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सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल

समसामायिक प्रसंगों पर पाठकों को बैचेनी और तिलमिलाहट के साथ कुछ सोचने को मजबूर करने वाले व्यंग्य और कटाक्ष की पैनी नजर रखने वाले धर्मपाल महेंद्र जैन का नाम व्यंग्य-विधा में चिर-परिचित है। इस व्यंग्य-संग्रह में 44 आलेख हैं, जिसकी भूमिका में डॉ. रमेश तिवारी जी कहते हैं कि “विचार से प्रगतिशील और स्वभाव से मृदुभाषी धर्मपाल जी इस संग्रह की रचनाओं में विसंगतियों की पहचान और प्रहार करने की भरपूर कोशिश करते दिखाई देते हैं और अपवादस्वरूप कुछ अवसरों को छोड़ दिया जाए तो प्राय: उनकी दृष्टि और विषय चयन ठीक हैं। इस संग्रह की अधिकांश रचनाओं में हमें वर्तमान समाज और उसकी विसंगतियां झाँकती हुई दिखाई देंगी।”

व्यंग्य एक ऐसी विधा है, जो छोटी-छोटी घटनाओं पर कटाक्ष कर पाठक के मन के किसी कोने को प्रभावित करती है। घटनाएं भले ही छोटी हो, मगर उनके भीतर एक खास उद्देश्य छुपा हुआ होता है। समाज के किसी भी परिप्रेक्ष्य में घटनाएं चाहें, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक सामाजिक या व्यावहारिक पहलुओं को आधार व्यंग्यात्मक रूप से बनाकर लिखी गई हों, अवश्य पढ़ते समय पाठकों के मन में गुदगुदी पैदा होती है, उसका कारण होता है उन शब्दों का प्रयोग जो साधारणतया आम जनता बोलती है और उस भाषा के माध्यम से वह उनके आलेखों में पात्रों के समीप पाती है। व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन ने ‘मेरा पक्ष’ में अपनी जटिल व्यंग्य भाषा (यद्यपि वह जटिल नहीं है) पर किसी पाठकीय प्रतिक्रिया के संदर्भ में लिखा है, “आत्मविश्लेषण मुझे जरूरी लगा कि व्यंग्य की भाषा कैसी हो। ढेर सारे उत्तर खुद से ही दे दिए कि भाषा सरल हो; जिन प्रतीकों, बिंबों और रूपकों की भरमार व्यंग्य में हो रही हो उसे पाठक समझ पाए। अथवा होता यह है कि व्यंग्यकार को स्वयं तो व्यंग्य  समझ में आता है कि व्यंग्य कहाँ हैं, कैसी घात कर रहा है और अपने लक्ष्य को ध्यान में रख कर चल रहा है। पर ये सब तकनीकें पाठक के ऊपर से निकल जाती हैं। व्यंग्यकार श्रेष्ठ नक्काशी की हुई रचना पाठक को परोस देता है, पाठक उस आरूप को कुछ क्षण देखता-पढ़ता है, पर वह उससे जुड़ नहीं पाता और पन्ना पलट देता है। रचना खत्म।”

मगर मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हूँ क्योंकि कोई भी सुधी पाठक अपने आपको यह संग्रह पढ़ने के बाद में व्यंग्य की दुनिया में खोया हुआ महसूस करता है, ठहाके लगाता है और कुछ परिस्थितियों में गुदगुदाता भी है तो कुछ विषम परिस्थितियों में अपने मुख की मुस्कुराहट छुपाकर डगमगाती व्यवस्थाओं पर अपनी भृकुटी भी तानता है। सोचने का विषय यह है कि अगर व्यंग्यकार चाहते तो अपनी कलम की तलवार से भारत के गणतंत्र पर सीधा प्रहार कर सकते थे, मगर उन्होंने भी प्रोफेसर नरेश भार्गव की तरह गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ पढ़कर अभिव्यक्ति का खतरा उठाना नहीं चाहा? जो भी कारण रहे हो व्यंग्य-विधा को हरिशंकर परसाई जी की तरह समृद्ध करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। ‘भोलाराम का जीव’ की तरह भले ही उनकी कोई दीर्घ व्यंग्य कहानी सामने नहीं आई, मगर इस संग्रह में उनके ‘‘गणतंत्र के तोते’ ‘मरा उद्योगपति सवा खोके का’, ‘अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत’, ‘उपमान उजले कर गई वह’. ‘बाय वन डाय टू’, ‘मेरी शोक सभा के लिए भाषण’ जैसे व्यंग्य आलेख भी उसी श्रेणी से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। सन 1984 में प्रकाशित धर्मपाल महेन्द्र जैन के व्यंग्य-संग्रह ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ के पुरोवाक् में स्वयं हरिशंकर परसाई ने लिखा था, “ज़रूरी नहीं कि व्यंग्य में हँसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, आत्म साक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है और परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है तो वह सफल व्यंग्य है।”
 
