह दलित
स्त्री एक साथ पितृसत्ता और ब्राह्मणवादी सत्ता दोनों की उपेक्षाओं की शिकार हुई।
लेकिन बदलते समय वह शिक्षा के अवसरों की उपलब्धता के कारण जब दलित स्त्री को शिक्षा मिली तो वह भी अपने
अधिकारों को लेकर सचेत व सजग हुई जिसका परिणाम हमें दोहरा अभिशाप (कौशल्या बसंती)
और शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे) की आत्मकथाओं
आदि के रूप में देखने को मिलता है। अवसरों
की अनुपलब्धता व उपेक्षा की मार झेलते हुए आज दलित स्त्री उच्च शिक्षण संस्थानों
में पढ़ने व पढ़ाने का काम कर रही है। इसी दोहरे अभिशाप को एक दलित स्त्री (दलित
स्त्री का समाज) कैसे देखती व महसूस करती है,
का दस्तावेज है प्रियंका सोनकर की किताब 'दलित स्त्री
विमर्श : सृजन और संघर्ष'। प्रलेक प्रकाशन से छपी इस किताब के बारे में
प्रियंका सोनकर स्वयं बताती हैं कि 'स्त्री साहित्य और दलित साहित्य में नारीवादियों, सवर्ण
और दलित पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों की उपेक्षा ने ही दलित स्त्री विमर्श को जन्म दिया है। यह किताब
उसी विमर्श की कड़ी में एक सकारात्मक
प्रयास भर है।
सवाल यह है कि इस किताब को क्यों पढ़ा जाना चाहिए? इसी
प्रश्न का उत्तर आगे तलाशेंगे। यह किताब चार खंडों में विभाजित है। प्रत्येक खंड अपने विशेष
संदर्भ के साथ उपस्थित है।
पहला खंड दलित आंदोलन और दलित साहित्य की अवधारणा व उसके
विकास प्रक्रिया को लेकर लिखी गई है। आज दलित साहित्य का जो स्वरूप हमारे सामने
उपस्थित है उसके निर्माण में हुए ऐतिहासिक व सामाजिक संघर्षों को दर्ज किया गया है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक दलित अस्मिता को प्रभावित करने वाले कारणों को
विद्वानों के कथनों के माध्यम से रेखांकित किया गया है।दलित समाज पर पड़ने वाले
राजनीतिक व सामाजिक प्रभाव को दर्ज किया गया है। गैर दलित रचनाकारों खास कर
प्रेमचंद, निराला और मैथिलीशरण गुप्त जैसे लेखकों के विचारों और कथनों को भी उद्धरित
किया गया है। वामपंथी लेखकों के प्रगतिशील चेतना में दलित मूल्यों की उपस्थिति की
भी चर्चा की गई है। इस पूरे खंड में दलित अस्मिता के निर्माण में शामिल घटनाओं व
संबंधित व्यक्तियों की उपस्थिति दर्ज की गई है।
दूसरे खंड में मुख्य रूप से दलित स्त्री विमर्श को केंद्र
में रखा गया है। इस किताब के आने से पहले सुजाता की बहुत चर्चित किताब 'आलोचना का स्त्री पक्ष' आया, जिसमें स्त्री शोषण और उससे मुक्ति के
विभिन्न आयामों की चर्चा की गई है। लेकिन उस किताब से भी दलित स्त्री के सवाल गायब हैं। वर्तमान का तथाकथित मुख्यधारा का 'स्त्री विमर्श', 'सवर्ण स्त्री विमर्श' बनकर रह
गया है, जिसमें दलित व आदिवासी समाज के सवालों के लिए कोई स्थान ही नहीं है। अगर है भी
तो महज खाना पूर्ति के तौर पर। इन्हीं उपेक्षाओ के कारण प्रियंका सोनकर और जसिंता
केरकेट्टा जैसी स्त्रियां साहित्य के क्षेत्र में आकर बताती है कि हमारे सवाल व हमारी प्रतिभा किसी भी अन्य समाजों से तनिक भी कम नहीं है। इस खंड में दलित स्त्री
के ऐतिहासिक उपस्थिति की पड़ताल व उनकी सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक स्थिति की
शिनाख्त की गई है। बौद्ध कालीन थेरी गाथाओं से होते हुए, मध्यकालीन दलित संत कवित्रियों व 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष में उपस्थित दलित वीरांगनाओं के
रास्ते वर्तमान तक की यात्रा की गई है। इस खंड में दलित स्त्री विमर्श पर डॉ. आंबेडकर व सावित्रीबाई फुले के प्रभाव को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। साथ
