Ticker

6/recent/ticker-posts

शैलीबद्धता और कहानी का रंगमंच विशेष संदर्भ : देवेंद्र राज अंकुर

स्तानिस्लावस्की के अभिनय सिद्धांत की परम्परा को नाट्य जगत मे एक वरदान के रुप मे माना जाता रहा हैं, इस सिद्धांत से प्रभावित होकर अनेक नाट्ककारों व निर्देशकों ने संसारिक जीवन के अनुभवो को हूबहू मंच पर ला कर रंगमंच के इतिहास मे क्रांति ला दी, परंतु विश्वयुद्ध की त्रासदी ने मानवीय मूल्यों व मानव के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया, इन्ही प्रश्नो ने एक नए रंगमंच को जन्म दिया, इन विचारो से प्रभावित हो कर नाट्क लिखे और खेले जाने लगे, इसी विचार ने बॉक्स रंगमंच के बंधे बंधाये खांचे से रंगमंच को बाहर निकाला और अनेक नई शैलियों और फार्मों का उदय हुआ, जिसमे विसंगति के नाटक, प्रयोगवादी रंगमंच, टोटल थियटर व शैलीबद्ध अभिनय आदि का जन्म हुआ। 

शैलीबद्धता दो विपरीत तत्वो का संयोग हैं , जब दो विपरीत तत्व एक ही समय पर एक काम करने लगते हैं तो एक अनचाही स्थिति रचित होने लगती हैं  तब यह बनी बनायी धारणा, सोच ओर आदर्श को तोड़ देती हैं ।

शैलीबद्ध अभिनय रंगमंच का एक सशक्त माध्यम हैं , जो रंगमंच की इच्छापूर्ति का माध्यम हैं , शैलीबद्ध अभिनय अपने साथ सभी प्रकार की शैलियों, फार्मों आदि को आने का निमंत्रण देता हैं , ताकि रचना प्रक्रिया मे किसी प्रकार की बाधा न हो, stylization शब्द माना कि western का हैं  लेकिन यह हमारे भारत से ही विदेशों मे गया हैं, संस्कृत नाटकों मे यह शैलीबद्ध के रुप मे प्रयोग होता रहा हैं, अंग संचालन, हस्तमुद्राओं, चारि, लयबद्धता व गीत-संगीत आदि से परिपूर्ण अभिनय ही शैलीबद्धता की पहचान हैं । वर्तमान में निर्देशक आंगिक अभिनय की तकनीकों का समिश्रण और नाट्य धर्मी नियमों को छूता हुआ वह शैलीबद्धता का निर्माण करता हैं । शैलीबद्ध अभिनय नाट्यधर्मी के नृत्य, गीत, संगीत से परिपूर्ण अभिनय की निर्मिति हैं । विदेशों मे stylization का प्रयोग हमारे भारत से प्रभावित हैं , देवेन्द्र राज अंकुर जी कहते हैं  – “यूनानी नाट्क, शेक्स्पीयर के नाटक, मोलियर के नाटक, बेन जान्सन के नाट्क, मार्लो के नाट्क कहने का तात्पर्य ये हैं  कि यर्थाथवादी दौर से पहले किसी भी देश और भाषा के नाटकों को उठा लीजीये, वे पूरी तरह से शब्द बहुल नाट्क हैं , और तुर्रा यह कि वे पूरी तरह से नाट्यधर्मी रंग परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं , जो अपनी मंचीय अभिव्यक्ति मे अधिक से अधिक शैलीबद्ध रंग तत्वों यथा गीत, संगीत, मुद्राओ एवं गतियो का प्रयोग करते हैं