इस दृष्टिकोण से वे शत-प्रतिशत सफल व्यंग्यकार है। यही नहीं, कैनेडा से प्रकाशित ई-पत्रिका साहित्य कुंज के प्रधान संपादक सुमन घईजी तो उनकी व्यंग्य-विधा की तारीफ करते नहीं अघाते और उनके व्यंग्य-संग्रह ‘भीड़ और भेड़िए’ का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि ऐसी सधी कलम का व्यंग्यकार कभी-कभी ही पैदा होता है, जो व्यंग्य के माध्यम से जीवन के हर पहलू को स्पर्श करते हैं चाहे वह राजनीति, घर-परिवार, समाज ही क्यों न हो! उनकी विद्रूपताओं और विसंगतियों को व्यंग्य के माध्यम से विपुल पाठक-वर्ग तक पहुँचाना कोई साधारण कार्य नहीं है। आलोचक मुकेश कुमार सिन्हा उनकी समाज और देश के गंभीर मुद्दों पर सन 2022 में प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह 'भीड़ और भेड़िए' की समीक्षा में लिखते हैं :-  
“ ‘भीड़ और भेड़िए’ शीर्षक से रचित व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार की पीड़ा झलकी है। उन्होंने भेड़ की तुलना आदमी से की है और लिखा है—“शत-प्रतिशत वफ़ादारी की उम्मीद भेड़ों से की जा सकती है, इसलिए आदमी को भेड़ बनाया जा रहा है, ताकि अपनी मर्ज़ी क़ायम की जा सके।” आदमी तो बस ‘मोहरा’ है! जब राजा को ज़रूरत पड़े, तो मोहरे को आगे कर दिया जाता है। यही तो चुनावी फ़ॉर्मूला बन गया है। आदमी की दर्द-तकलीफ़ से साहबों को क्या लेना देना? कोरोना में तो पैदल चल दिये थे अपने गाँव-घर की ओर! कहाँ कोई सहला पाया था उनके पाँवों को? आदमी लाचार है, मरीज़ लाचार है।” 

धर्मपाल महेंद्र जैन के अद्यतन व्यंग्य-संग्रह के शीर्षक ‘गणतंत्र के तोते’ पढ़कर  मुझे सर्वप्रथम एक राजनीतिक टिप्पणी याद आई, जिसमें किसी प्रतिष्ठित नेता ने सीबीआई और सीआईडी को सरकार के पिंजरे का तोता कहा था। वह कोलगेट स्कैम की चर्चा का जमाना था। इस संदर्भ में कोयला सचिव प्रकाश चंद्र पारख ने अपनी पुस्तक ‘शिखर तक संघर्ष’ के अध्याय ‘सुप्रीम कोर्ट, सीबीआई और कोलगेट’ के संदर्भ में यह प्रसंग आया है। धर्मपाल जी का यह व्यंग्य-संग्रह मुझे दशक पुराने अपने अतीत में खींच कर ले गया। उतना ही फर्क नजर आया कि पिंजरे के तोते यहाँ आते-आते गणतंत्र के तोते हो गए। व्यंग्यकार ने गणतंत्र को ही पिंजड़ा बना दिया। दूसरे शब्दों में, आज गणतंत्र पिंजरे में कैद है और ये तोते कौन है--यह जानने का विषय है। 

उनकी व्यंग्य विधा कितनी तेज़ और प्रखर है! यह उनके पाठक ही जानते हैं। वे व्यंग्य की भाषा लिखते ज़रूर है, मगर पाठकों को अल्पकालिक हंसाने के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर उनका ध्यान आकृष्ट करने के लिए। उनके व्यंग्य लेखन में ‘हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और’ की उक्ति चरितार्थ होती है। उनकी व्यंग्य की भाषा बाहर से बाहर से भले ही हँसोड़ प्रतीत होती हो, मगर उसके पीछे उनका दुख-दर्द, आक्रोश और रुदन छिपा हुआ है। हिन्दी के आलोचक अच्छी तरह जानते हैं कि भाषा-शैली में वक्रोक्ति कब आती है? किसी लेखक का मस्तिष्क और हृदय इतना संवेदनशील होता है कि जब वह अपनी आँखों के सामने कुछ गलत होते हुए देखता है, चाहे शोषण, दमन, रुदन, क्रंदन और बहुत कुछ...। मगर वह उन्हें रोकने में अपने आप को असहाय और असमर्थ पाता है तो वह मन के कोह और तनाव को कम करने के लिए वक्र भाषा का प्रयोग करता है। धूमिल की तरह ही सही, ‘कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो’ की तर्ज पर वे पत्थर तो उछाल देते हैं, भले ही वे पत्थर आसमान तक पहुंचे या न पहुंचे, यह दूसरी बात है। मगर उनका उद्देश्य – ‘यह आग मुझ में नहीं तो तुझ में ही सही, जलनी चाहिए’ साकार कर दिखाते हैं। भले ही, धर्मपाल महेंद्र जैन सात-समंदर पार कैनेडा में हैं, मगर उनकी ‘गणतंत्र के तोते’ पढ़कर हमारे देश के लिए उनके मन की वेदना-संवेदना की अथाह गहराई को अवश्य स्पर्श करने का अवसर मिला है। उनका लेखन भी एक प्रकार का असहयोग आंदोलन है, महात्मा गांधी की तरह, जिसमें जनता के दुख-दर्द को शोषक शासकों के कानों तक पहुंचाने के लिए उनकी यह कृति एक सार्थक उद्यम है। उनके व्यंग्य आलेखों को राजनीति, मीडिया, भ्रष्टाचार, शिक्षा के स्तर, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं आदि के व्यंग्यों में वर्गीकृत किया जा सकता है:-

