रामदेव सिंह 'कलाधर' ने हिंदी भाषा, भोजपुरी लोक भाषा और बाल साहित्य सम्बन्धी विपुल मात्रा में विविधतापूर्ण कविताएं लिखी हैं। 23 से अधिक कविता संग्रह हिंदी भाषा में, भोजपुरी लोक साहित्य में छः से अधिक और बाल साहित्य में 12 से अधिक उनके संग्रह हैं! पांच भागों में उन्होंने भूगोल जैसे जटिल और तथ्यपरक विषय को कविता शैली में लिखी है जो भूगोल जैसे विषय में बच्चों की समझ विकसित करने और उनके लर्निंग आउटकम में सहायक है।
भूगोल कलाधर (भाग एक से पांच तक) एक अत्यंत मौलिक और शिक्षाप्रद कृति है, जो भूगोल जैसे तथ्यपरक विषय को कविता के रसपूर्ण माध्यम से प्रस्तुत करती है। स्व. रामदेव सिंह 'कलाधर' एक कुशल शिक्षक थे। साथ ही साथ वे उच्च कोटि के कवि और समालोचक भी थे। इस पुस्तक की समीक्षा करते समय सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह उभर कर आता है कि लेखक ने कठिन भौगोलिक आँकड़ों और विवरणों को पद्यात्मक रूप देकर विद्यार्थियों के लिए उसे कंठस्थ करना सुगम बना दिया है। पुस्तक के प्रकाशक सुजान सिंह "सुजान" ने अपनी प्रस्तावना में स्पष्ट किया है कि इस पद्यात्मक शैली से बच्चे 'दिन दूनी रात चौगुनी' उन्नति करेंगे क्योंकि छंदों की गति पर भूगोल को याद करना सरल हो जाता है ।
पुस्तक का आरंभ उत्तर प्रदेश की जलवायु के वर्णन से होता है। लेखक ने ऋतुओं के चक्र को बहुत ही सरल पंक्तियों में पिरोया है। वे लिखते हैं कि ऋतु की गति जो ठीक वर्षभर रहती है, वही जलवायु है, जबकि थोड़े दिनों की स्थिति को मौसम कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि "मई-जून में गर्मी अतिशय, 'लू' चलती है पोखरे ताल, और सूख सरिताएं जाती, जन-जन होते बहुत बेहाल।" इन पंक्तियों के माध्यम से विद्यार्थी न केवल मौसम के नाम जानते हैं, बल्कि उनके प्रभावों और प्रकृति को महसूस कर सकते हैं। इसी प्रकार वर्षा और शीत ऋतु का भी उन्होंने सजीव चित्रण किया गया है।
प्राकृतिक वनस्पति और कृषि के क्षेत्र में यह पुस्तक जानकारी का खजाना जान पड़ती है। हिमालय की ढालों पर पाए जाने वाले शंकुल वनों, देवदार और चीड़ के वृक्षों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि "चीड़ वृक्ष की लीसा से तो बनता तारपीन का तेल, जड़ी-बूटियों का मिल जाना सबको जँचता मानों खेल।"
कृषि खंड में उत्तर प्रदेश की तीन प्रमुख फसलों- जायद, रबी और खरीफ को वर्गीकृत किया गया है। फसलों के नाम याद रखने के लिए उन्होंने दोहे जैसी शैली अपनाई है जैसे "गेहूं आलू जौ चना, अलसी मटर प्रधान, सरसो से सब्जी सजै, सजै हमारे कान।"
प्राथमिक स्तर के बच्चे चीजों को गेयता रूप में जल्दी सीखते हैं! इस प्रकार की रोचक शैली बच्चों के दिमाग में सूचनाओं को स्थाई रूप से अंकित करने में सहायक सिद्ध होती है।
उद्योग-धंधों और उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगरों का विवरण इस पुस्तक का एक अन्य सशक्त पक्ष है। कवि ने प्रत्येक शहर की विशेषता को उसकी पहचान के साथ जोड़ा है। कानपुर के विषय में वे लिखते हैं कि "कपड़े-चमड़े के तो अच्छे होते कारोबार हैं, साइकिल बिजली पंखे के भी तो होते ब्यापार हैं।" वहीं वाराणसी के लिए उनकी पंक्तियाँ हैं "यहाँ रेशमी साड़ी बनती सुन्दरता की जान है, डीजल इंजन बनते-रहते बहुत बड़ा सम्मान है।" इसी प्रकार आगरा के ताजमहल, फिरोजाबाद की चूड़ियों और मिर्जापुर के कालीन का वर्णन भी अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है ।
लेखक का व्यक्तित्व भी इस पुस्तक की गहराई को बढ़ाता है। परिचय खंड से ज्ञात होता है कि कलाधर जी राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत थे। जब अन्य कवि प्रेम गीतों में व्यस्त थे, तब वे अपनी रचनाओं द्वारा स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे। उनकी देशभक्ति उनके इस संकल्प में झलकती है कि "मैं पुजारी देश का हूँ, देश ही भगवान मेरा।" वे सादा जीवन और उच्च विचार के समर्थक थे और उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक साहित्य और शिक्षा की सेवा की।
उनके इस संग्रह में भौगोलिक क्षेत्रों के विभाजन के अंतर्गत भावर, तराई और दक्षिण के पठारी भाग का सूक्ष्म विश्लेषण मिलता है। तराई क्षेत्र की बीमारियों जैसे फाइलेरिया और मलेरिया का उल्लेख कर उन्होंने भूगोल को जनस्वास्थ्य से भी जोड़ दिया है। दक्षिण के पठारी भाग की वीरता का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि "बुन्देले पच्छिमी भाग में, पूरब मिलें बघेले, बडे बहादुर होते हैं ये, लडते थे असि ले ले।" ऐसी पंक्तियाँ भूगोल के साथ-साथ क्षेत्रीय इतिहास और संस्कृति का बोध भी कराती हैं।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि 'भूगोल कलाधर' केवल एक कविता संग्रह नहीं है, बल्कि यह एक पाठ्यपुस्तक की तरह है। जो बाल मनोविज्ञान को समझते हुए लिखी है। यह शिक्षा उद्देश्यों (लर्निंग आउटकम) को पाने की दिशा में एक बेहतरीन प्रयोग है। उनकी पद्यमय कहन शैली यह प्रमाणित करती है कि यदि विषय को अरुचिकर तथ्यों के बजाय लयबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया जाए, तो वह ज्ञान 'वरदान' सिद्ध होता है। कलाधर जी ने अपनी लेखनी से भूगोल को जो सरलता प्रदान की है, वह आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है। पुस्तक के अंत में दी गई प्रार्थना और विभिन्न विद्वानों जैसे डॉ. विद्यानिवास मिश्र और डॉ. राम कुमार वर्मा की सम्मतियाँ इस कृति की साहित्यिक और शैक्षणिक महत्ता पर मुहर लगाती हैं। यह पुस्तक ग्रामीण परिवेश के एक महान शिक्षक की मेधा और उनकी अपनी मिट्टी के प्रति समर्पण का जीवंत दस्तावेज़ है।
डॉ. रवीन्द्र पीएस




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