जनवादी लेखक संघ (जलेस) समय-समय पर महत्त्वपूर्ण किताबों की समीक्षा-गोष्ठियों का आयोजन करता है। अपनी नई सीरीज में जलेस ने ‘नदी पुत्र’ (रमाशंकर सिंह), ‘प्रेमाश्रम’ (प्रेमचंद) के बाद 11दिसंबर, को हरिकिशन सिंह सुरजीत सभागार,नई दिल्ली में रत्नकुमार सांभरिया लिखित ‘साँप’ उपन्यास पर समीक्षा-गोष्ठी का आयोजन किया| गोष्ठी की अध्यक्षता कवि-आलोचक डॉ. चंचल चौहान ने की।
अपने अध्यक्षीय संबोधन में चंचल चौहान ने "सांप" उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बताते हुए कहा कि यह घुमंतू समुदाय की कठिन जीवन स्थितियों और संघर्षों को आधार बनाकर लिखा गया है। उन्होंने उपन्यास की वस्तु और शैली की प्रशंसा की। चंचल जी ने कहा कि जिस घुमंतू समुदाय के पास कोई नहीं जाता उनके बीच रहकर, बारीकी से पर्यवेक्षण करके सांभरिया जी ने यह श्रमसाध्य कार्य किया है।
वरिष्ठ कवि एवं आलोचक डॉ. एन. सिंह ने विमल मित्र और अमृतलाल नागर जैसे समर्थ कथाकारों के हवाले से कहा कि वे बहुत दिनों से किसी ऐसे दलित उपन्यास की तलाश में थे जो ‘खरीदी कौड़ियों के मोल’ तथा ‘बूँद और समुद्र’ जैसा हो। एन. सिंह ने कहा कि ‘साँप’ उपन्यास भी अपनी सहज भाषा-शैली और यथार्थपरक दृष्टि के कारण पाठकों को अनायास अपना-सा लगने लगता है।
कथालोचक महेश दर्पण का मंतव्य था कि बिना घनिष्ठ परिचय के ऐसी भाषा नहीं लिखी जा सकती।शुरू से डेढ़ सौ पृष्ठों तक यह उपन्यास बहुत सधी और सहज भाषा में आगे बढ़ता है। उपन्यास में स्त्री का बाहर निकलना महत्वपूर्ण है। उपन्यास का मुख्य पात्र लखीनाथ सपेरा व्यक्ति से समाज की यात्रा कराता है। यह डिटेलिंग का उपन्यास है। उन्होंने इस उपन्यास के सम्पादन की ज़रूरत बताई।
वरिष्ठ कथाकार हरियश राय ने कहा कि कौतूहल या औत्सुक्य इस उपन्यास की विशेषता है। अपने शुरुआती हिस्से में उपन्यास बहुत सधा हुआ है। लखीनाथ धीरोदात्त नायक है। वह विचलन का शिकार नहीं होता। मिलन देवी और धर्मकंवर उपन्यास के सकारात्मक चरित्र हैं। उपन्यास में यथार्थ से कल्पना की यात्रा होती है। सपेरों की जीविका कैसे चलेगी, इस प्रश्न पर उपन्यास मौन है। सपेरे अपना पेशा छोड़ने के बाद मजदूरी करने लगते हैं। विजयदान देथा और अमरकांत की रचनात्मक भाषा से रत्नकुमार की लेखनी को समीकृत करते हुए हरियश राय ने कहा कि स्थानीयता ‘साँप’ उपन्यास की बहुत बड़ी खूबी है।
आलोचक प्रेम तिवारी ने इस उपन्यास में विकसित प्रेम संबंध को कथा का प्राणतत्व बताया। उन्होंने कहा कि मिलन देवी और लखीनाथ मिलकर भी नहीं मिल पाते, रचनाकार की यह ‘नैतिकता’ अखरती है। साँप की विषयवस्तु नई लेकिन ढांचा पुराना है। उपन्यास में आँचलिकता के पूरे लक्षण दिखाई देते हैं। कथाकार डॉ. टेकचंद ने समकाल की रोशनी में उपन्यास की व्याख्या की। उन्होंने कहा कि आज जिंदा को मारकर नकली की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है। दलितों, आदिवासियों पर होने वाली हिंसा का उल्लेख करते हुए टेकचंद ने कहा कि देश में देश बेगाना है। उपन्यास में स्त्रियों का करेक्टर ठीक से गढ़ा गया है। उच्च वर्गीय लोगों में कभी कभी मसाणियाँ बैराग पैदा होता है जैसे इस उपन्यास के सेठ-सेठानियों में है। हाँ, मिलन देवी में यह भाव स्थायी रूप से आता है। उन्होंने कहा कि उपन्यास में यूटोपिया- डिस्टोपिया का द्वंद्व ठीक से नहीं बन पा रहा है। मिलन देवी समस्या का समाधान कर देती हैं| कई चरित्र सपाट भी हुए हैं।