राजनीति पर व्यंग्य :-
धर्मपाल महेंद्र जैन भले ही पूर्व बैंक अधिकारी थे यानि दूसरे शब्दों में अर्थशास्त्री, मगर मैं उन्हें एक अच्छे राजनैतिक विश्लेषक के साथ-साथ समाजशास्त्री भी मानता हूँ, क्योंकि समाज की हर गतिविधि पर उनकी निगाहें रहती हैं और खासकर राजनीति पर। हो भी क्यों नहीं, जैसा राजा वैसी प्रजा। प्रजा को जानने के लिए बेहतर यह होगा कि राजा को ही क्यों न जान लिया जाए, उनका चाल-चलन, उनकी गतिविधियाँ और उनका व्यवहार। ऐसे तो व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन  के हर आलेख में राजनीति आ ही जाती है,  ‘गणतंत्र के तोते’,  ‘भाड़े की भीड़ में प्रहलाद के जलवे’, ‘मरा उद्योगपति सवा खोके का’, ‘चित्रकूट के घाट पर’, ‘बुलडोजर से दबा गणतंत्र’, ‘झांसे दो और फाँसे रखो’, और ‘जो चुन दिया, वो चुन दिया’, ‘नए शेर का अनावरण’   प्रमुख हैं। समीक्षक मुकेश सिन्हा जी धर्मपाल जी के बारे में लिखते हैं कि “व्यंग्य की रचना हो और राजनीति की चर्चा न हो, यह सम्भव है ही नहीं। व्यंग्यकार ने भी राजनीति और राजनेताओं की ख़बर ली। सच है कि राजनीति में भ्रम का ऐसा अँधेरा फैला दिया गया है कि सच दिखता ही नहीं है। भ्रम के जाल में फँसकर जनता अपनी प्राथमिकता भूल जाती है। कौन तत्व राजनीति में आ रहे हैं, राजनीति ‘ढाल’ है। इसमें ऐसी नीतियाँ तैयार की जाती हैं कि इससे केवल राजा सुरक्षित रहता है। प्रजातंत्र हो, राजशाही हो या जो भी हो, उनकी ही जय-जयकार होती है; देश और जनता की कौन फ़िक्र करे? जनता चिल्लाती रहती है, मगर उनकी आवाज़ को कोई सुनता कहाँ? जनता सबसे पूछती है, दिल्ली से, कुर्सी से, हाक़िमों से, कि आवाज़ आ रही है, मगर कौन सुने? किसको इतनी फ़ुर्सत है।”  

‘गणतंत्र के तोते’ आलेख में जुगनूओं के झुंड में से कई जुगनू तो मर जाते हैं और कुछ बचे रहने के लिए तोता बन जाते हैं, जिन्हें सुख-सुविधाओं की सत्ता के पिंजरे में रखा जाता है, जो केवल अपने मालिक की भाषा बोलते हैं और यहां तक की गणतंत्र के तोते गांधी जी को कायर कहकर नया विकृत इतिहास लिखने का प्रयास करते हैं और अनर्गल पैरोडी भी गाते हैं
“दे दी हमें आजादी लेकर कटोरा थाल, 
एक साबरमती के संत ने किया देश बेहाल।”
 
व्यंग्यकार लिखते हैं कि ऐसे तोतेरूपी नागरिकों के लिए गणतंत्र छुट्टी पर है और आजादी में मुफ्त बिजली, पानी, मुआवजा या भत्ता पाने की योजना भर है। ‘भाड़े की भीड़ में प्रह्लाद के जलवे’ में व्यंग्यकार में आधुनिक राजनीति में अपनी निंदा बर्दाश्त करने के बाद भी अपने स्वार्थ के खातिर ‘राग दरबारी’ में लोग माहिर होते हैं और ऐसे लोगों को ही राज सिंहासन भी प्राप्त होता है। ‘मरा उद्योगपति सवा खोके का’ में लाश पर राजनीति पर लेखकर ने करारा व्यंग्य किया है कि मीडिया वाले किसी अनपढ़ गरीब आदमी की हत्या को कोई तवज्जो नहीं देते हैं, बल्कि किसी सेठ की स्वेच्छा से की हुई आत्महत्या को किसी अज्ञात हत्या का रूप देकर उनके परिजनों से पैसे ऐंठने के लिए इधर पुलिस अधिकारी बाज नहीं आते हैं, उधर मीडिया वाले उसकी न्यूज को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। ऐसी है हमारी मानसिकता ! ‘जन गन धन अधिनायक’ में राजनेता को जीतने के लिए जन, गन, धन तीनों की जरूरत होती है। जन और धन प्राप्त करने के लिए गन (बंदूक) की जरूरत होती है, तभी जाकर वह सफल अधिनायक बन सकता है। ‘चित्रकूट के घाट पर’ आलेख में वोटो की राजनीति पर प्रहार करते हुए व्यंग्यकार ने लिखा है कि अब हमारे देश में मिथकीय चरित्रों की भी धज्जियां उड़ाई जाने लगी हैं, जिस प्रकार हनुमान को मोहनलाल या रामलाल से जोड़कर हिंदुओं की तरफ तो सुलेमान या रहमान से जोड़कर मुसलमान की तरफ दिखाकर हिंदू- मुस्लिम राजनीति की जा सकती है। ‘बुलडोजर से दबा गणतंत्र’ में गणतंत्र के बुलडोजर से दबे होने का अहसास दिलाया है कि किस तरह गणतंत्र सफेदपोशों द्वारा लूट लिया जाता है और वहां की जनता में छोटी-मोटी सुविधाएँ मुफ्त में बाँट दी जाती है। ‘नए शेर का अनावरण’ में सारनाथ के अशोक स्तंभ पर पुराने शेरों की फिलहाल में नई संसद में लगाए नए शेरों के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए व्यंग्यकार  लिखते हैं कि आज की राजनीति शाकाहारी नहीं है, इसलिए शेर भी मां भवानी के शेरों की तरह दुश्मन को चीर-फाड़ने के लिए मुंह फाड़े हुए दिखना चाहिए, जिसकी पूछ लंबी हो और मूंछे तनी हुई हो।

