शैलेन्द्र कुमार शुक्ल समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। 'सावन सुआ उपास' उनका ताजा और पहला ही काव्य संग्रह है। मैं समझता हूँ कि इस संग्रह के गंभीर पाठक उनके दूसरे काव्य संग्रह के आने की प्रतीक्षा में व्याकुल हैं। दरअसल 'सावन सुआ उपास' संग्रह कवि शैलेंद्र कुमार शुक्ल की काव्यप्रतिभा का प्रस्थान बिंदु है। इसमें उनके कविकर्म और काव्यविवेक का विविध स्वरूप संक्षिप्त रूप में उद्घाटित हुआ है। साधारणता में असाधारणता कवि शुक्ल की विशिष्टता है। प्रेम पर लिखी उनकी कविताएं अद्भुत हैं। पुरुष सत्ता और सामंती व्यवस्था को उनकी कविताएं प्रश्नांकित करती हुई एक ओर समकालीन प्रेम के स्वरूप को विस्तृत करती हैं तो दूसरी ओर प्रेम की चुनौतियों से आगाह भी। प्रेम का विद्रोह से गहरा संबंध है। सर्वविदित है कि हर बड़े कवि ने प्रेम पर कविताएं लिखीं हैं। इसको अछूता मानकर लिखने वाला कोई कवि बड़ा नहीं हुआ है। प्रेम पर कविताएं लिखते हुए कवियों ने समाज और राजनीति को भी प्रश्नांकित किया है। इन पक्षों को कवि शैलेंद्र कुमार शुक्ल ने भी उद्घाटित किया है। उनकी एक सवाल, सामंती प्रेम, दिल्ली की रातें, प्रेम नहीं, प्रेम, भाभियां, बोलो भानमती आदि कविताएं इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं।
आज के पूँजीवाद के दानवी स्वरूप की भली-भांति पहचान कवि शुक्ल को है। उनका आक्रोश कविताओं में दिखाई पड़ता है। मनुष्यता और प्रेम की तमाम चुनौतियों को कवि शुक्ल ने उद्घाटित करने में कमी नहीं दिखाई है। इन संघर्षों और चुनौतियों के दौरान कवि ने उत्तर आधुनिकता पर भी गहरा व्यंग्य करते हुए एक से एक शानदार कविता लिखी है-
सोचता हूँ देश के सबसे बड़े चौराहे परखोल लूँ एक कबाड़खानाअमेरिका और चीन मेरा सहयोग करेंगेमैं उत्तरआधुनिक होना चाहता हूँ
कवि शुक्ल की अपनी सीमा भी है, यह सीमा किसी की नज़र में उन्हें कमजोर कवि भी ठहरा सकती है। बहरहाल उनकी कुछ कविताएं बहुत साधारण हैं और कुछ साधारण दिखने वाली कविताएं असाधारण भी हैं। हिंदी में बड़े से बड़े कवियों ने भी साधारण कविताएं लिखीं है। नागार्जुन और त्रिलोचन की भी कई कविताएं अति साधारण हैं। कवि शुक्ल अपने पूर्वजों की काव्य परंपरा से विछिन्न नहीं हैं। कवि शुक्ल के यहाँ नागार्जुन और त्रिलोचन से निकली काव्य परंपरा दिखाई पड़ती है जो समकालीन कवि रामाशंकर विद्रोही तक की यात्रा करवाती है। मैं उन्हें इसी परंपरा का निर्वाहक मानता हूँ। यह उनका पहला काव्य संग्रह ही है लेकिन हिंदी जगत को उनसे बहुत उम्मीद है। हाल में जो उनकी तुकबंदी कविताएं सोशल मीडिया पर आ रही हैं, वे कविताएं इस संग्रह में नहीं हैं। उनके प्रिय पाठक इनसे रूबरू नहीं होंगे। इसीलिए सुधी पाठक को उनसे बड़ी उम्मीद है।
कवि शैलेंद्र कुमार शुक्ल में संभावनाओं का विशाल वितान दिखाई पड़ता है। दरअसल वे संभावनाओं के बड़े कवि हैं। हर बड़े कवियों के रचनात्मक विवेक की पहचान करना आसान नहीं होता है। और हर बड़े कवियों में गहरा अंतर्द्वंद्व होता है। ठीक इसी तरह कवि शैलेंद्र कुमार शुक्ल की कविताओं में गहरा अंतर्द्वंद दिखाई पड़ता है।
