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Showing posts from July, 2025

मेरे सपने में आये जब प्रेमचंद

मध्य रात्रि का समय रहा होगा और मैं उसकी निस्तब्धता में सोया था। तभी एक धुँधली-सी आकृति मेरे सामने उभरती है। धोती-कुर्ता पहने, आँखों में गहरी संवेदना और चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान लिए कोई व्यक्ति कुछ कह रहा है। आवाज़ कुछ जानी-पहचानी लगी मानों बरसों से सुनता रहा हूँ। उन्होंने कहा, ‘आजकल का जमाना भी अजब है! कभी-कभी मन में विचार आता है कि क्या यह वही धरती है, वही मनुष्य हैं, जिनके बीच हमने अपनी कलम चलाई, जिनके सुख-दुख को अपनी कहानियों में पिरोया?’ चित्र : गूगल से साभार मैं चौंका, क्योंकि सब कुछ जाना-पहचाना और स्वाभाविक-सा लगा। यह तो मुंशी प्रेमचंद हैं! ठीक मेरे सामने, मुझसे बातें करते हुए।   ‘देखो बेटा’, उन्होंने अपनी बात जारी रखी, ‘एक समय था- जीवन की डगर कितनी सीधी-सादी थी और गाँव की धूल-भरी पगडंडियों पर चलते हुए कितना सुकून मिलता था। ज़रूरतें कम थीं और मन में एक स्थायी सन्तोष था। उस वक़्त आदमी का मोल उसकी हैसियत से नहीं, उसके भीतर के इंसान से था, उसकी ईमानदारी से था, उसके पड़ोसियों के साथ उसके व्यवहार से था, न कि उसके पास कितनी दौलत है या कितने चमकते कपड़े पहनता है, इस बात से।...

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खतरे और बचने के उपाय

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जहाँ मानवता के लिए असीमित संभावनाओं के द्वार खोलता है, वहीं यह रोजगार, विस्थापन, निजता का उल्लंघन, स्वायत्त हथियारों के उदय, साइबर सुरक्षा जोखिम, AI के नियंत्रण खोने, गलत सूचना के प्रसार, बढ़ती आर्थिक असमानता और मानवीय कौशल के क्षरण जैसी गंभीर चुनौतियाँ भी पेश करता है। यह विश्लेषण इन खतरों का विस्तार से मूल्यांकन करता है और AI के नैतिक, सुरक्षित और समावेशी विकास को सुनिश्चित करने हेतु नियामक ढाँचों, तकनीकी अनुसंधान, शिक्षा में सुधार और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग जैसे बहु-आयामी दृष्टिकोणों पर प्रकाश डालता है। इसका उद्देश्य AI के जिम्मेदार परिनियोजन के लिए एक संतुलित परिप्रेक्ष्य प्रदान करना है, ताकि इसके लाभों को अधिकतम किया जा सके और संभावित जोखिमों को न्यूनतम किया जा सके। परिचय आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) इक्कीसवीं सदी की सबसे परिवर्तनकारी प्रौद्योगिकियों में से एक बनकर उभरा है। इसकी क्षमताएँ, जो कभी विज्ञान-कथा का विषय थीं, अब दैनिक जीवन के हर पहलू में प्रवेश कर रही हैं। मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग जैसी उप-शाखाओं में हुई प्रगति ने AI ...

गुरुदत्त का सिनेमा : आंतरिक द्वंद्व और विद्रोह का काव्य

सिनेमा वैसे तो मूल रूप से मनोरंजन का एक साधन या कहिए पर्याय है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। इसी सरोकार के तहत कई फिल्मकारों ने परदे पर मनुष्य के अंतर्मन की अनंत गहराइयों को ऐसे उकेरा जैसे कोई शायर अपनी ग़ज़ल में समय की पीड़ा को पिरोता है, या कोई चित्रकार अपने हृदय के रंगों को कैनवास पर उंडेलता है।  बात भारतीय सिनेमा के उस युग (1950-60) की है जब राज कपूर सामाजिक आख्यानों से और बिमल रॉय यथार्थवादी चित्रण से दर्शकों को बाँध रहे थे। उस दौर में गुरुदत्त ने ऐसी फिल्मों का निर्माण किया, जिसके नायक और नायिकाएँ न केवल बाहरी समाज से बल्कि अपनी आंतरिक उथल-पुथल, पितृसत्तात्मक बंधनों और अस्तित्व की व्यर्थता से संघर्ष करते हुए दिखते हैं। उनकी फिल्में- ‘प्यासा’, ‘कागज़ के फूल’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ और ‘चौदहवीं का चाँद’ केवल सिनेमाई कृतियाँ नहीं बल्कि मानव मन की उस अनंत तृष्णा का काव्य हैं जो सामाजिक पाखंड, प्रेम की विडंबनाओं और अर्थहीनता के खिलाफ विद्रोह करती हैं। विविधताओं से भरी इस दुनिया मे एक संवेदनशील व्यक्ति सदैव अपनी सच्चाई की खोज में समाज और स्वयं से हारता रहा है। गुरुदत्त का जीवन ...