भ्रष्टाचार, सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर व्यंग्य
समाज को अपनी नंगी आँखों से देखने और उसका गहन अध्येता होने के कारण अपने चारों तरफ भ्रष्ट समाज में घट रही सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की ओर उनका ध्यान जाना स्वाभाविक है। जब भी वह व्यंग्य लगते हैं तो अपने आप को आम आदमी समझ कर उसकी हताशा, निराशा, कुंठा, आशा-आकांक्षा, प्राप्ति-अप्राप्ति आदि सभी को अपने भीतर आत्मसात कर आम आदमी की वेदना-संवेदना पर कलम चलाते हैं। उनके ‘मा तमसो गमय’, ‘महालक्ष्मी की दिल्ली यात्रा’ ‘प्रतिभा का पिटारा बताएं’, ‘कागजी किसानों की बिल्लियां’, ‘संस्कृति के नए अध्याय’, ‘जितना दोगे, उतना कमाओगे’, ‘बाय वन डाय टू’ प्रमुख हैं। 

‘मा तमसो गमय’ में सर्वसत्ता, विपुल धन, चिर यश पाने के लिए काले-धंधे और काले धंधों के पनपने के लिए अंधकार की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। इसलिए अनुभवी लाल देवी से अपने लिए केवल अंधेरे की कामना करते हैं। ‘महालक्ष्मी की दिल्ली यात्रा’ में दिल्ली की अव्यवस्था का कच्चा चिट्ठा खोला है कि वहां के लोग देवी-देवताओं तक को लूटने से नहीं बख्शते तो दूसरों की क्या बिसात! अगर महालक्ष्मी भी स्वर्ग से उतरकर दिल्ली यात्रा पर आए तो क्या हवलदार, क्या सिपाही, क्या सब-इंस्पेक्टर, क्या थानेदार साहब, सभी के सभी उसे लूटने के लिए उतावले हो जाएंगे और फिर डीआईजी तो कुछ बढ़कर ही। हैरानी की बात यह है कि मातालक्ष्मी भी डीआईजी जैसे महाचोर के घर का निमंत्रण सबसे पहले स्वीकार करती है। ‘प्रतिभा का पिटारा बताएं’ आलेख में भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अति व्यस्त होने पर भी कमेंट किया है कि उनके अधिकारियों के पास पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण जैसे पुरस्कारों के लिए चयन का समय नहीं है, इसलिए उन्होंने योग्य पात्रों से अपनी प्रतिभा का पिटारा स्वयं ही ऑनलाइन अपलोड करने का निवेदन किया है। रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित पुस्तक ‘संस्कृत के चार अध्याय’ की तर्ज पर व्यंग्यकार ने अपने एक आलेख का शीर्षक रखा है, ‘संस्कृति के नए अध्याय’, जिसमें आधुनिक विकृत संस्कृति को दर्शाया है, जबकि ‘काग़जी किसानों की बिल्लियां’ आलेख में हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को व्यक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। व्यंग्यकार के शब्दों में- “चूहे और बिल्लियाँ सब शातिर निकले। वे ज़मीनी किसानों के हितैषी दिखते थे, पर चुपके-चुपके काग़जी किसानों के सपने पूरे करते। ज़मीनी किसान हकीकत समझ रहे थे पर वे अपने देवता के भरोसे थे। देवता ने कहा था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। देवता ने उन्हें बताया था कि काग़जी किसान खेत को फॉर्महाउस कहते हैं, वे बड़े-बड़े शिकारी कुत्ते पालते हैं और ठाठ से रहते हैं। इस बार यदि देवता चुनाव जीत गए तो ज़मीनी किसानों के लिए किराए के कुत्ते मंगवाएँगे। बिल्ली और चूहों से किसानों की रक्षा हो सके इसलिए नेपथ्य में शिकारी कुत्तों की भर्ती हो रही थी।“ (पृष्ठ-87) 
इसी प्रकार का दूसरा आलेख है ‘जितना दोगे, उतना कमाओगे’। ‘बाय वन डाय टू’ आलेख में ‘फ्यूनरल होम’ के अभिनव कांसेप्ट का जिक्र किया है। जिस होम में निर्जीव की अंत्येष्टि होती है, विद्युतचालित चैंबर में संस्कार करने के बटन, तो किसी बड़े हॉल में उच्चस्तर की शोकसभाओं का आयोजन, शोकधुन वाले बैंड, दो-चार आशु कवि, मृतात्मा का उनकी पत्रिका के कवर पेज पर शानदार फोटो यानि ‘फाइव स्टार’ दाह संस्कार। ऐसा पाने के लिए एक पॉलिसी खरीदने पर दो लोगों की अन्त्येष्टि होगी। यानि बाय वन डाय टू। 
  