ग्रामीण जीवन और संघर्ष से जुड़कर ही कवि शुक्ल का किसान मन उजास पर चला जाता है। कवि का मिजाज एकदम ठेठ और गंवई है लेकिन इस दौरान उन्होंने जगह जगह अपने को आधुनिकता के चकाचौंध से बचाने का प्रयास भी किया है। किसानी जीवन को देखने का उनका नजरिया अनोखा है। वह खुद किसान परिवार से हैं। कवि किसान भी हैं। उनके खून पसीने में उनके गाँव और खेत की मिट्टी की सोंधी बू है। इसीलिए किसान जीवन और उसकी संवेदना को कवि बड़ी मार्मिकता और गंभीरता के साथ व्यक्त कर पाता है। हिंदी में जितने बड़े कवि हुए हैं, सबने मजदूर और किसान जीवन को अभिव्यक्त किया है। शुक्ल की कविताओं में गांव के बाबा का समय और उनकी संवेदना दर्ज है। इन ग्रामीण चरित्रों को रूपायित करते हुए सनी लियोन को भी कवि स्वर देता है। वह सनी लियोन के लिए एक कविता लिखता है। काव्य की कसौटियों के प्रति कवि बहुत उदार है। उनका काव्य विस्तार व्यापक है। सनी लियोन पर लिखते हुए कवि घोषणा करता है कि-
मैं सनी लियोन के लिए कवितालिखने की घोषणा करता हूँऔर तुम्हारा काव्यशास्त्र दहल जाता है
उनके यहाँ जो परंपरा और आधुनिकता का अंतर्द्वंद्व है, वह स्वाभाविक है। कवि अपने चारों ओर की चीजों को रचनात्मक स्वर देने के लिए आकुल हैं। मामूली से मामूली चीजों से लेकर असाधारण चीजों को कविता में उतारने की काव्यकला असाधारण है। यही कवि सनी लियोन पर लिखता है और रोहित वेमुला पर भी।
रोहित वेमुला नामक कविता बेहद महत्वपूर्ण है। एक तरह से यह कविता उनकी प्रतिनिधि कविताओं में शुमार है। इस कविता में वेमूला के प्रति कवि की गहरी सहानुभूति और उनकी संवेदना दर्ज है। रोहित पर खूब बहसें और चर्चा होती है, हर वर्ष छात्र और एक्टिविस्ट उनकी स्मृति को अंजलि देते हैं; इस कड़ी में कवि शुक्ल की यह कविता रोहित के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी है। चूंकि कवि शुक्ल हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र भी रह चुके हैं। जनविरोधी तत्वों की पहचान एक कवि को सदा रहती है। उनकी वेमुला के प्रति व्यक्त संवेदना बेहद अनुभूतिपरक और सच्ची है-
रोहित वेमुलासोचता हूँ जाकर पूछ आऊंहैदराबाद के लाल पत्थर वाले पहाड़ों सेकि तुम्हारी हत्या का जिम्मेदार कौन है?किसने की है तुम्हारी हत्या सरेआम?......तुम्हारा सुसाइड नोट पढ़ करजिस दिन आत्महत्या कर लेंगे तुम्हारे हत्यारेउस दिन असल में होगी एक आत्महत्यायह सुसाइड नोट उन तमाम लोगों का भी हैकि जिन्हें लिखना नहीं आताकि जिन्हें पढ़ने नहीं दिया गयाजिन्हें जला दिया गया अंधेरी कोठरियों मेंकि जिनका मासूम गला रेता गया सदियों पुरानी तलवारों से
कवि शुक्ल ने अपने समकालीन कवियों को बहुत सम्मान दिया है। हर बड़े कवि ने अपने समकालीन और अपने आत्मीय व्यक्तित्व अथवा कवियों को अपनी कविता में याद किया है। इसी कड़ी में कवि शुक्ल ने अपने समकालीन कवि राकेश रंजन जी को बड़े मनोयोग पूर्वक याद किया है। उनकी रंजन भैया तुमसे मिलकर नामक कविता कवि राकेश रंजन के प्रति गहरे अनुराग को दर्शाती है। इस कविता को पढ़ते समय मुझे नागार्जुन की चंदू मैंने सपना देखा कविता अनायास याद आ रही थी।