मधुबाला और दिलीप कुमार का अधूरा प्रेम-गीत

भारतीय सिनेमा के सुनहरे पर्दे पर अनगिनत प्रेम कहानियाँ उभरीं, उनमें से कुछ कल्पना की उड़ान थीं तो कुछ वास्तविक जीवन की मार्मिक गाथाएँ। मगर इन सबमें एक ऐसी प्रेम कहानी भी है जो समय के साथ फीकी पड़ने के बजाय और भी चमकदार होती गई, वह है 'मधुबाला और दिलीप कुमार की प्रेम कहानी।' यह सिर्फ दो सितारों का रिश्ता नहीं था, बल्कि दो असाधारण प्रतिभाओं और दो नितांत विपरीत व्यक्तित्वों के बीच पनपा ऐसा प्रेम था, जो अपने अधूरेपन के कारण आज भी सिनेमाई किंवदंतियों में शुमार है।   चित्र : गूगल से साभार आज के दौर में जब बॉलीवुड के रिश्ते क्षणभंगुर होते दिखते हैं, तब मधुबाला और दिलीप कुमार का नौ साल लंबा प्रेम संबंध, अपनी गहराई और मार्मिकता के कारण और भी विशिष्ट प्रतीत होता है। यह 1951 की बात है, जब फिल्म 'तराना' के सेट पर नियति ने उन्हें करीब ला दिया। उस समय, दिलीप कुमार को 'ट्रेजेडी किंग' के नाम से जाना जाता था। वे अपनी संजीदा अदाकारी, गहन व्यक्तित्व और पर्दे पर उदासी को साकार करने की अनूठी क्षमता के लिए मशहूर थे। उनका शांत स्वभाव और विचारों में डूबी आँखें उन्हें दर्शकों के बीच एक ...

बदलती वैश्विक शक्ति संरचना: बहुध्रुवीयता की ओर

वैश्विक शक्ति संरचना में परिवर्तन एक ऐसी गतिशील और जटिल प्रक्रिया है, जो मानव इतिहास के विभिन्न कालखंडों में सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक बदलावों के साथ आकार लेती रही है। यह प्रक्रिया न केवल देशों के बीच शक्ति के वितरण को प्रभावित करती है, बल्कि वैश्विक शासन, सहयोग और संघर्ष के तौर-तरीकों को भी पुनर्परिभाषित करती है। बीसवीं सदी में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक शक्ति संरचना द्विध्रुवीय थी, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ दो प्रमुख शक्तियों के रूप में उभरे। शीत युद्ध के समापन और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बन गया, जिसने एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था को जन्म दिया। हालांकि, इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में वैश्विक शक्ति संरचना में एक नया मोड़ देखने को मिल रहा है, जो अब बहुध्रुवीयता की ओर बढ़ रहा है। इस बदलाव ने वैश्विक मंच पर नए शक्ति केंद्रों को जन्म दिया है, जिनमें उभरते हुए देश जैसे चीन, भारत, ब्राजील और रूस, साथ ही क्षेत्रीय संगठन जैसे यूरोपीय संघ और आसियान शामिल हैं।        वैश्विक शक्ति संरचना का ऐतिहासिक...

यूक्रेन-रूस युद्ध और उसके भू-राजनीतिक निहितार्थ

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध, जो 2014 में क्रीमिया के रूसी कब्जे और डोनबास में अलगाववादी आंदोलनों के समर्थन के साथ शुरू हुआ और 24 फरवरी, 2022 को रूस के पूर्ण पैमाने पर आक्रमण के साथ चरम पर पहुंचा, आधुनिक विश्व के सबसे जटिल और गंभीर भू-राजनीतिक संकटों में से एक है। यह युद्ध केवल दो पड़ोसी देशों के बीच का क्षेत्रीय विवाद नहीं है, बल्कि इसने वैश्विक शक्ति संतुलन, आर्थिक स्थिरता, ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय कानून, और मानवाधिकारों को गहराई से प्रभावित किया है। इसने शीत युद्ध की याद दिलाई है, जहां विचारधाराओं, सैन्य शक्ति, और आर्थिक हितों का टकराव वैश्विक व्यवस्था को पुनर्परिभाषित कर रहा है। इस लेख में युद्ध के ऐतिहासिक मूल, कारणों, भू-राजनीतिक निहितार्थों, हाल के घटनाक्रमों और भारत जैसे तटस्थ देशों की भूमिका का गहन और तथ्यपरक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।   मूल आलेख   ऐतिहासिक संदर्भ रूस और यूक्रेन के संबंधों की जड़ें मध्यकालीन कीव रस (9वीं से 13वीं सदी) तक जाती हैं, जो आधुनिक रूस, यूक्रेन, और बेलारूस की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक नींव थी। कीव, जो अ...