ही भारतीय संविधान में दलित स्त्री के हितों व हिंदू कोड बिल की उपयोगिता को भी
समझाया गया है। दलित राजनीति में दलित स्त्री के योगदान को लेकर एक पूरा चैप्टर
दर्ज है। कांशीराम साहब जी ने जिस दलित आंदोलन के मुहिम को चलाया था,
उसको कैसे मायावती जैसी सशक्त महिला ने संभाला और आगे बढ़ाया इस संदर्भ को भी
दर्ज किया गया है। इस तरह दूसरा खंड पूरी तरह दलित स्त्री संघर्ष के व्यावहारिक
पक्षों को समर्पित है।
तीसरे खंड में दलित स्त्री विमर्श के सैद्धांतिक पहलुओं को
लिया गया है। दलित स्त्री विमर्श की अवधारणा स्वरूप व उसके रचनात्मक पहलुओं को
दर्ज किया गया है। साथ ही दुनिया में दलित स्त्री संघर्ष के समान और कौन-कौन से
वर्ग है जो संघर्षरत है का वर्णन किया गया है। इस खंड में प्रियंका जी ने
सहानुभूति और स्वानुभूति के मामलों को भी उठाया है। इस मामले में प्रियंका जी ने
बहुत स्पष्ट विचार रखा है कि ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि जो दलित समाज में पैदा
हुआ है, वही दलित स्त्री विमर्श पर लेखन कर सकता है उनका मानना है कि जो भी डॉक्टर
अंबेडकर के विचारों को मानता है, दलित स्त्रियों की बेहतरीन के लिए प्रयास करता है उसका लिखा
दलित स्त्री लेखन माना जाएगा।
चौथा खंड दलित स्त्रियों पर थोपे गए कुरीतियों और उन कुरीतियों के खिलाफ हुए आंदोलन और संघर्ष को
रेखांकित किया है। प्रियंका जी इस खंड में बताती है कि कैसे एक स्त्री के बलात्कार
के पीछे जाति काम करती है। और किस तरह उस बलात्कार पर तथाकथित मुख्य धारा(सवर्ण)
की स्त्री विमर्शकारों की चुप्पी इस देश के ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक चरित्र को उजागर
करती है। फूलन देवी, भंवरी देवी आदि उदाहरण से इस बात को समझाया भी है। देवदासी,
बहुजुठाई जैसी अमानवीय कुरीतियों को जो केवल दलित समाजों पर
ही थोपा गया था। इन कुरीतियों के खिलाफ हुए आंदोलन को भी दर्ज किया गया है।
इस प्रकार समग्रता में देखे तो यह किताब दलित साहित्य की
अवधारणा व उसके विकास यात्रा को समझने की एक शानदार किताब है। दलित स्त्री को
केंद्र में रखकर लिखी गई या पुस्तक दलित साहित्य की अवधारणा,
उसके सामाजिक, ऐतिहासिक व राजनीतिक पहलुओं को रेखांकित करते हुए अतीत से वर्तमान तक की यात्रा करती है। एक ही किताब
में आप दलित साहित्य की विकास यात्रा व दलित स्त्री विमर्श के उदय के कारणों की
सामाजिक, ऐतिहासिक पड़ताल कर सकते हैं। इस पुस्तक की सबसे सुंदर बात यह है कि प्रियंका
जी ने कुछ भी थोपा नहीं है। अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त संदर्भ दिया
है। कुछ जगहों पर सुधार की गुंजाइश है जैसे कि अश्वेत नारी आंदोलन की जगह स्पष्ट
ब्लैक वूमेन मूवमेंट किया जा सकता है। पूरी किताब में मुझे मौलिक स्थापनाओं की कमी
महसूस हुई। उम्मीद है कि प्रियंका जी अपनी आने वाली किताबों में कुछ स्थापना भी
देंगी। अतः अगर आप दलित आंदोलन, दलित स्त्री आंदोलन के इतिहास व वर्तमान को समझना चाहते हैं
तो यह किताब आपके काम की है। प्रियंका जी
को इस बात के लिए विशेष धन्यवाद कि उन्होंने इतने कम मूल्य में एक जरूरी दलित
स्त्री अस्मिता मूलक किताब पाठकों के सामने उपलब्ध कराई।
किताब :- दलित स्त्री विमर्श : सृजन और संघर्ष
लेखक:- प्रियंका सोनकर
प्रकाशक :- प्रलेक प्रकाशन 2024
समीक्षक :-प्रफुल्ल रंजन
शोध छात्र: हिंदी विभाग(काशी हिंदू विश्वविद्यालय)
मो :-9450916312
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