कवि शुक्ल ने सुशील सुमन भैया और दीपशिखा दी के लिए भी इस तरह एक कविता का बच पाना नामक कविता लिखी है।
यह दुहराना पड़ रहा है कि शैलेंद्र शुक्ल के काव्य पर बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन की कविताओं का गहरा असर है। अवधी और हिंदी में लिखने वाले कवि शुक्ल एक साथ कई काव्य परम्पराओं का निर्वाह करते दिखाई पड़ते हैं। उनकी अवधी और हिंदी में लिखित छंदबद्ध कविताओं के संग्रह का पाठकों को बेसब्री से इंतजार है। उनकी छंद में लिखी कविताओं की लय और तुकबंदी बेजोड़ है।
उन्होंने राजनीति पर भी व्यंग्य शैली में विलक्षण रचना की है। हिंदी की अमूमन राजनीतिक कविताएं सरल और सपाट दिखती हैं किंतु उनकी कविता में एक अलग तरह का ओज और प्रवाह है। इस संदर्भ में सरकारों का क्या बिगड़ा है और समाचार कविता उल्लेखनीय हैं।
कवि शुक्ल ने गंभीर रिसर्च करने वाले शोधार्थियों की विडंबना को भी दर्शाया है। एक गंभीर शोधार्थी के साथ रचनात्मक लेखन की जो चुनौतियां आती हैं, उसको बोलो भानमती नामक कविता में बखूबी दर्शाया गया है। साथ ही भानमती की पीड़ा के बहाने कवि ने स्त्रियों के प्रति अपनी गहरी संवेदना व्यक्त किया है -
तुम्हारे मरने के बाद कितनी भानमती बची हैं..?मेरा गोस्त ठंडा हो रहा हैमैं रिसर्च कर रहा हूंइससे घटिया कविता मैं नहीं लिख सकता भानमतीमैं रिसर्च कर रहा हूँ।
शैलेंद्र शुक्ल की कुछ कविताओं में गहरे प्रतीक और व्यंजना निहित हैं। पाठक के लिए सीधे-सीधे किसी अर्थ तक जाना कभी कभी दुष्कर लग सकता है।
गिरवर भाई कविता में मजदूर की मृत्यु को चित्रित करने का ढंग अनोखा है। टुनई काका कविता में आज के किसानों की विडंबना को सीधे-सीधे दर्शाया गया है। दरअसल कवि को गांव से गहरा प्रेम है। उनके यहाँ गाँव के टूटने और शहर के प्रति भय का बोध भी है। तुम्हें खेलना नहीं आता नामक कविता में चिड़िया, फल, नीमकौड़ियों के गुच्छे और कौवा के साथ बूढ़े आदमी का चित्र बेजोड़ है। दोस्त हैदराबाद नामक कविता में दोस्त को अलविदा करने का ढंग कवि का निराला है। पावस नामक कविता पढ़ते हुए विद्रोही की कविता 'मैं किसान हूँ आसमान में धान रोपना चाहता हूँ' की याद आना स्वाभाविक है। पावस कविता का यह अंश देखें-
जी हाँ मैं कवि हूँकविता लिखना चाहता हूँमुझे बरसात की झीनी झीनी फुहारें मिले न मिलेंहमें पावस की उमस चाहिएजी हां मैं किसान हूँक्रांति बीज बोना चाहता हूँ
हिंदी में कवि नागार्जुन से लेकर धूमिल और विद्रोही तक की कविताओं में बयान अभिव्यक्त करने की परंपरा दिखाई देती है। इस परंपरा का निर्वाह करते हुए कवि शुक्ल भी अपनी कविताओं में क्षुब्ध होकर अपना बयान दर्ज करते हैं। उन्हें सामाजिक साहित्यिक विमर्शों को कविता में दर्ज करना बखूबी आता है। वे किसी तरह के रचनात्मक दबाव को अस्वीकार करते हैं। वे कलावादी नहीं हैं, किंतु कला को स्वाभाविक रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी कविता में कला अनायास उतरती है, सायास नहीं। इस संदर्भ में कवि का यह बयान बेहद महत्वपूर्ण है-