साहित्य पर व्यंग्य
व्यंग्य साहित्य की एक अद्भुत विधा है, जो पहले गुदगुदाती है और फिर पीछे रुलाती है। इसमें हास्य भी है तो रुदन भी है। लेखन का निशाना कहीं और होता है और लगता कहीं और है। भले ही, साधारण पाठक ही क्यों न हो, मगर विषय की गंभीरता, सटीकता और सार्थकता ऊंचे-ऊंचे को हिला कर रख देती है। धर्मपाल महेंद्र जैन के आलेख देखने में छोटे लगते हैं, मगर घाव बहुत गहरा करते हैं। उनके आलेख ‘अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत’, ‘बारीक और मोटा व्यंग्य’, ‘उपमान उजले कर गई वह’, ‘हम अईसाइच लिखते’, ‘ फिर न कहिएगा प्रकाशक नहीं मिलते’, ‘छप्परफाड़ हिंदी’, ‘लिफाफे के अंदर क्या है’, ‘ ऐ, नवलेखक, जरा ध्यान से’ और ‘बेबसी में झक मारता लेखक’ आदि इस श्रेणी में आते हैं। अगर उनकी ‘गणतंत्र के तोते’ को कोई राजनेता अथवा नीति-निर्धारक वर्ग, समाज के कंगूरे ध्यानपूर्वक पढ़ते तो उन्हें उनके आलेखों में सामान्य जनों के हृदय की पीड़ा भरी धड़कन अवश्य सुनाई देगी। अधरों पर मुस्कान, मगर हृदय में कोह।
‘अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत’ आलेख में व्यंग्यकार ने आलोचना शास्त्र के सारे प्रचलित सिद्धांतों को ही बदल दिया है। आजकल साहित्य में भी गॉड फादर होने चाहिए और साथ ही साथ जुगाड़ टेक्नॉलोजी भी। केवल लिखने से काम नहीं चलेगा, सम्मान भी तो पाना है। उनके अनुसार आजकल आलोचकगण साहित्य की सही आलोचना करने के बजाय न्यूटन के तीन सिद्धांतों से अधिक यानि चार सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। 

1. समभार का सिद्धांत यानि लेखक के वजन के तुल्य रचनाओं को लिखने पर आलोचना योग्य समझना 
2. समलंब सिद्धांत यानि लेखक की लंबाई की तुल्य पुस्तकों की थोक की लंबाई होने पर उसकी पुस्तकों को आलोचना हेतु योग्य समझना 
3. समधन निवेश सिद्धांत, जिसमें डॉलर और पोन्ड निवेश करने पर ही आलोचना की जाती है और 
4. अंत में, समतन सिद्धांत यानि यह तभी संभव है, जब आलोचक को अपना तन सौंप दिया जाए।

‘बारीक और मोटा व्यंग्य’ आलेख में धर्मपाल जैन जी व्यंग्यकार होने के बावजूद भी साहित्यिक व्यंग्यों पर चुटकी ली है कि आजकल पाठक केवल मोटा व्यंग्य  ही पसंद करते है, जैसे राष्ट्रवादी, देशद्रोही, नंगा, चाकू, रूह आदि, जबकि छायावादी व्यंग्य समझने के लिए न तो पाठकों के पास अब समय है और नहीं बुद्धि। सभी को आजकल अति यथार्थ पसंद आता है। उन्हीं के शब्दों में- ‘समझाते हुए बोले- "मेरे कहे का बुरा मत मानना। जबसे एक नामवर विदा हुए है, बीस-तीस आलोचक एकदम पदोन्नति पा गए हैं। आलोचकों की माँग अचानक बढ़ गई है। लिखा तो लगभग वैसा ही जा रहा है जैसा चालीस साल पहले लिखा जा रहा था कूड़ा-कचरा। तब के बुजुर्ग अब स्मृतिशेष हो गए हैं और तब के युवा अब जुगाली करने में प्रवीण हो गए हैं। आज के युवाओं को साहित्य में सब कुछ साफ-साफ दिख रहा है। लेखक, लेखक रहकर किसी में प्राण भरने के लिए शॉक नहीं दे सकता पर वह आलोचक बन कर शॉक दे सकता है और सड़े अंग काट भी सकता है। आलोचना रचना के समानांतर नहीं चलती, रचना दंडवत हो तो आलोचक लंबवत लिखते हैं। वैसे भी आलोचकों की बात का यदि कोई बुरा मानता तो हिंदी साहित्य की दशा और दिशा कुछ और होती। तो भाई, बारीक व्यंग्य लिखना छोड़ो, वह प्रवाह के साथ बह जाता है। मोटा व्यंग्य हो तो अटक जाता है, छन्नी की सतह पर ही टिक जाता है और सबको उसका नोटिस लेना पड़ता है। यहाँ तक कि चुके हुए संपादक को भी मोटा व्यंग्य साफ दिखता है। अब जान लो कि हिंदी के आठ-दस संपादक ही हैं जो चुके हुए नहीं हैं। मोटा व्यंग्य नहीं लिखो तो कितनी बड़ी जमात तुम्हें नकार देती है।"  (पृष्ठ-37) 