प्रसिद्ध रंग-निर्देशक रतन थियम (नाटयदर्शन, 2012) नाट्यशास्त्र को भारतीय प्रदर्शंनकारी कलाओं का बीज मानते हैं। जिसकी जड़ों से सारी कलाओं का जन्म हुआ, चाहे भरत मुनि हो, अरस्तु या ज़ियामी सभी कला गुरुओं ने कला को बहुत करीब से जाना, मनुष्य के बारे मे, सौंन्दर्य के मापद्ण्ड क्या हैं? आदि पर गहन अध्ययन किया, उन्होने यह नही कहा कि यही करना चाहिए। उन्होने प्रदर्शन की तकनीकों को परिष्कृत करने, अंगो मे परिष्कार लाने, मानवीय सम्वेदना को अभिव्यक्त करने के लिए क्या-क्या ढंग हो सकते हैं? रस को कितने तरीके से व्यक्त कर सकते हैं? आदि से परिचित कराया, इसके बाद स्तानिस्लावस्की, आर्तो, ब्रेख्त, और ग्रोतोवस्की भारत आए उन्होने नाट्यशास्त्र को पढ़ा, उसे सराहा और ग्रहण भी किया। रंगमंच मे अभिनय की जड़ें किसी स्थान विषेश से नही हैं , इसकी जड़े बहुत ही विशाल हैं  यह लेन-देन की एक प्रक्रिया हैं, एक कला दूसरी कला से प्रभावित है। 

शैलिबद्धता और नाट्यधर्मिता -

भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र के अध्याय 13 के अंतर्गत नाटक मे रोचकता व सौंदर्य लाने के उद्देश्य से नाट्यधर्मी रुढ़ियो का वर्णन किया है, इस प्रकार शैलिबद्धता और नाट्यधर्मिता ऐतिहासिक एवं पौराणिक कहानियों मे चमत्कारिक दृश्यों को पैदा करने मे सहायक भूमिका निभाते हैं, नाट्यधर्मी का क्षेत्र अति व्यापक हैं, यह लोकधर्मी के यथार्थ से आगे जाने का मार्ग हैं, जैसे- एक पात्र का अनेक पात्रों में समाहित होने व बाहर निकलने की प्रक्रिया, पात्रों के अंग संचालन मे रोचकता व लयात्मकता, संसारिक गतिविधियों का प्रतिकात्मक दृश्यांकन आदि अनेक सम्भावनाओं का द्वार खोलती हैं।  

जब भी हम नृत्य या अन्य शास्त्रिय कला रुपों को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि इन कलाओं मे प्रयोग होने वाली मुद्रायें, गति, भाव- भंगिमायें सभी कुछ हमारे रोज़ के जीवन का विस्तार लिए हुए हैं , इन्हे एक विशेष उदेश्य के लिये सौंद्र्यपूर्ण व प्रस्तुतिपरक रूप से व्यवस्थित किया गया हैं, नृत्य मे शरीर का कोइ भी भाग सीधे सीधे गति नही करता है, यह हमेशा तिरछा ओर विपरित दिशा की ओर गति करता है, “संस्कृत नाटकों की प्रस्तुति करते समय, उक्त परम्परा के जीवंत तत्व का समयानुकूल एवं उचित प्रयोग करना चाहिये, परम्परा को उसी रुप मे न लेते हुए उसके बेमेल अंशों का एकदम तिरस्कार करना और उसमे से सार तत्व का स्वीकार करना ही सृजनात्मकता का सबसे बड़ा लक्षण है, यहाँ निषेध का अर्थ हैं परम्परा के आंतिरक स्वरुप को उसकी समग्रता मे देखना।

इस प्रकार समान शैलीबद्द अभिनय भी इसी सिधान्त का अनुसरण करता हैं। देवेंद्र राज अंकुर के कहानी के रंगमंच मे भी हम पाते हैं कि निर्देशक बिना शब्दों व कहानी के आशय मे फेर बदल किए, मंच पर शैलिबद्द दृश्यों को रचते हैं, यहाँ कहानी को बोलना, संवाद, व भाव सभी कुछ कहानी के अनुरुप होते हुए गति और दृश्य में भिन्नता लिए हुए होते हैं। कहानी के रंगमंच मे अभिनेता, सूत्रधार और पात्र सभी का वास्तविक और काल्पनिक रुप एक ही मंच पर एक ही समय पर हो सकता हैं, यहाँ अभिनेता, पात्र और सूत्रधार सभी मंच पर अपनी उपस्थिति, एक साथ दर्ज कराते हैं, वास्तविक वातावरण जो कि शब्दो के साथ-साथ बनते-बिगड़ते रहते हैं, अनायास ही शैलीबद्धता का रुप धारण करते जाते हैं।