कला आना चाहती हैतो आएमेरी कविता मेंचिर परिचित सीमैं कला को न्योता नहीं दूंगा
बसंत कविता में कवि केदार नाथ सिंह को स्मरण करने का ढंग अनोखा है। बाबा का समय कविता के जरिए लोक संस्कृति और परंपरा को अनोखे ढंग से रूपायित किया गया है। एक बुजुर्ग के गुजरने की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने ग्रामीण संस्कृति के प्रति अपना गहरा अनुराग दिखाया है। कविताओं में लोक परंपरा की आवाजाही के दौरान लोक की मान्यताएं भी दर्ज हुई हैं। कहीं-कहीं मान्यताओं के प्रति कवि की हठधर्मिता देखने लायक बनती है। बड़े-बड़े कवियों के यहाँ लोक-मान्यताओं का प्रयोग हुआ है। साथ ही आधुनिक या समकालीन कवियों ने इसकी जड़ता को भी उजगार किया है। लेकिन यहाँ कवि शुक्ल की लोक मान्यताओं के प्रति जो आग्रह है वह विचारणीय है। माफीनामा कविता की इन पंक्तियों को देखें-
एकलव्य पथ पर चढ़ते हुएमैंने कई बार सोचागिन लूं सीढ़ियांअचानक मां याद आईवह कहती थीपौधों की लंबाई नापने से उनकी बाढ़ रुक जाती हैदोस्त!मैंने कभी नहीं गिनींएकलव्य पथ की सीढियां........मैं एकलव्य पथ की सीढियां कभी नहीं गिनूंगा!
यहाँ कवि ने लोक परंपरा से प्रभाव ग्रहण किया है लेकिन परंपरा के प्रति वह प्रभावग्रस्त लगता है। पूरी कविता में कवि की जिद और लोक आस्था के प्रति अटूट अनुराग ज़ाहिर है। एक चैतन्य पाठक को यह स्थिति बेचैन कर सकती है।
दरअसल लोक मान्यता के प्रति कवि का यह रुख उन्हें लोकवादी बना देता है। माफीनामा कविता में कवि का लोकमन उजागर है। लोक आस्था की ऐसी पराकाष्ठा आज के बहुत कम कवियों में दिखती है।
बाबा का समय कविता में फूटे खपरैल से गिरी हुई धूप के छोटे टुकड़े का प्रयोग अद्भुत है। प्रयोग की दृष्टि से भी कवि की काव्यप्रतिभा असाधारण है। रहमत मास्टर में रहमत मास्टर के प्रति जो चिंता है वह कवि की व्यापक मानवीय दृष्टि को बखूबी दर्शाती है। बाजार ने किस तरह गाँव को प्रभावित किया है तथा किस तरह मानवीय संवेदना और मूल्य का स्वरूप बदल रहा है; इन सबकी गहरी चिंता कवि के यहाँ दर्ज है।
'यार बबउनू' कविता में किसान संघर्ष की गरिमा को महत्व दिया गया है। इसके अलावा राष्ट्रीय आंदोलन के समांतर चल रहे किसान आंदोलन की सक्रियता को याद किया गया है। किसान संघर्ष का चित्र खींचते हुए कवि शुक्ल ने अपने इतिहासबोध का बखूबी परिचय दिया है। उनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर है-
बाबा नहीं गए कभी गांधी के साथनमक कानून तोड़नेऔर न ही शामिल हुए कभी सत्याग्रह मेंएक किसान का जवान होनाकेवल नमक कानून नहींदेश के लिए दाल रोटी का भी सवाल था !
किताब - सावन सुआ उपास
लेखक - शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
मूल्य - 250 (हार्डकवर)
प्रकाशक- सर्व भाषा प्रकाशन, नयी दिल्ली
लेखक - शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
मूल्य - 250 (हार्डकवर)
प्रकाशक- सर्व भाषा प्रकाशन, नयी दिल्ली
समीक्षक - अमित प्रभाकर
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