‘उपमान उजले कर गई वह’ में अज्ञेय की कविता की पंक्तियों ‘ये उपमान मैले हो गए हैं/ देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच/ कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।’ का प्रयोग करते हुए विदेश में मेड की अनिवार्यता, उनके रंग-ढंग, सुरूचियों, रंगबोध और स्वाद परखता पर लिखा गया एक जबरदस्त आलेख है। ‘हम अईसाइच लिखते’ में हैदराबादी लोगों की हिंदी भाषा और सदाबहार हाजिर जवाबी पर तंज कसते हुए दो-तीन उदाहरण से उनकी रोजमर्रा की हिंदी बोली, उनका लहजा और तेवर के साथ-साथ भाषा-विज्ञान के अनछुए पहलुओं पर ध्यान आकृष्ट किया है, एक उदाहरण दृष्टव्य है:-  
“कस्टमरः दोनो बैंका तो आमने-सामने इच है, फिर इत्ती देर कायकु ?
अफसर: सर, प्रोसीजर फॉलो करना पड़ता, मिसाल के तौर पे अगर आप कब्रिस्तान के बाहर एक्सिडेंट में मर गये, तो आपकु पहले पोलिस होस्पिटल लेके जाती, पोस्टमार्टम कराती। फिर आपकु घरकु लेके जाते, गुसल देते, कफन पैनाते, जनाजे की नमाज पढते, या फिर मरते इच सामने के कब्रिस्तान में दफन करते?
कस्टमरः ऐसे खतरनाक मिसाल नक्को दे रे बावा, समज गया मैं। तुमे लोगां पक्का हैदराबादी रे बावा।“ (पृष्ठ-46) 

जबकि ‘पुस्तक मेले में कस्बाई प्रकाशक’ शीर्षक वाले व्यंग्य आलेख में दो कस्बाई प्रकाशक कोड वर्ड में बातचीत करते हैं। उनकी बातचीत भैंस यानि उपन्यास या कहानी-संग्रह, गाय यानि कविता-संकलन, कुत्ते यानि व्यंग्य-संग्रह, सांड यानि आलोचक, गधे मतलब साधारण लेखक, और तो और ग्रंथावली मतलब हाथी। जैसे कल हम हाथी लॉन्च कर रहे हैं। ‘फिर न कहिएगा प्रकाशक नहीं मिलते’ आलेख में व्यंग्यकार कहते है कि लेखक को दुनियादारी की यथार्थ समझ होने पर ही वह बेस्ट सेलर लेखक बन सकता है। ‘छप्परफाड़ हिंदी’ में सूचना-प्रौद्योगिकी के इस युग में विश्व की सारी भाषाओं को रोमन लिपि में लिखे जाने पर व्यंग्य करते हुए जैन साहब ने लिखा है कि अब वह समय दूर नहीं, जब हिंदी अपनी अस्मिता खो देगी, क्योंकि हिंदी को प्यार करने वाले निचले तबके के लोग जैसे कोलकाता के रिक्शे वाले, बिहार के खोमचे वाले, मुंबई या दलाल स्ट्रीट वाले, दिल्ली को घेरने वाले और यहां तक कि मेगा बजट की हिंदी फिल्मों के प्रख्यात लेखक, निर्देशक, अभिनेता और अभिनेत्री तो सभी रोमन स्क्रिप्ट में लिखी हिंदी पढ़कर डायलॉग हिंदी में बोल रहे हैं। इस तरह कितने भी हिंदी दिवस क्यों न मना लो, हिन्दी पनपेगी नहीं, बल्कि देवनागरी हिन्दी सिमटने लगी है। ‘लिफाफे के अंदर क्या है’ आलेख में प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के बंद होने और उनके कलेवर की सुरक्षा के लिए लिफाफे के आकार की पत्रिकाओं का प्रकाशन और कुछ-कुछ परिस्थितियों में लिफ़ाफ़ों का भी खाली मिलना इस बात को प्रमाणित करता है कि न केवल लिफाफे लिखना बल्कि अन्य लेखन भी आजकल अप्रासंगिक हो चुका है। ‘ऐ, नवलेखक, जरा ध्यान से’ और ‘बेबसी में झक मारता लेखक’ इसी तरह साहित्य पर तीव्र कटाक्ष करने वाले आलेख हैं। 