आज ग्लोब्लाइजेशन युग हैं, व्यक्ति मशीनीकरण के युग में हैं। आज के व्यक्ति का साथी व्यक्ति न हो कर मशीन हैं, आज का व्यक्ति मशीन आश्रित हैं, ऐसे मे वह भावना शुन्य हो जाता हैं। इसके विपरीत आज का रंगमंच इसी स्थिति से जूझते हुए अभिनेता केंन्द्रित व अभिनेता प्रधान्य हो गया हैं। यहाँ अभिनेता अपने पूर्व अनुभव के साथ मंच पर एक स्वतंत्र स्थिति का बोध कराता है, सबसे ध्यान देने योग्य बात यह है कि शैलिबद्धता रंगमंच को किसी सीमा रेखा से नही बांधती। शैलीबद्ध शब्द आते ही विषय ग्लोबल हो जाता हैं। यहाँ अभिनेता किसी भी तरह के चरित्र या मंच सामग्री से बंधा नही होता, इसलिए यहाँ आहार्य नगण्य हो जाता है, कहने का तात्पर्य यह है कि अभिनेता को अपने चरित्र का चित्रण करने के लिए किसी आभूषण या उस चरित्र की पहचान का वस्त्र पहनने की आवश्यकता नही हैं, यहाँ  अभिनेता का अभिनय महत्वपूर्ण हो जाता है।  जबकि नाट्यशास्त्र के 19वें अध्याय मे भरत ने आहार्य का विस्तृत वर्णन करते हुए अभिनेता के लिय आहार्य को महत्वपूर्ण माना हैं, जिसके दवारा अभिनेता अपनी व्यक्तिगत पहचान छुपा कर एक दूसरे चरित्र मे आने के लिए रंगो, कपड़ों, गहनों व मुखौटों का सहारा लेता हैं, जबकि अंकुरजी के कहानी के रंगमंच मे ऐसा नही हैं। अभिनेता अपनी वास्तविक रुप व वेषभूषा के साथ मंच पर आंगिक व वाचिक अभिनय द्वारा गतिशील रहते हुए घटनाओं का दृश्य निर्माण कर सकता है, यहाँ अभिनेता मंच के एक कोने मे खड़े होकर कहानी कहते हुए सूत्रधार भी हो सकता हैं, और एक व्यक्ति विशेष भी। वह घटना का वर्णन इस प्रकार करता हैं, जैसे कि वह घटना उसकी आंखों के सामने घटित हो चुकी है, वह कहानी का वर्णन इस प्रकार करता हैं, जैसे कि वह अपना अनुभव दर्शको से बाट रहा हो। मुख्यता नाटक तीन स्थितियों से हो कर गुजरता हैं - प्रारम्भ, मध्य और अंत। नायक चाहे कितनी भी कठिन परिस्थिति मे हो अंत मे वह फलागम को प्राप्त करता ही है।