विमर्शकार डॉ. छोटूराम मीणा ने कहा कि उपन्यास का नायक लखीनाथ अपनी शर्तों पर जीने वाला व्यक्ति है। सपरानाथ खल पात्र है| उन्होंने कहा कि पितृसत्ता घुमंतू जातियों में भी है लेकिन भिन्न प्रकार की। उनके अनुसार यह उपन्यास क्रिमिनल ट्राइब एक्ट 1871 को ध्वस्त करता है। उपन्यास में राजस्थानी के शब्द हैं और हरियाणवी के भी। इन शब्दों से पठनीयता में बाधा नहीं आती। आलोचक डॉ. सरोज कुमारी ने 35 अध्यायों और 400 से अधिक पृष्ठों में रचित इस कृति को स्त्री प्रधान उपन्यास बताया। उपन्यास से साँपों की दिनचर्या सामने आती है| उपन्यास में देशज शब्दों की भरमार है जिससे दिक्कत होती है। सरोज कुमारी ने कहा कि इस उपन्यास को पाठ्यक्रम में लगाया जाना चाहिए।
इतिहासविद और आलोचक रमाशंकर सिंह ने कहा कि हमें दलित विमर्श से बाहर जाकर ‘साँप’ के बारे में बात करनी होगी। घुमंतू जातियाँ धरती बिछाती हैं, आकाश ओढ़ती हैं। यह मानवीय अनुभव जानने के लिये ही इतिहासकार साहित्य की तरफ आ रहे हैं। उपन्यास के कवर पेज पर किए गये दावे कि यह हाशिए के समाज का पहला उपन्यास है। आपत्ति जताते हुए वक्ता ने कहा कि पहले भी इस विषय पर कई कृतियाँ लिखी जा चुकी हैं। रमाशंकर सिंह ने कहा कि मनुष्य की महानता की बिजली घूमंतू लोगों पर टूटी हैं, जानवरों पर ख़ास तौर से।
‘साँप’ के लेखक रत्नकुमार सांभरिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि जहाँ रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूँ’ उपन्यास करनट जाति पर, मैत्रेयी पुष्पा का ‘अल्मा कबूतरी’ उपन्यास कबूतरा जाति पर, मणिमधुकर का उपन्यास ‘पिंजरे में पन्ना’ गाड़िया लोहार जाति पर तथा शरद सिंह का उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ बेड़िया जाति पर केंद्रित है, वही ‘साँप’ उपन्यास सपेरा- कालबेलिया, कंजर, मदारी, कलंदर, कुचबंद, नट, बाजीगर, भांड-बहुरुपिया जैसी खानाबदोश-घुमंतू जनजातियों के सामूहिक वर्ग-संघर्ष का प्रतिफलन है। इस संघर्ष में उनके जीव जानवर सहभागी होते हैं।
आभार ज्ञापन करते हुए जलेस के महासचिव डॉ. संजीव कुमार ने कहा कि ‘साँप’ एक यादगार उपन्यास साबित होगा। उपन्यास का मर्म नायक लखीनाथ सपेरा का यह उत्साह भरा और दर्द में डूबा कथन है, “साब हम, धरती बिछावां, आकास ओढ़ां, अपना पसीना से नहा लेवां अर भूख खाकै सो जावां।”
कार्यक्रम का संचालन बजरंग बिहारी ने किया। संगोष्ठी में रेखा अवस्थी, संपत सरल, हीरालाल नागर, संदीप मील, रामधन गांगिया, सुशील उपाध्याय, हरेन्द्र तिवारी, शुभम, काजल आदि लेखक व शोधार्थी उपस्थित रहे।
प्रस्तुति- जनवादी लेखक संघ
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