मीडिया पर व्यंग्य :- 
‘धर्मराज का गोदी मीडिया प्रेम’ में वर्तमान राजनीति पर लेखक ने करारा व्यंग्य किया है। मिथकीय पात्र पांडवों के स्वर्ग आरोहण प्रसंग का उदाहरण देते हुए व्यंग्यकार लिखते है इसमें मीडिया द्रौपदी की कहानी को नजर अंदाज कर नारी विमर्श की उपेक्षा करता है, वही अपने को ज्ञानी मानने वाले सहदेव, मिस्टर यूनिवर्स की तरह दिखने वाले नकुल, पुतिन की तरह मुगालते वाले अर्जुन, सिक्स पैक्स बॉडी वाले भीम और पत्रकार की तरह खोजी कुत्ते के इर्द-गिर्द घुमाते हैं। युधिष्ठर के लिए कुत्ते को स्वर्ग ले जाना तो उसकी विवशता थी क्योंकि अगर उसे धरती पर जाने दिया जाता तो वह कहीं ‘पांडव फाइल्स’ न बना दे। इसी तरह ‘देश जोड़ने की विकलांग कोशिश’ में टीवी पत्रकारिता के बदलते ट्रेंड के तहत टीआरपी के लिए छोटी-छोटी खबरों की हैडलाइन लंबे समय तक दिखाना और बहस में भाषा की अशालीनता पर तंज कसा है। ऐसा ही उनका दूसरा आलेख ‘लो, शब्द असंसदीय हो गए’ में नेताओं की बातचीत में भ्रष्ट, कालाबाज़ारी, कमीना, छोकरा, माफिया, अंट-संट, लॉलीपॉप, तुर्रमख़ान आदि शब्दों का भरपूर प्रयोग संसद में भी भाषा के बहकने का ही प्रतीक है। ‘उनके रचे अंधेरे में’ टीवी चैनलों के जादुई इंद्रजाल, सम्मोहन और छलावे में नहीं फंसने के लिए दर्शकों को हिदायत दी गई है। आधुनिक चैनल सब बिक चुके हैं और वे केवल अपने मुँह से राजनेताओं के विचार ही परोसते हैं, जिसमें साधारण जनता बरगलाकर झांसे में आ जाती है। ‘बीती ताहि बिसार मत’ आलेख में व्यंग्यकार ने बहुत ही संवेदनशील मसले को उठाया है कि हमें कोरोना काल को किसी भी हालत में भूलना नहीं चाहिए। जिस समय चारों तरफ लाशों के ढेर पड़े थे, ऑक्सीजन का अभाव था, उस समय उन लाशों पर कुछ लोग रोटी सेंक रहे थे तो कुछ लोग राजनीति कर रहे थे। व्यंग्यकार के अपने शब्दों में, “न्यायालय जरूर अपने हिस्से के विवेक को सच बोलने में लगा रहे थे, जनतंत्र एक पाये पर खड़ा रहने की लंगडी कोशिश कर रहा था। राष्ट्रीय शोक की वेला में अधिकांश टीवी चैनल और कथित जनमीडिया, तरक्की की प्रायोजित खबरें दे रहे थे। वे उस कृपा और पैसे के लिए बिक रहे थे जो उनके ही साथियों को समय पर अस्पतालों में बेड नहीं दिला पाई थी। कलिंग के राजा अशोक जैसे राजाओं को सद्बुद्धि मिले इसलिए विश्व भर में हर ओर लाशें ही लाशें थीं, कहीं कम कहीं ज्यादा। हम बहुत रो लिये थे, दो हजार बाईस ने उम्मीद दी और कहा बीती ताहि बिसार मत, आगे की सुधि ले।” (पृष्ठ-59)
 
आधुनिक शिक्षा और सूचना तकनीकी पर व्यंग्य :- 
‘सत्रह का पहाड़ा’ आलेख हमारे बचपन के दिनों की याद दिलाता है, जब हम छोटी कक्षाओं में एक से बीस तक के पहाड़े रटते थे और अब वह समय कहाँ?  सूचना-प्रौद्योगिकी के इस युग में पहाड़ों को रटने की कोई जरूरत नहीं है। आज की पीढ़ी के हाथ में स्मार्ट मोबाइल फोन, कैलकुलेटर और कंप्यूटर है तो पलक झपकते ही बड़ी से बड़ी समस्याओं का जोड़, बाकी, गुणा और भाग कर दिया जाता है। फिर अतीत के गौरव को यादकर पुरानी शिक्षा के स्तर को मानक मानकर नई शिक्षा नीति पर सवाल उठाने का प्रयास करना महज एक मजाक नहीं तो और क्या है? परिवर्तन को स्वीकार करने की बजाय उन पर खिल्ली उड़ाना कितना उचित है! ‘नंबरों वाला मार्क्सवाद’ में उन्होंने किताबी शिक्षा में कम मार्क्स लाने पर भी जीवन की ऊंची पायदान पर पहुंचने और अधिक मार्क्स लाने वालों को जीवन में संघर्ष करते देखकर व्यंग्य किया है। चाय बेचकर आदमी पीएम बन सकता है, और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट करने से केवल चालीस चोरों का अलीबाबा बना जा सकता है। साधु-जोगी होकर भी सफल सीएम बना जा सकता है तो आईआईटी पास करने के बाद भी निठ्ठले सीएम। कॉलेज से ड्रॉप आउट होने पर भी बिल गेट्स कहाँ से कहाँ पहुँच सकता है, जबकि आजीवन पढ़ाई करके भी अपने अस्तित्व को तलाशने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। 

“कॉलेज से बिल गेट्स ड्राप आउट क्या हुआ; उसने सब कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का बैंड बजा दिया। अब विश्वविद्यालय उसका और उसके हम-दिमागियों का किया-कराया पूरी दुनिया को सिखा रहे हैं। बहुत जल्दी ही आम आदमी का काम मोबाइल चार्ज करने और उसके बटन दबाने तक सीमित होने वाला है। इसलिए पढ़-लिख कर मार्क्स बटोरने वालों को लानत है; आप बिना पढ़े -लिखे भी बहुत अच्छी डिग्रियाँ पा सकते हैं। आधुनिक मार्क्सवाद अपनाओ, मार्क्स से पिंड छुड़ाओ, बेफिक्री से बैठे-बैठे शानदार जीवन जीओ।“ ( पृष्ठ-40 )  