एक सुखद अंत भारतीय रंगमंच की विशेषता रही है, साथ ही नाटक का अंत मे किसी परिणाम तक पहुचना अनिवार्य रहा हैं (महेश आनंद, 1997) । अंकुर जी कहानी के रंगमंच में इस तरह के किसी भी नियम का पालन करने को विवश नही हैं। कहानीकार कहानी का अंत जिस प्रकार से करता है अंकुरजी भी उसी प्रकार उसका अंत करते हैं। ज़रुरी नही है कि अंत सुखद हो या वो अपने परिणाम तक पहुचे, हो सकता हैं कि कहानी के मध्य में ही कहानी का अंत हो जाय और आगे का परिणाम दर्शकों के लिय छोड़ दिया जाय। अंकुरजी अंग्रेजी के शब्द लाउडथिंकिंग (loud thinking) का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि इसका मतलब जोर-जोर से सोचना, जिसमे पात्र के स्मृति को याद करना, कहानी का तीसरे पुरुष मे लिखा होना, जैसे दो अभिनेताओ के बीच बात चीत करते हुए कहानी का नैरेशन सुनाने की तरह संवाद के रुप मे बोल कर शेयर कर लेना, दूसरी कोशिश में सीधे-सीधे अपने ही बारे मे थर्ड पर्सन के रुप मे अभिनेता दवारा सुनाया जाना, और फिर जो भी दृश्य हैं, उसमे वह पात्र खुद ही हिस्सा लेने लगे। डॉ. अनूपम आनन्द लीलामे अभिनय के तीन स्तर को देखते हैं, पहले एक व्यक्ति, दूसरा एक अभिनेता, तीसरा अभिनेता द्वारा किए जाने वाली भूमिका, डॉ अनुपम आनंद लिखते हैं कि- ब्रह्म चराचर मे व्याप्त है, अभिव्यक्त है, सर्वशक्तिमान है, वो अपने आप को लोक मे व्यक्त करने के लिए लीला का बाना धारण करता है, ब्रह्म एको अह् बहुस्यामीके रुप मे घोषित करता है, अभिनेता भी इन तीनो स्तरो को एक साथ मंच पर जीता हैं। और दर्शक भी एक साथ स्वीकार करता है, यह लीला तत्व की विशेषता है, अंकुर जी लाउडथिंकिग द्वारा इस प्रक्रिया को समझाते हुए कहते हैं कि – “आवाज की तर्ज पर अभिनेता वर्तमान मे भी उपस्थित है और दूसरे पीछे भी लौटता है, वह चरित्र भी हो सकता है और उसी वक्त अपने ही उपर टिप्पणी भी कर रहा होता है

अनुपम आनन्द कहते हैं कि- यह प्रक्रिया भारतीय शास्त्रों से भिन्न है। अभिनय की इस पद्धति में व्यक्ति का स्तित्व बना रहता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति, अभिनेता और पात्र तीनो मंच पर स्वतंत्र विचरण करते हुए अपनी अपनी भूमिका अदा करते हैं। यहाँ निर्देशक के लिए सबसे चुनौती पूर्ण होता है, कहानी की आंतरिक बुनावट से उभरे दृश्य रूपों को उभारना। यहाँ नाटक की तरह स्पष्ट दृश्य योजना या फिर संवादों की नाटकीयता नही होती हैं, यहाँ निर्देशक को उन दृश्योंकी कल्पना करनी पड़ती है, जो पात्र के मन मे चल रही होती है। जैसा कि लेखक ने कहानी मे पात्र के सोचने की स्थिति के बारे मे लिखा है। 

इस वास्तविक वातावरण का जोकि शब्दो द्वारा तैयार होता हैदृश्य के साथ ज़रुरी नही हैं कि  तालमेल हो। यहाँ अभिनेता, पात्र और सूत्रधार सभी मंच पर स्वतंत्र विचरण करते हैं, संवाद बोलते समय अभिनेता की मन: स्थिति कैसी बन रही है,  वह या तो शब्दों द्वारा दृश्यों का सृजन करे या फिर उससे उलट कुछ अलग कर डाले, यहाँ  अभिनेता की गति और मन:स्थिति के बीच कुछ भी तय नही हैं (अनुभव: मध्य प्रदेश नाट्य कला संस्थान, निर्मल वर्मा की तीन कहाँनियों का मंचन,भोपाल)।

जब भी कोई शैलीबद्ध दृश्य आंखो के आगे आता है तो अचानक से हम भ्रमित हो जाते हैं और अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगते हैं, अपना खुद का अर्थ तैयार करते हैं और हम खुद को उस कहानी के साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं। यहाँ अभिनेता की गति और कहानी दोनों में मिलान नही भी हो सकता है, जब कहानी को उसके लिखे हुए रुप मे ही अभिनेता बोल रहा हो तब कहानी यर्थाथ में और कल्पना दोनों में चलती है। जबकि अभिनेता की गति लयात्मक और संकेतात्मक भी हो सकती है। जैसे अभिनेता कहानी कहते-कहते एक स्टूल पर चढा, अभिनेता का स्टूल पर चढना वास्तव मे स्टूल पर चढ़ना न हो कर वह पात्र के प्रगति का या छत पर चढ़ने का सूचक हो सकता है। अंकुर जी के कहानी के मंचन मे, बहुतायत से हम ऐसा देख सकते है, यहाँ दर्शक दृश्य देख कर सही-सही स्थिति का विश्लेषंण नही कर सकते। जैसा कि यर्थाथवादी नाटकों में होता हैं, अनेकार्थ का द्वार खुल जाता है। यहाँ शास्त्रीय और यर्थाथवादी रुप दीखता है, और दोनो मिल कर शैलिबद्धता की रचना करते हैं । 

