एक समय था जब कबीर जैसा व्यक्ति बाजार में खड़ा होकर सबकी खैर
मांग सकता था। 'कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर।' सबकी खैर चाहना मानवीय
करुणा का एक बड़ा उदाहरण कहा जा सकता है। वहाँ उसे ना किसी से दोस्ती है और ना ही
किसी से बैर है। 'ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।' मतलब यह कि तब बाजार की
भावना भी सबकी भलाई में निहित थी। ‘सर्व जन हिताय, सर्वजन सुखाय’। लेकिन आज
का बाजार केवल मुनाफे तक ही सीमित है। इसी मुनाफे की चाहत लिए आज का बाजार तरह-तरह
के तमाशे रचने में मशगूल है। आप भी जितना चाहिए उतना तमाशा रच सकते हैं। सबके लिए
खुला आसमां है। विज्ञापन इस बाजार का ब्रह्मास्त्र है। तकनीकी, इंटरनेट और सोशल मीडिया के
दौर में विज्ञापन ने अपना हाथ-पाँव इतना पसारा है कि वह आपके बेडरूम तक पहुँच चुका
है। बस आपको मोबाइल स्क्रीन पर उंगली फेरने भर की देर है वह अल्लाउद्दीन के चिराग के
जिन्न की तरह प्रकट होता है- 'कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे?' मसलन, क्रय-विक्रय का आलम
यहाँ तक है कि आज किराये की कोख तक उपलब्ध हैं। रुकिए, ठहरिये और सोचिये कि यह सब
कितना चमत्कारिक है! है न ? एक साधारण सा व्यक्ति भी इस चमत्कारिक समय को आसानी से समझ
सकता है। नया कवि, लेखक और कलाकार तो इसको बखूबी समझता है। अब आप ही बताइए कि ऐसे
चमत्कारिक समय में कोई विज्ञापन न करने की सलाह देते हुए बोले कि ‘कविता स्वतः
बोलेगी’ तो आप क्या कहेंगे ?
असल मे विज्ञापन को धता बताने वाले वे लोग हैं जो आम को चूस कर
भी खाते हैं और काटकर भी। वे चाहते हैं दूसरे या तो काटकर खाएं या केवल चूसकर, जबकि आज के दौर में दूसरे
काटकर या चूसकर ही नहीं जूस बनाकर भी पीने की कला में माहिर हैं। यही बात उन्हें
नागवार लगती है। मेरी समझ में विज्ञापन को धता बताना या तो मुगालते में रहना है या
नए कवियों, लेखकों और कलाकारों के प्रति कोई चालाकी भरा षड्यंत्र करना।
तात्पर्य यह कि कविता के स्वयं बोलने के दिन अब नहीं रहे। इस मंडी में तो वही
बिकेगा जो दिखेगा और दिखेगा वही जो तलवे की चमक को और चमकाने की कला में माहिर हो।
क्या ऐसा सलाह देने वालों को यह नहीं पता कि आज के मठाधीश सम्पादकों के अपने-अपने
कबीले हैं और वे अपने कबीले में किसी अन्य को तबतक शामिल नहीं करते जबतक अपने
काबिले का कोई प्रभावशाली सदस्य खुशामद न करे। प्रकाशकों की चमड़ी मोटी है जो बिना
दमड़ी थिरकती तक नहीं। आपकी रचना के सुर, लय, ताल, आरोह-अवरोह, छंद, अलंकार, विम्ब, प्रतीक आदि से उनको क्या
हासिल होगा ? उनकी अवधारणा तो 'दमड़ी है तो चमड़ी है' वाली है। ईमानदारी से कहूँ
तो यह एक प्रकार से प्रजनन क्रिया के लिए दौड़ लगाते शुक्राणुओं की रेस जैसा है। इस
रेस में वही विजेता है जो शाम-दाम-दंड-भेद की भभूत अपने जेब मे लिए घूमता है। चलिए,
आप ही से एक और सवाल पूछता हूँ- क्या
पिछले बीस वर्षो में एक भी ऐसी कविता याद है जो बिना विज्ञापन स्वतः बोली हो ? याद नहीं आ रहा है न ?
हम्म !
चलिए, अब मुद्दे पर आते हैं; मुद्दा यह है कि कवि, कलाकार और लेखकों की संख्या लाखों में हैं। वे लगातार सृजन कर रहे हैं। नए लोगों में अधिकांश प्रतिभाशाली हैं लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि वे न तो एकेडमिया हैं और न हीं उनकी पहुँच दिल्ली तक है। इंटरनेट और सोशल मीडिया जब नहीं था तबतक इनके लिए सभी दरवाजे बंद थे। नतीजतन आम चूसकर और काटकर खाने वाले गुठलियों से अठखेलियां करते हुए परवाज कर रहे थे। इंटरनेट और सोशल मीडिया के आने के बाद गुठलियों से अठखेलियां करने वालों का जो ग्लैमरस था कम होने लगा। क्योंकि पाठक अब किताबों, पत्रिकाओं में नहीं बल्कि सोशल मीडिया की तरफ रुखसत करने लगा। इस तरह सोशल मीडिया ने नए लोगों के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म दिया। जहाँ वे अपनी रचना सबके सामने प्रस्तुत कर सकते थे और कर रहे हैं।
बाजार के बारे में आप तो जानते ही होंगे! जो हर वक्त नए मौके की तलाश में रहता है। उसके कारिंदे भी सामने आए और विज्ञापन का विज्ञापन करते हुए इस प्लेटफॉर्म को सहज और आसान बना दिया। इससे हुआ यह कि उस हीरे को भी चमकने का भरपूर मौका मिला जो अस्तबल और गोशालाओं में पाषाण बना धूल फाँक रहा था। बहरहाल, यहाँ तक की व्यवस्था को तो ठीक-ठाक कहा ही जा सकता है। लेकिन, इसकी भी अपनी अलग-अलग चुनौतियाँ और खतरे हैं। ऊपर जिक्र कर चुका हूँ कि बाजार का चरित्र मुनाफे के इर्द-गिर्द ही घूमता-टहलता है। इसी के लिए वह बार-बार अपनी जाल डालता है; ‘एक बार और जाल डाल रे मछेरे’।
स्थिति बड़ी द्वंद्वात्मक है; एक तरफ मंजिल तक पहुँचने की चमकीली डगर है जिसमे बाजार का जाल बिछा हुआ है तो दूसरी तरफ कविता और कला के स्वतः बोलने का भ्रम और उसका मायाजाल। ऐसे में यदि आप नंगा होने से परहेज नहीं करते तो बाजार की चमकीली डगर पकड़ सकते हैं। और यदि आपको कपड़े उतारने से परहेज है तो एकेडमिया और मठाधीशों की शरण में जा सकते है, जहाँ वे लोक-परलोक की यात्रा कराते हुए पहले बदन का रस निचोड़ेंगे और फिर आपकी नसों में ‘कविता और कला के स्वतः बोलने के भ्रम’ का सेलाइन चढ़ा देंगे। कुल मिलाकर तय आपको ही करना है कि आप बिकाऊ हैं या नहीं, क्योंकि यहाँ तो हर चीज बिकती है।
‘कहो जी, तुम क्या-क्या खरीदोगे ?सुनो जी, तुम क्या-क्या खरीदोगे ?लाला जी तुम क्या-क्या,मिया जी, तुम क्या-क्या,बाबू जी, तुम क्या-क्या खरीदोगे ?यहाँ तो हर चीज बिकती है।
संदर्भ :
*( फिल्म : साधना, 1958)
*( फिल्म : साधना, 1958)
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