‘वर्चुअल उन्माद को जीते हुए’ आलेख में यह दर्शाया गया है कि आधुनिक युग वर्चुअल युग है। अब वह समय आ गया है, जब लोग विवाह की वर्षगांठ भी डिजिटल मनाते हैं। मिठाई और नमकीन के डिब्बे कोरियर से भेज देते हैं और साथ में, गूगल मीट का लिंक भी। नियत समय पर ऑनलाइन उपस्थित होकर एक-दूसरे को मिठाई दिखाकर खा लेते हैं। ‘मेरी शोक सभा के लिए भाषण’ आलेख में सोशल मीडिया पर किसी के मर जाने पर रिश्तेदार उनकी फ़ोटो डालकर कॉमेंट पोस्ट करते हैं, अनदेखे, बिना किसी ध्यान के। लोग फेसबुक पर परलोक गमन पर भी लाइक करते हैं, यानि उन्हें उनकी मृत्यु पसंद आती है और उनके पास उदासी का इमोजी खोजने का वक्त भी नहीं है। इस तरह ई-श्रद्धांजलि की चतुरता का क्या कहें! ‘गला तर करके आइए’ आलेख में अमेरिका या कनाडा की ‘आंसरिंग मशीन’ से किसी व्यक्ति को अपनी फाइल खुलवाने के लिए उसमें पूर्व में दी गई आवाज से मिलान करना पड़ता है। लगातार आधे घंटे तक बातचीत करने के बाद जब व्यक्ति गला सूख जाता है तो ‘आंसरिंग मशीन’ हिदायत देती है कि उसे अपना गला तर करके फिर आना चाहिए, अपनी आवाज मिलाने के लिए। अप्रत्यक्षत: व्यंग्यकार ने मानवता पर हावी होती मशीनी संवेदनशीलता की खिल्ली उड़ाई है। ‘निठल्ले का सॉफ्टवेयर’ में मनुष्य की अकर्मण्यता को देखकर व्यंग्यकार ने ऐसी कल्पना की है कि हम लोग इतने आलसी और निठल्ले हो गए हैं कि अपने सोशियल मीडिया पर आई हुई लंबी-लंबी पोस्टों को पढ़कर जवाब देने का समय नहीं है। कहीं कोई ऐसा सॉफ्टवेयर ईजाद हो जाए, जो उन लंबी-लंबी पोस्टों को पढ़कर अपनी तरफ से यथोचित छोटे-मोटे उत्तर दे दें। 

शोषक-शासकों की गिद्ध दृष्टि पर धर्मपाल महेंद्र जैन की ‘गणतंत्र के तोते’ अवश्य ही भारी पड़ेगी और भविष्य में वे देश की काया को नोंच-नोंचकर खाने से कतराएंगे। गिद्ध दृष्टि वालों को भी लगेगा कि उनकी तरफ साथ में झांकने वाला कोई इस भूमंडल पर मौजूद है और वह अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर उनके कुइरादों को भाँपकर जनता को पहले से ही सावधान रहने के लिए आगाह कर देता है। अंत में, इतना ही कह सकता हूँ कि धर्मपाल महेंद्र जैन की इस कृति को पढ़कर पाठक वर्ग न केवल देश की वास्तविक परिस्थितियों से वाकिफ होंगे, बल्कि उनके समाधान की ओर भी प्रवृत्त होंगे और उनके व्यंग्यों में अपने आपको और अपने इर्द-गिर्द के लोगों को पात्र के रूप में अनुभव कर उनकी परेशानियों के स्थायी निदान के लिए समाज के उत्थान हेतु कुछ सकारात्मक कार्य करेंगे, जो उनके लेखन का मुख्य उद्देश्य भी है। उनकी पूर्ववर्ती कृति के समीक्षक मुकेश सिन्हा की इस टिप्पणी से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि उनकी व्यंग्य की रचनाएँ मानस पटल पर पैठ बना रही हैं, अंतर्मन को झकझोर रही हैं, सोचने को बाध्य कर रही हैं। सच कहा जाये, तो व्यंग्य लेखन की यही सार्थकता है! देश और समाज के गंभीर मुद्दे को व्यंग्य की चाशनी में डुबोकर व्यंग्यकार ने पाठकों को परोसा है। निश्चित, पाठक दो पल ज़रूर ठहरकर विवचेना करेंगे। यही नहीं, अनेक आलोचक उन्हें सामजिक संचेतना के जागरूक व्यंग्यकार मानते हैं, जो कुबेरनाथ राय के निम्न कथन पर पूरी तरह खरे उतरते हैं:- ‘हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी देह में नहीं, चित्त में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही मानविकी के शास्त्रों का, विशेषतः साहित्य का मूल धर्म है’। 

साहित्य में ऐसे धर्मज्ञ की इस अद्भुत कृति का हिंदी जगत में रसास्वादन के लिए विपुल पाठक अवश्य खींचा चला आएगा। इसी आशा के इस कृति की सफलता की कामना करते हुए।

तालचेर (ओड़िशा)


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