साहित्य और शैलिबद्धता दोनों अपने में ही एक विरोधाभासी शब्द हैं, और अंकुर जी ने इन दोनों का ही प्रयोग कहानी के मंचन में करके एक अनोखा तरीका इजाद किया। इस प्रयोग मे नाट्यशास्त्र का नाट्यधर्मी रुप भी है। साथ ही अभिनय के सभी प्रकार आंगिक, वाचिक, आहार्य तथा सात्विक की भी अहम भूमिका हैं।  इसके साथ ही जनांतिक, अपवारित व आकाशभाषित जो कि सिर्फ संस्कृत नाटकों में ही प्रयोग होते थे, अंकुरजी अपने कहानी के मंचन मे बड़ी ही कुशलता से प्रयोग करते हैं। जैसा कि रमेश चंद्र शाह की तीन कहाँनियों के मंचन जिनमें कहानी आज की तारीख मे, पक्ष, तथा अभिभावक के अभ्यास से प्रस्तुति तक की प्रक्रिया के दौरान के अनुभव मे पाया कि मंच पर अभिनेता, सूत्रधार, व पात्र का एक- दूसरे में समाहित होने और निकलने की प्रक्रिया चलती रहती है।  कहानी कहना और संवादों के साथ उसे क्रिया रुप मे लाना, आखों  के द्वारा व भाव- भन्गिमाओं के द्वारा दृश्यो का निर्माण, वस्तुओं के प्रयोग का माइम करना, अभिनय का यथार्थ के करीब पहुच कर उस यथार्थ का टूटन, यह बनने और टूटने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। कहानी पक्षमे कहानी की लाइन इस प्रकार है- छोटा था तभी से सोचा करता था माँ को अपने पास ही रखूंगा हमेशा, वैसा भी नही हो पाया, वो सपना पूरा होने की नौबत ही नही आई, अब तो असम्भव ही है, अब तो माँ भी बहुत बूढ़ी हो गई, आंखो मे जाने क्या हो गया है दिखाई भी नही देता, आपरेशन के बाद भी हालत जरा भी नही सुधरी, किसी दिन माँ भी...! 

अभिनय करते समय कहानी की प्रकृति वही होती है। लेकिन अभिनय की कहानी से भिन्न, जैसे अभिनय मे यतीन और मनोरमा दोनो द्वारा संवाद की तरह बोलना, यकायक यतीन और मनोरमा का आलाप लेते हुए कहानी का बोलना, गति का भी लयात्मक हो जाना, जोकि दृश्य का यथार्थ को तोड़कर शैलिबद्ध हो जाना । यहाँ सूत्रधार, अभिनेता, पात्र तथा व्यक्ति सभी एक ही समय पर एक ही मंच पर उपस्थित रहते हुए अपनी अपनी भूमिका निभाते हैं, कब सूत्रधार पात्र बन जाता है और पात्र सूत्रधार, इस तरह की प्रक्रिया बराबर मंच पर चलती रहती है, यहाँ सूत्रधार ही कहानी कहते-कहते कहानी का किरदार बन जाता है, जो घटना घटित हो चुकी है, उसका वर्णन और उस घटना का दृश्यांकन (जो की अतीत में घट रही थी)। जबकि संस्कृत नाटकों में दो तरह के पात्र होते हैं, एक तो वो अभिनेता जो शारीरिक भाषा द्वारा दृश्य रचना करते थे जिन्हे शोभनिका कहा जाता था तथा दूसरे वे जो कहानी का वर्णन करते थे जिन्हे ग्रंथिका कहा जाता था, बाद मे वह कथिका के रुप मे सामने आई।(Sanskrit drama in Performance, page 13) बाद मे इसी प्रक्रिया ने रंगमंच का रुप लिया होगा, जहाँ कथा वाचक के वाचन के अनुरुप अभिनेता शारीरिक क्रिया करके दृश्य का निर्माण करता रहा होगा। यहाँ अभिनय का रुप नाट्यधर्मी ही रहा होगा, इसी प्रकार कहानी के रंगमंच में भी अभिनेता घटनाओं का मर्म समझ कर उस काल का आनंद लेता है, और शारीरिक एवं  शाब्दिक दोनो स्तर से दृश्य का निर्माण करता हैं। (संगीता गुंदेचा,2012)

प्रसिद्ध रंग निर्देशक कावालम नारायण पनिक्कर कहते हैं कि- लोकधर्मी स्तर पर हम सिर्फ वस्तु की अवस्था का सृजन कर सकते हैं, जबकि नाट्यधर्मी मे अभिनेता वस्तु के सत्व मे डूबता है, उसका आनंद लेता हैं, और अपने शारीरिक भंगिमाओ से वस्तु के आंतरिक लक्षणों को व्यक्त कर दर्शकों के सामने उस अदृश्य वस्तु को साकार करता है

महेश चम्पकलाल शाह ने भी नाट्यम के लेख निर्देशक का रंगमंचमे कहा है कि- यथार्थवादी शैली में खेले जाने वाला नाटक अभिनेता की कल्पना को सन्कुचित कर देता है। शैलीबद्द अभिनय द्वारा अभिनेता मनोवैज्ञानिक यथार्थ तथा चरित्र चित्रण की तफसीलो में न जाकर अपनी भाव, मुद्राओं और देह का उचित इस्तेमाल आदि उपकरणों के जरिये मंच पर नये बिम्ब रचता है। इस नये शिल्प की खोज भारत और विदेशों में  यर्थाथवादी और प्रकृतवादी प्रवृतियों के खिलाफ प्रतिक्रिया से जन्मी है। जो 1850 के करीब विश्व रंगमंच में छाने लगी।(नाटयम नाट्य परिषद, सागर प्रकाशन)

कहानी के रंगमंच मे अभिनेता शब्दों का शैलीबद्ध संसार रचता है। तात्पर्य वस्तु व घटनाओं की हूबहू उपस्थिति न होकर उनके होने का आभास शब्दों व भाव भंगिमाओं द्वारा साकार करना। जैसे मंच सामग्री के रुप मे एक सीढ़ी का तरह तरह से प्रयोग। कहानी अभिभावकके मंचन मे राजा का सीढ़ी के ऊपर गुस्से से लेट जाना और उसके अभिभावक के द्वारा जोकि सूत्रधार की भी भूमिका कर रहे हैं, राजा द्वारा की गई तत्काल प्रतिक्रिया का वर्णन भी करते जाना। यहाँ दर्शकों को पात्र और सूत्रधार का आभास एक ही समय मे एक ही अभिनेता मे देखने को मिल जाता है । 

नाट्यशास्त्र मे नट्न या की तीसरी विधा नाट्य है, इसमें सम्पूर्ण अभिनय होता है, और रस की पूरी सामग्री प्रस्तुत की जाती है, और दर्शक के हृदय मे रस का संचार किया जाता है। भरत ने भी आंगिक आदि अभिनयों से युक्त सुख-दुखादि से समन्वित लोक स्वभाव को अभिनय कहा है। कहानी के रंगमंच में दर्शक को रस प्रदान करने के लिए आंगिक तथा वाचिक ही सम्पूर्ण है। इस शैली मे अभिनय के दो अन्य प्रकारों की कोई खास आवशयकता नही पड़ती। जब प्रेक्षक तक शब्दों व भाव भंगिमाओं द्वारा ही रस का संचार असानी से हो जा रहा है, तो अंगहार व मेकअप आदि की आवश्यकता गौंण हो जाती है । (पारसनाथ दिवेदी, 2004)

नंदिकेश्वरवाचिक अभिनय को नाट्य का शरीर कहते है, इसी प्रकार और अभिनेता इसी आधार को ग्रहण करते हैं, नाटय में जिस वार्तालाप या कथोपकथन का प्रयोग किया जाता है वह जीवन की सम्पूर्ण परिस्थिति के साथ सजीव रुप मे प्रयुक्त हो सकता है, प्राचीन काल में साहित्यिक और जीवन की भाषा मे अंतर नही रहा है, उस समय साहित्य की भाषा वही थी जो साधारण बोल- चाल की भाषा थी। नाटयशास्त्र मे भाषा के प्रकार व प्रयोग की उपयोगिता का विस्तार से वर्णन है । 

अंकुर जी ने कहानी के रंगमंच में नाटयशास्त्र की उक्तियों व प्राचीन काल से चली आ रही कहानी सुनाने व किस्सागोई की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उसको दृश्य रुप मे प्रस्तुत किया है। जिस प्रकार कहानी मे यर्थाथ व कल्पना का मिश्रण एक साथ होता है उसी प्रकार कहानी के रंगमंच मे कहानी के इस गुण को साक्षात करने में  शैलीबद्ध अभिनय की भूमिका भी अहम् है। शैलीबद्ध अभिनय के मुख्य तत्वो को दिए गए चित्र मे दर्शाया गया है-                                                 

सन्दर्भ सूची :

           शास्त्री, बाबूलाल शुक्ल। नाटयशास्त्र दूसरा अध्याय। चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी।

           Mishra, Dr. B. B. “Bharat Aur Unka Natya Shastra” National publishing house, New Delhi। (1988)।

           Gundecha, Sangeeta, “ Rang prasang”  NSD New Delhi  (july-dec. 2001)

           त्रिपाठी, राधावल्लभ, “नाटयम:अंक3नाट्यपरिषद सागर प्रकाशन, मई 1983

           Bose, mandkranta, “Movements And MimesD K.” print world (p) Ltd. New Delhi।(2007)। Print

           Schramm, Harold, “Musical Theatre In India”, University of Texas PressUK, (2007)। E-book

           Vajpeyi, Udayan, “KNPanikkar The Theatre of Rasa”, Niyogi booksNew Delhi, (2012)। Pri

           Guntecha, Sangeeta, “Natyadarshan: KN Panikkar Habib Tanveer Ratan Thiyam se Sanvad”Vani PrakashanNew Delhi। (2012)। Print

           अंकुर, देवेंद्रराज, पहला रंग: कहानी के भीतर से उभरता कहानी का रंगमंच

           आनंद, महेश, कहानी का रंगमंच, पेज 68,

           त्रिपाठी, राधावल्लभ, “नाटयम45नाट्यपरिषद सागर प्रकाशन।

           Baumer, M.,Van,Rachel and Brandon,James, R. “Sanskrit Drama in Performance”, page 3

           शाह, रमेश चंद शाह, “रमेश चंद शाह की तीन कहानियॉ

           मिश्र, सत्यदेव, “पाश्चात्य काव्यशात्र:अधुनातन संधर्भ”,ज्ञान भारती, इलाहाबाद प्रकाशन।

           विश्वंभरन, एम.एस., “नाट्यम:भास की रंगदृष्टि- मध्यम व्यायोग के संधर्भ मे

           दिवेदी, डॉ पारसनाथ,”नाट्यशास्त्र का इतिहास”, चौखम्बा सुर प्रकाशन, 2004।

           Prasanna, “Indian Method in Acting”National School of Drama। 2013-14।

           

संपर्क : अनीता गुप्ता शोधार्थी, नाटयकला विभाग, पॉन्डिचेरी यूनिवर्सिटी, पॉन्डिचेरी मोबा.  09487655738  anitarangbhoomi@gmailcom

परिवर्तन, अंक 2 अप्रैल-जून 2016 में प्रकाशित

Post a Comment

0 Comments